शाम के साढे छ: बजे ऑफिस में कंप्यूटर बंद करने के पश्चात बैग उठाया और घर के लिए रवाना हुआ। पार्किंग से कार निकाली। साकेत से रोहिणी तक का सफर कितने समय में तय होगा, यह तो भगवान भरोसे है, कि वह कितना ट्रैफिक कहां खडा कर दे। तीस किलोमीटर का सफर डेढ घंटे से तीन घंटे तक का हो सकता है। खैर क्या कर सकते हैं, यह तो दिल्ली शहर में रहने का टैक्स है। टैक्स का नाम है ट्रैफिक टैक्स।फिर भी नौकरी तो करनी है। यह एक विडम्बना ही है, कि घर के पास पसन्द और मतलब की नौकरी नही मिलती है। रहते दिल्ली में है, तो नौकरी नोएडा या गुडगांव में मिलेगी। यदि नोएडा रहने लगो, तब तो शर्तिया नौकरी गुडगांव या दिल्ली में मिलेगी। गुडगांव वाले दिल्ली या नोएडा नौकरी करने जाते हैं। कहां जाए, कहां रहे, कहां नौकरी करें? यह तो खुदा भी नही बता सकता है। नौकरी तो आती जाती है, रह रोज घर तो बदला नही जाता। बच्चों के स्कूल देखना है। नौकरी तो मिल जाती है, स्कूल में एडमिशन नही मिलता, खैर छोडो इन बातों को, क्या रखा है? क्या कहा, कुछ नही रहा है, इन बातों में? झूठ बोल रहे हो आप, सच बोलना नही आता। आता तो है, पर बोला नही जाता।
चलो, घर के लिए निकलते है, कहां कहां कितना टैक्स देना है, मालूम नही। पहला टैक्स तो साकेत में ही दे देते हैं। पार्किंग से कार निकालने में ही दस मिन्ट लग गए, चारों तरफ कारों का काफिला। एक साथ ऑफिस से नौकरों का जत्था छूटता है और ऊपर से तीन मॉल्स, जहां शॉपिंग करने के लिए कम, मस्ती, धमा चौकडी के लिए ज्यादा कारें ही कारें। शाम को ऑफिस के नौकर तो चले जाते है, मनचलों की फौज धमा चौकडी करके सबूत छोड जाती है, बियर, शराब की टूटी बोतले पार्किंग में मिलती है, कार टायर के नीचे आ कर टायरों का सत्यानाश, पहला टैक्स तो यही है।
अगले टैक्स की बात करे, वह है ट्रैफिक टैक्स, हर मोड पर देना पडता है। मालवीय नगर मेट्रो स्टेशन महज डेढ किलोमीटर, समय मात्र तीस मिन्ट। तीसरा टैक्स यहीं देना है। ट्रैफिक सिगनल तीन मिन्ट का, तीन से चार बार के बाद आप सिगनल पार कर सकेगें। तब क्या करे, टैक्स देने के लिए तैयार है। एक के बाद एक भिखारी कतार से कारों के शीशे खटखटा कर भीख मांगने का काम शुरू। मना करने पर भी हिलते नही। वही परीचित भिखारियों के चेहरे, उनका ही इलाका है, मजाल है, कोई नया दिखाई दे जाए। हम तो नौकरी करते है, वे तो व्यापारी है, खुद का बिजनेस है, हम से ज्यादा कमाते है। हम कार में घूमते हैं, वे भी कारे चलाते है। मना करने पर भी हिलते नही। चुपचाप कार में बैठे रहते है, जब सिगनल लाल से हरा होता है, तब पट्ठे हिलते हैं, गुस्सा तो बहुत आता है, टैक्स चुकाने में, गाली टैक्स। पट्ठे गंदी, भद्दी गाली निकाल कर जाते हैं। समझ गए न, कौन सी वाली? ठीक समझे, मां बहन की जो मैं लिख नही सकता, पर सुननी पढती हैं। हर दूसरे दिन गाली टैक्स देना पढता है। समझ नही आता, कि क्यों गाली देते है? भीख भी क्यों दें, यह उनकी कोई मजबूरी नही है, पेशा है। भीख मांग कर हमसे ज्यादा कमाते है।खैर जब सरकार ने खुली छूट भीख मांगने की दे रखी है, तब बेचारी बेबस जनता सिर्फ गाली सुन सकती है। छोडो, अगला ट्रैफिक सिगनल प्रेस एन्कलेव, अरबिंदो मार्ग टी पाइंट पर है, कार रोकी, यहां पूरा परिवार एक नही, एक से अधिक परिवार छोटे बच्चो के साथ टूट पडते है, कारों पर। छोटा सा बच्चा, गोद में लिए भीख मांगती महिलाएं। मैं बहुत ध्यान से देखने लगा, बच्चा बेसुध था. ठंड के मौसम में जहां कार के अंदर ब्लोअर चला कर बैठे हैं, वही कडाके की ठंड में लगभग नग्न अवस्था में महिला की बांह में झूलता बच्चा। मुझे मौसमी मुखर्जी की बात याद आ गई। मेरी पडोसन मौसमी मुखर्जी एक एनजीऔ में कार्य करती है और जब कभी अपने हेडऑफिस हौजखास आती है, तब सुबह मेरे साथ कार में हौजखास तक का सफर तय होता है। उसी ने बताया कि उनकी एनजीऔ सर्वे करती है और एक सर्वे भिखारियों पर भी था। चौकाने वाला तथ्य यह था, कि ये भिखारी बच्चों को अफीम और दूसरे नशे की वस्तुएं देते है, जिस कारण बच्चों को और उन्हे भी कोई ठंड का असर नही होता है। जब नशे के पैसे है, तो भीख क्यों दें। वोही परीचित चेहरे हर रोज, सरकार सिर्फ अपनी कुर्सी की चिन्ता करती है, भिखारियों की कौन करे। उन्हे किसी काम धंधे पर लगाए। आलम यह है, कि न तो सरकार उनकी सुध लेती है, न ही भिखारी काम करना चाहते है।धार्मिक मान्यताऔं के चलते हम भीख देते जाते है और भिखारी नये हथकंडे अपनाते जाते है। आलम यह है, कि सरकार भी समझती है, जब जनता उसका काम कर रही है, भिखारियों को पैसे दे कर, तब वह क्यों कष्ट उठाए?
इसके बाद का सफर आऊटर रिंग रोड और रिंग रोड का है, कही ट्रैफिक कही स्मूथ, मधुबन चौक पहुंच गए। यहां हिजडों ने कब्जा जमाया है। यहां भिखारी नही है। शायद हिजडों से डरते हैं? यहां एक सकून है, कि हिजडे गाली नही निकालते। भीख मांगने का काम जरूर कर रहे है, न देने पर एक सैकेन्ड में चले जाते हैं। कुछ नही कहते। घर आने से पहले अंतिम पडाव रोहिणी ईस्ट मेट्रो स्टेशन। फिर से भिखारी और भीख न देने पर गाली निकाल कर जाते है। आखिर हर मेट्रो स्टेशन पर गाली निकालने वाले भिखारी क्यों मिलते है। जनाब यह तो टैक्स है, चुकाना ही है, दिल्ली महानगर में रहने का। चुकाते जाऔ, ट्रैफिक टैक्स और गाली टैक्स। जय़ हो। यह आप बीती नही है, जग बीती है, कही भी चले जाएं, यही हाल है, जनाब। क्या आपको साथ भी कभी कुछ मिलता जुलता ऐसा हुआ है?

 

 

 

मनमोहन भाटिया

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