पुलस्त्यजी बोले - मुने ! ब्रह्माजीके हदयसे जो दिव्यदेहधारी धर्म प्रकट हुआ था, उसने दक्षकी पुत्री ' मूर्ति ' नामकी भार्यासे हरि, कृष्ण, नर और नारायण नामक चार पुत्रोंको उत्पन्न किया । देवर्षे ! इनमें हरि और कृष्ण ये दो तो नित्य योगाभ्यासमें निरत हो गये और पुरातन ऋषि शान्तमना नर तथा नारायण संसारके कल्याणके लिये हिमालय पर्वतपर जाकर बदरिकाश्रम तीर्थमें गङ्गाके निर्मल तटपर ( परब्रह्मका नाम ॐ कारका जप करते हुए ) तप करने लगे ॥१ - ४॥ 
ब्रह्मन् ! नर - नारायणकी दुष्कर तपस्यासे सारा स्थावर - जंगमात्मक यह जगत् परितप्त हो गया । इससे इन्द्र विक्षुब्ध हो उठे । उन दोनोंकी तपस्यासे अत्यन्त व्यग्र इन्द्रने उन्हें मोहित करनेके लिये रम्भा आदि श्रेष्ठ अप्सराओंको उनके विशाल आश्रममें भेजा । कामदेवके आयुधोंमें अशोक, आम्रादिकी मंजरियाँ विशेष प्रभावक हैं । इन्हें तथा अपने सहयोगी वसन्त ऋतुको साथ लेकर वह भी उस आश्रममें गया । अब वे वसन्त, कामदेव तथा श्रेष्ठ अप्सराएँ - ये सब बदरिकाश्रममें जाकर निर्बादेह क्रीड़ा करने लग गये ॥५ - ८॥ 
तब वसन्त ऋतुके आ जानेपर अग्नि - शिखाके सदृश कान्तिवाले पलाश पत्रहीन होकर रात - दिन पृथ्वीकी शोभा बढ़ाते हुए सुशोभित होने लगे । मुने ! वसन्तरुपी सिंह मानो पलाश - पुष्परुपी नखोंसे शिशिररुपी गजराजको विदीर्ण कर वहाँ अपना साम्राज्य जमा चुका था । वह सोचने लगा - मैंने अपने तेजसे शीतसमूहरुपी हाथीको जीत लिया है और वह कुन्दकी कलियोंके बहाने उसका उपहास भी करने लगा है । इधर सुवर्णके अलंकारोंसे मण्डित राजकुमारोंके समान पुष्पित कचनारअमलतासके वन सुशोभित होने लगे ॥९ - १२॥
जैसे राजपुत्रोंके पीछे उनके द्वारा सम्मानित सेवक खड़े रहते हैं, वैसे ही उन ( वर्णित - वनों ) - के पीछे - पीछे कदम्बवृक्ष सुशोभित हो रहे थे । इसी प्रकार लाल अशोक आदिके समूह भी सहसा पुष्पित एवं उद्भासित हो सुशोभित होने लगे । लगता था मानो ऋतुराज वसन्तके अनुयायी युद्धमें रक्तसे लथपथ हो रहे हों । घने वनमें पीले रंगके हरिण इस प्रकार सुशोभित हो रहे थे जिस प्रकार सुहदके आनेसे सज्जन ( आनन्दसे ) पुलकित होकर सुशोभित होते हैं । नदीके तटोंपर अपनी मंजरियोंके द्वारा वेतस ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो वे अंगुलियोंके द्वारा यह कहना चाहते हैं कि हमारे सदृश अन्य कौन वृक्ष है ॥१३ - १६॥
देवर्षे ! जो दिव्य पतली एवं यौवनसे भरी वसन्तलक्ष्मी उस बदरिकाश्रममें प्रकट हुई थी, उसके मानो रक्ताशोक ही हाथ, पलाश ही चरण, नीलाशोक केशपाश, विकसित कमल ही मुख और नीलकमल ही नेत्र थे । उसके बिल्वफल मानों स्तन, कुन्दपुष्प दन्त, मञ्जरी हाथ, दुपहरियाफूल अधर, सिन्दुवार नख, नर कोयलकी काकली ( बोली ) स्वर, अंकोल वस्त्र, मयूरयूथ आभूषण, सारस नूपुरस्वरुप और आश्रमके शिखर करधनी थे । उसके मत्त हंस गति, पुत्रजीव ऊर्ध्व वस्त्र और भ्रमर मानो रोमावलीरुपमें विराजित थे । तब नारायणने आश्रमकी अद्भुत रमणीयता देखकर सभी दिशाओंकी ओर देखा और फिर कामदेवको भी देखा ॥१७ - २२॥ 
नारदजीने पूछा - ब्रह्मर्षे ! जिसे अव्यय जगन्नाथ नारायणने बदरिकाश्रममें देखा था, वह अनङ्ग ( काम ) कौन है ? ॥२३॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - यह कंदर्प हर्षका पुत्र है, इसे ही काम कहा जाता है । शंकर - ( की नेत्राग्नि - ) द्वारा भस्म होकर वह ' अनङ्ग ' हो गया ॥२४॥ 
नारदजीने पूछा - पुलस्त्यजी ! आप यह बतलायें कि देवाधिद व शंकरने कामदेवको किस कारणसे भस्म किया ? ॥२५॥ 
पुलस्त्यजीने कहा - ब्रह्मन् ! दक्ष - पुत्री सतीके प्राण - त्याग करनेपर शिवजी दक्ष - यज्ञका ध्वंस कर ( जहाँ - तहाँ ) विचरण करने लगे । तब शिवजीको स्त्रीरहित देखकर पुष्पास्त्रवाले कामदेवने उनपर अपना ' उन्मादन ' नामक अस्त्र छोड़ा । इस उन्मादन - बाणसे आहत होकर शिवजी उन्मत्त होकर वनों और सरोवरोंमें घूमने लगे । देवर्षे ! बाणविद्ध गजके समान उन्मादसे व्यथित महादेव सतीका स्मरण करते हुए बड़े अशान्त हो रहे थे - उन्हें चैन नहीं था ॥२६ - २९॥ 
मुने ! उसके बाद शिवजी यमुना नदीमें कूद पड़े । उनके जलमें निमज्जन करनेसे उस नदीका जल काला हो गया । उस समयसे कालिन्दी नदीका जल भृंग और अंजनके सदृश कृष्णवर्णका हो गया एवं वह पवित्र तीर्थोवाली नदी पृथ्वीके केशपाशके सदृश प्रवाहित होने लगी । उसके बाद पवित्र नदियों, सरोवरों, नदों, रमणीय नदी - तटों, वापियों, कमलवनों, पर्वतों, मनोहर काननों तथा पर्वत - श्रृङ्गोंपर स्वेच्छापूर्वक विचरण करते हुए भगवान् शिव कहीं भी शान्ति नहीं प्राप्त कर सके ॥३० - ३३॥
देवर्षे ! वे कभी गाते, कभी रोते और कभी कृशाङ्गी सुन्दरी सतीका ध्यान करते । ध्यान करके कभी सोते और कभी स्वप्न देखने लगते थे; स्वप्नकालमें सतीको देखकर वे इस प्रकार कहते थे - निर्दये ! रुको, हे मूढे ! मुझे क्यों छोड़ रही हो ? हे अनिन्दिते ! हे मुग्धे ! तुम्हारे विरहमें मैं कामाग्निसे दग्ध हो रहा हूँ । हे सति ! क्या तुम वस्तुतः क्रुद्ध हो ? सुन्दरि ! क्रोध मत करो ! मैं तुम्हारे चरणोंमें अवनत होकर प्रणाम करता हूँ । तुम्हें मेरे साथ बात तो करनी ही चाहिये ॥३४ - ३७॥
प्रिये ! मैं सतत तुम्हारी ध्वनि सुनता हूँ, तुम्हें देखता हूँ, तुम्हारा स्पर्श करता हूँ, तुम्हारी वन्दना करता हूँ और तुम्हारा परिषङ्ग करता हूँ । तुम मुझसे बात क्यों नहीं कर रही हो ? बाले ! विलाप करनेवाले व्यक्तिको देखकर किसे दया नहीं उत्त्पन्न होती ? विशेषतः अपने पतिको विलाप करता देखकर तो किसे दया नहीं आती ? निश्चय ही तुम अति निर्दयी हो ! सूक्ष्मकटिवाली ! तुमने पहले मुझसे कहा था कि तुम्हारे बिना मैं जीवित नहीं रहूँगी । उसे तुमने असत्य कर दिया । सुलोचने ! आओ, आओ, कामसन्तप्त मुझे आलिङ्गित करो । प्रिये ! मैं सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ कि अन्य किसी प्रकार मेरा ताप नहीं शान्त होगा ॥३८ - ४१॥ 
इस प्रकार वे विलाप कर स्वप्नके अन्तमें उठकर वनमें बार - बार रोने लगे । इस प्रकार मुक्तकण्ठसे विलाप करते हुए भगवान् शंकरको दूरसे देखकर कामने अपना धनुष झुका ( चढा ) - कर पुनः वेगसे उन्हें संतापक अस्त्रसे वेध डाला । अब वे इससे विद्ध होकर और भी अधिक संतप्त हो गये एवं मुखसे बारंबार ( विलख ) फूत्कार कर सम्पूर्ण विश्वको दुःखी करते हुए जैसे - तैसे समय बिताने लगे । फिर कामने उनपर विजृम्भण नामक अस्त्रसे प्रहार किया । इससे उन्हें जँभाई आने लगी । अब कामके बाणोंस्से विशेष पीड़ित होकर जँभाई लेते हुए वे चारों और घूमने लगे । इसी समय उन्होंने कुबेरके पुत्र पाञ्चालिकको देखा और उसको देखकर उसके पास जाकर त्रिनेत्र शंकरने यह बात कही - भ्रातृव्य ! तुम अमित विक्रमशाली हो, मैं जो आज बात कहता हूँ तुम उसे करो ॥४२ - ४६॥ 
पाञ्चालिकने कहा - स्वामिन् ! आप जो कहेंगे, देवताओंद्वारा सुदुष्कर होनेपर भी उसे मैं करुँगा । हे अतुल बलशाली शिव ! आप आज्ञा करें । ईश ! मैं आपका श्रद्धालु भक्त एवं दास हूँ ॥४७॥
भगवान् शिव बोले - वरदायिनी अम्बिकर ( सती ) - के नष्ट होनेसे मेरा सुन्दर शरीर कामाग्निसे अत्यन्त दग्ध हो रहा है । कामके विजृम्भण और उन्माद शरोंसे विद्ध होनेसे मुझे धैर्य, रति या सुख नहीं प्राप्त हो रहा है । पुत्र ! तुम्हारे अतिरिक्त अन्य कोई पुरुष, कामदेवसे प्रेरित विजृम्भण, संतापन और उन्माद नामक उग्र अस्त्र सहन करनेमें समर्थ नहीं है । अतः तुम इन्हें ग्रहण कर लो ॥४८ - ४९॥ 
पुलस्त्यजी बोले - भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर उस यक्ष ( कुबेर - पुत्र पाञ्चालिक ) - ने विजृम्भण आदि सभी अस्त्रोंको उनसे ले लिया । इससे त्रिशूलीको तत्काल संतोष प्राप्त हो गया और प्रसन्न होकर उन्होंने उससे ये वचन कहे - ॥५०॥ 
भगवान् महादेवजी बोले - पुत्र ! तुमने अति भयंकर विजृम्भण आदि अस्त्रोंको ग्रहण कर लिया, अतः प्रत्युपकारमें तुम्हें सब लोगोंके लिये आनन्ददायक वर दूँगा ! चैत्रमासमें जो वृद्ध, बालक, युवा या स्त्री तुम्हारा स्पर्श करेंगे या भक्तिपूर्वक तुम्हारी पूजा करेंगे वे सभी उन्मत्त हो जायँगे । यक्ष ! फिर वे गायेंगे, नाचेंगे, आनन्दित होंगे और निपुणताके साथ बाजे बजायेंगे । किंतु तुम्हारे सम्मुख हँसीकी बात करते हुए भी वे योगयुक्त रहेंगे । मेरे ही नामसे तुम पूज्य होगे । विश्वमें तुम्हारा पाञ्चालिकेश नाम प्रसिद्ध होगा । मेरे आशीर्वदसे तुम लोगोंके वरदाता और पूज्यतम होगे; जाओं ॥५१ - ५४॥
भगवान् शिवके ऐसा कहनेपर वह यक्ष तुरंत सब देशोंमें घूमने लगा । फिर वह कालंजरके उत्तर और हिमालयके दक्षिण परम पवित्र स्थानमें स्थिर हो गया । वह शिवजीकी कृपासे पूजित हुआ । उसके चले जानेपर भगवान् त्रिनेत्र भी विन्ध्यपर्वतपर आ गये । वहाँ भी कामने उन्हें देखा । उसे पुनः प्रहारकी चेष्टा करते देख शिवजी भागने लगे । उसके बाद कामदेवके द्वारा पीछा किये जानेपर महादेवजी घोर दारुवनमें चले गये, जहाँ ऋषिगण अपनी पत्नियोंके साथ निवास करते थे ॥५५ - ५८॥ 
उन ऋषियोंने भी उन्हें देखकर सिर झुकाकर प्रणाम किया । फिर भगवानने उनसे कहा - आप लोग मुझे भीक्षा दीजिये । इसपर सभी महर्षि मौन रह गये । नारदजी ! इसपर महादेवजी सभी आश्रमोंमें घूमने लगे । उस समय उन्हें आश्रममें आया हुआ देख पतिव्रता अरुन्धती और अनुसूयाको छोड़कर ऋषियोंकी समस्त पत्नियाँ प्रक्षुब्ध एवं सत्यहीन हो गयीं । पर अरुन्धती और अनुसूया पतिसेवामें ही लगी रहीं ॥५९ - ६२॥ 
अब शिवजी जहाँ - जहाँ जाते थे, वहाँ - वहाँ संक्षुभित, कामातं एवं मदसे विकल इन्द्रियोंवाली स्त्रियाँ भी जाने लगीं । मुनियोंकी वे स्त्रियाँ अपने आश्रमोको सूना छोड़ उनका इस प्रकार अनुसरण करने लगीं, जैसा करेणु मदमत्त गजका अनुसरण करे । मुने ! यह देखकर ऋषिगण क्रुद्ध हो गये एवं कहा कि इनका लिङ्ग भूमिपर गिर जाय । फिर तो महादेवका लिङ्ग पृथ्वीको विदीर्ण करता हुआ गिर गया एवं तब नीललोहित त्रिशूली अन्तर्धान हो गये ॥६३ - ६६॥ 
वह पृथ्वीपर गिरा लिंग उसका भेदन कर तुरंत रसातलमें प्रविष्ट हो गया एवं ऊपरकी ओर भी उसने विश्वब्रह्माण्डका भेदन कर दिया । इसके बाद पृथ्वी, पर्वत, नदियाँ, पादप तथा चराचरसे पूर्ण समस्त पाताललोक काँप उठे । पितामह ब्रह्मा भूर्लोक आदि भुवनोंको संक्षुब्ध देखकर श्रीविष्णुसे मिलने क्षीरसागर पहुँचे । वहाँ उन्हें देख भक्तिपूर्वक प्रणाम कर ब्रह्माने कहा - देव ! समस्त भुवन विक्षुब्ध कैसे हो गये हैं ? ॥६७ - ७०॥
इसपर श्रीहरिने कहा - ब्रह्मन् ! महर्षियोंने शिवके लिङ्गको गिरा दिया है । उसके भारसे कष्टमें पड़ी आर्त पृथ्वी विचलित हो रही है । इसके बाद ब्रह्माजी उस अद्भुत बातको सुनकर देवेश ! हम लोग वहाँ चलें - ऐसा बार - बार कहने लगे । फिर ब्रह्मा और जगत्पति विष्णु वहाँ पहुँचे, जहाँ शंकरका लिङ्ग गिरा था । वहाँ उस अनन्त लिङ्गको देखकर आश्चर्यचकित होकर हरि गरुड़पर सवार हो उसका पता लगानेके लिये पातालमें प्रविष्ट हुए ॥७१ - ७४॥
नारदजी ! ब्रह्माजी अपने पद्मयानके द्वारा सम्पूर्ण ऊर्ध्वाकाशको लाँघ गये, पर उस लिङ्गका अन्त नहीं पा सके और आश्चर्यचकित होकर वे लौट आये । मुने ! इसी प्रकार जब चक्रपाणि भगवान् विष्णु भी सातों पातालोंमें प्रवेश कर उस लिङ्गका बिना अन्त पाये ही वहाँसे बाहर आये, तब ब्रह्मा, विष्णु दोनों शिवलिङ्गके पास जाकर हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे ॥७५ - ७७॥ 
ब्रह्मा - विष्णु बोले - शूलपाणिजी ! आपको प्रणाम है । वृषभध्वज ! जीमूतवाहन ! कवि ! शर्व ! त्र्यम्बक ! शंकर ! आपको प्रणाम है । महेश्वर ! महेशान ! सुवर्णाक्ष ! वृषाकपे ! दक्ष - यज्ञ - विध्वंसक ! कालरुप शिव ! आपको प्रणाम है । परमेश्वर ! आप इस जगतके आदि मध्य एवं अन्त हैं । आप षडैश्वर्यपूर्ण भगवान् सर्वत्रगामी या सर्वत्रव्याप्त हैं । आपको प्रणाम है ॥७८ - ८०॥
पुलस्त्यजी बोले - उस दारुवनमें इस प्रकार स्तुति किये जानेपर वक्ताओंमें श्रेष्ठ हरने अपने स्वरुपमें प्रकट होकर ( अर्थात् मूर्तिमान् होकर ) उन दोनोंसे इस प्रकार कहा - ॥८१॥ 
भगवान् शंकर बोले - आप दोनों सभी देवताओंके स्वामी हैं । आप लोग चलते - चलते थके हुए तथा कामाग्रिसे दग्ध और मुझ सब प्रकारसे अस्वस्थ व्यक्तिकी क्यों स्तुति कर रहे हैं ? ॥८२॥ 
इसपर ब्रह्मा - विष्णु दोनों बोले - शिवजी ! पृथ्वीपर आपका जो यह लिङ्ग गिराया गया है, उसे पुनः आप ग्रहण करें । इसीलिये हम आपकी स्तुति कर रहे हैं ॥८३॥ 
शिवजीने कहा - श्रेष्ठ देवो ! यदि सभी देवता मेरे लिङ्गकी पूजा करना स्वीकार करें, तभी मैं इसे पुनः ग्रहण करुँगा, अन्यथा किसी प्रकार भी इसे नहीं धारण करुँगा । तब भगवान् विष्णु बोले - ऐसा ही होगा । फिर ब्रह्माजीने स्वयं उस स्वर्णके सदृश पिंगल लिङ्गको ग्रहण किया । तब भगवानने चारों वर्णोंको हर - लिङ्गकी अर्चनाका अधिकारी वनाया । इनके मुख्य शास्त्र नाना प्रकारके वचनोंसे प्रख्यात हैं । मुने ! उन शिवभक्तोंका प्रथम सम्प्रदाय शैव, द्वितीय पाशुपत, तृतीय कालमुख और चतुर्थ सम्प्रदाय कापालिक या भैरवनामसे विख्यात है ॥८४ - ८७॥ 
महर्षि वसिष्ठके प्रियपुत्र शक्ति ऋषि स्वयं शैव थे । उनके एक शिष्य गोपायन नामसे प्रसिद्ध हुए । उन्होंने शैव सम्प्रदायको दूरतक फैलाया । तपोधन भरद्वाज महापाशुपत थे और सोमकेश्वर राजा ऋषभ उनके शिष्य हुए, जिनसे पाशुपत - सम्प्रदाय विशेषरुपसे परिवर्तित हुआ । मुने ! ऐश्वर्य एवं तपस्याके धनी महर्षि आपस्तम्ब, कालमुख सम्प्रदायके आचार्य थे । क्राथेश्वर नामके उनके वैश्य शिष्यने इस सम्प्रदायका विशेष रुपसे प्रचार किया । महाव्रती साक्षात् कुबेर प्रथम कापालिक या भैरव - सम्प्रदायके आचार्य हुए थे । शूद्रजातिके महातपस्वी कर्णोदर नामक उनके एक प्रसिद्ध शिष्य हुए । इन्होंने इस मतका विशेष प्रचार किया ॥८८ - ९१॥ 
इस प्रकार ब्रह्माजी शिवकी उपासनाके लिये चार सम्प्रदायोंका विधान कर ब्रह्मलोकको चले गये । ब्रह्माजीके जानेपर महादेवने उस लिङ्गको उपसंहत कर लिया - समेट लिया एवं वे चित्रवनमें सूक्ष्म लिङ्ग प्रतिष्ठापित कर विचरण करने लगे । यहाँ भी शिवजीको घूमते देख पुष्पधनुष कामदेव पुनः उनके सामने सहसा बहुत निकट आकर उन्हें संतापन बाणसे बेधनेको उद्यत हुआ । तब उसे इस प्रकार सामने खड़ा देखकर शिवजीने उस कामदेवको सिरसे चरणतक क्रोधभरी दृष्टिसे देखा ॥९२ - ९५॥ 
ब्रह्मन् ! वह कामदेव अत्यन्त तेजस्वी था । फिर भी भगवानद्वारा इस प्रकार दृष्ट होनेपर वह पैरसे लेकर कटिपर्यन्त दग्ध हो गया । अपने चरणोंको जलते हुए देखकर पुष्पायुध कामने अपने श्रेष्ठ धनुषको दूर फेंक दिया । इससे उसके पाँच टुकड़े हो गये । उस धनुषका जो चमचमाता हुआ सुवर्णयुक्त मुठबंध था, वह सुगन्धपूर्ण सुन्दर चम्पक वृक्ष हो गया । मुने ! उस धनुषका जो हीरा जड़ा हुआ सुन्दर कृतिवाला नाहस्थान था, वह केसरवनमें बकुल ( मौलेसरी ) नामका वृक्ष बना । इन्द्रनीलसे सुशोभित उसकी सुन्दर कोटि भृंगोसे विभूषित सुन्दर पाटला ( गुलाब ) - के रुपमें परिणत हो गयी ॥९६ - १००॥ 
धनुषनाहके ऊपर मुष्टिमें स्थित चन्द्रकान्तमणिकी प्रभासे युक्त स्थान चन्द्रकिरणके समान उज्ज्वल पाँच गुल्मवाली जाती ( चमेली - पुष्प ) बन गया । मुने मुष्टिके ऊपर दोनों कोटियोंके नीचेवाले विद्रुममणिविभूषित स्थानसे अनेक पुटोंवाली मल्लिका ( मालती ) हो गयी । नारदजी ! देवके द्वारा जातीके साथ अन्य सुन्दर तथा सुगन्धित पुष्पोंकी सृष्टि हुई । ऊर्ध्व शरीरके दग्ध होनेके समय कामदेवने अपने बाणोंको भी पृथ्वीपर फेंका था, इससे हजारों प्रकारके फलयुक्त वृक्ष उत्पन्न हो गये । शिवजीकी कृपासे श्रेष्ठ देवताओंद्वारा भी अनेक प्रकारके सुगन्धित एवं स्वादिष्ट आम्र आदि फल उत्पन्न हुए, जो खानेमें स्वादुयुक्त हैं । इस प्रकार कामदेवको भस्म कर एवं अपने शरीरको संयतकर समर्थ, अविनाशी शिव पुण्यकी कामनासे हिमालयपर तपस्या करने चले गये । इस प्रकार प्राचीन समयमें देवश्रेष्ठ शिवजीद्वारा धनुषबाणसहित काम दग्ध किया गया था । तबसे देवताओंमें प्रथम पूजित वह महाधनुर्धर देवोंद्वारा ' अनङ्ग ' कहा गया ॥१०१ - १०७॥
॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छठा अध्याय समाप्त हुआ ॥६॥
 

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