पुलस्त्यजी बोले - ( नारदजी ! ) शुम्भने चण्ड और मुण्डको मृत तथा सैनिकोंको भगा हुआ देखकर अत्यन्त बलवान् महान् असुर रक्तबीजको ( लड़नेके लिये ) आज्ञा दी । उसके बाद महेश्वरी चण्डिकाने दैत्योंकी तीस करोड़ अक्षौहिणीवाली उस सेनाको आती हुई देखकर उन दोनों देवियोंके साथ सिंहके समान गर्जन किया । उसके बाद सिंहके समान निनाद ( हुंकार ) करती हुई देवीके मुखसे हंसके विमानपर बैठी हुई तथा अक्षमाला और कमण्डलु लिये ब्रह्माणी उत्पन्न हो गयी । क्षणभरमें ही वृषपर आरुढ़ त्रिशूलधारिणी महासर्पके कंगन पहने और कुण्डल धारण किये हुए तीन नेत्रोंवाली माहेश्वरी भी उत्पन्न हो गयी ॥१ - ४॥
देवर्षि नारदजी ! मोरपंखसे सुशोभित, शक्तिरुपिणी एवं श्रेष्ठ मोरके वाहनपर आरुढ ' कौमारी ' देवीके कण्ठसे उत्पन्न हुई । गरुडपर सवार, शङ्ख, चक्र, गदा, तलवार एवं धनुष - बाण धारण करनेवाली सौन्दर्यशालिनी ' वैष्णवी ' शक्ति देवीकी दोनों भुजाओंसे उत्पन्न हुई । भारी भयङ्कर मूसल लिये, दाढ़ोंसे पृथ्वीको खोदनेवाली, शेषनागके ऊपर स्थित ' वाराही ' शक्ति देवीकी पीठसे उत्पन्न हुई । हाथमें वज्र और अंकुशको लिये, भाँति - भाँतिके आभूषणोंसे विभूषित, गजराजकी पीठपर बैठी हुई ' माहेन्द्री ' शक्ति उनके स्तन - मण्डलस्से उत्पन्न हुई ॥५ - ८॥
गर्दनके बालोंको फटकारनेसे ग्रह, नक्षत्र और ताराओंको विक्षुब्ध करती हुई तीक्ष्ण नखोंवाली अत्यन्त भयङ्कर नारसिंही शक्ति देवीके हदयसे उत्पन्न हुई । फिर चण्डिकाने उन शक्तियोंद्वारा संहार की जाती हुई असुरसेना एवं शत्रुओंको देखकर भयरहित होकर घोर गर्जना की । तीनों लोकोंको ध्वनिसे गुँजा देनेवाले उस गर्जनको सुनकर शूलपाणि त्रिलोचन महादेवजी देवीके निकट आये और उनको प्रणामकर ( उन्होंने ) यह कहा अम्बिके ! दूर्गे ! मैं आ गया हूँ । मैं आपका कौन - सा कार्य करुँ ? मुझे आज्ञा दीजिये । उस उक्तिके साथ ही देवीकी देहसे शिवा उत्पन्न हो गयीं । उन्होंने देवेश्वरसे कहा - शङ्कर ! आप दूत बनकर जाइये और शुम्भनिशुम्भसे कहिये कि अये दुराचारियो ! यदि तुम सब जानेकी इच्छा करते हो तो सातवें ( लोक ) रसातलमें चले जाओ । इन्द्रको स्वर्गकी प्राप्ति हो एवं देवगण पीड़ा ( बाधासे ) रहित हो जायँ ॥९ - १४॥
ये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि वर्ण विधि - विधानसे यज्ञ ( अनुष्ठान ) करें । यदि तुम ( सब ) अपने पूरे बलके घमण्डसे युद्ध करना चाहते हो, तो आओ । यह मैं बिना किसी घबराहटके - आसानीसे तुम लोगोंका विनाश करुँ - किये देती हूँ । नारदजी ! उन्होंने शिवको दूत बनाया, अतः महादेवीका नाम शिवदूती हुआ । वे सारे असुर भी शङ्करके गर्वीले वचनको सुनकर हुंकार करते हुए, जहाँ कात्यायनी स्थित थीं वहाँ दौड़ पड़े । उसके बाद दोनों असुर सुरेश्वरीके ऊपर बाण, शक्ति, अङ्कुश, श्रेष्ठ कुठार, शूल, भुशुण्डी, पट्टिश, तीक्ष्ण प्रास और बहुत बड़े परिघ आदि अस्त्रोंकी बौंछार करने लगे ॥१५ - १८॥
युद्धमें प्रचण्ड पराक्रमशालिनी उस महेश्वरीने भी श्रेष्ठ धनुषसे निकले बाणोंसे असुरोंके शस्त्रोंको उनकी भुजाओंसहित काट दिया एवं सैकड़ों बाणोंसे अन्य असुरोंको मौतके घाट उतार दिया । मारीने त्रिशूलसे बहुतोंको मारा, कौशिकीने खटवाङ्गके प्रहारसे बहुतोंका वध किया तथा ब्राह्मीने जलराशि फेंककर दूसरे बहुत - से असुरोंको प्रभाहीन कर दिया । माहेश्वरीने शूलसे बहुत - से असुरोंकी छाती छेदकर जर्जर कर दिया । वैष्णवीने बहुतोंको जला कर भस्म कर डाला । कुमारीने शक्तिसे, ऐन्द्रीने वज्रसे, वाराहीने मुखसे एवं चक्रसे दैत्योंको चीर डाला, शिवदूतीने अट्टहाससे, रुद्रने त्रिशूलसे एवं विनायकने फरसेकी मारसे अन्य असुरोंको विनष्ट कर दिया ॥१९ - २२॥
इस प्रकार देवीके बहुत - से रुपोंद्वारा संहार किये जाते हुए दानव धराशायी होने लगे । भूतगण पृथ्वीपर ( गिरे हुए ) उन दानवोंको खा - खाकर उन्हें नष्ट करने लगे । देवताओं और मातृशक्तियोंद्वारा संहार किये जा रहे एवं भयसे इधर - उधर देखते हुए रक्तबीजकी शरणमें गये । क्रोधसे ओठको फड़फड़ाते हुए रक्तबीज तेज धारवाले अस्त्रोंको लेकर एकाएक आ धमका एवं भूतगणोंको इधर - उधर खदेड़ते हुए मातृशक्तियोंनें उस असुरपर अपने तेज शस्त्रोंकी बौंछार कीं । ( उनके शरीरसे ) रक्तकी जो बूँदें पृथ्वीपर गिरती थीं उनसे उतने ही बलवान् असुर उत्पन्न हो जाते थे ॥२३ - २६॥
उसके बाद उस अद्भुत दृश्यको देखकर कौशिकीने केशिनीसे कहा - चण्डिके ! वडवानल ( समुद्रकी आग ) - की भाँति अपने मुखको फैलाकर शत्रुका खून पी डालो । ऐसा कहनेपर वरदायिनी अम्बिकाने अपना विशाल भयङ्कर मुँह फैलाया । ऊपरी ओठसे आकाश एवं निचले ओठसे पृथ्वीका स्पर्श करती हुई चामुण्डा सामने खड़ी हो गयी । उसके बाद अम्बिकाने शत्रुके बालोंको पकड़ करके उसे घसीटकर व्याकुल कर दिया और उसे अपने मुखमें डाल लिया और उसकी छातीमें शूलका प्रहार कर दिया । तब रक्तसे उत्पन्न होनेवाले दूसरे राक्षस रक्त सूख गया । रक्तके नष्ट हो जानेसे वह बलहीन हो गया । निर्बल हो जानेपर उसको देवीने सुवर्णसे विभूषित चक्रसे सौ टुकड़ोंमें काट डाला ॥२७ - ३०॥
उस दानव - सेनापतिके मारे जानेपर वे सभी दानव हा तात ! हा भाई ! कहाँ जा रहे हो, क्षणभर रुको, यहाँ आओ - ऐसा कहते हुए करुण क्रन्दन करने लगे । मृडानीने खुले और बिखरे बालोंवाले तथा टुकडे - टुकड़े हुए कवचवाले अनेक नंगे दैत्योंको पृथ्वीपर गिरा दिया । वे दैत्य पर्वतश्रेष्ठको छोड़कर भाग गये । टूटे कवच, हथियारों एवं आभूषणोंसे युक्त अपनी सेनाको देखकर टूटे ( ही ) चक्र एवं धुरीवाले रथपर चढ़कर दानवश्रेष्ठ निशुम्भ क्रोधपूर्वक मृडानी ( देवी ) - के पास गया । चमकती हुई तलवार और ढाल लेकर सिर हिलाते हुए वह देवीका रुप देखकर मोहज्वरसे पीड़ित हो चित्र - लिखे हुएकी भाँति ठिठक गया ॥३१ - ३४॥
देवीने उस स्तब्ध हुए देवताओंके शत्रुको सामने देखकर हँसते हुए यह वचन कहा - क्या इसी शक्तिके बलपर तुमने देवताओंको पराजित किया हैं ? और, क्या इसी बलपर मुझको ( पत्नीरुपमें ) पानेके लिये याचना करते रहे ? कौशिकीकी बात सुननेके बाद देरतक विचार करके बोलनेवालोंमें श्रेष्ठ वह दानव यह वचन बोला - भीरु ! यह तुम्हारा अत्यन्त कोमल शरीर मेरे शस्त्रोंकी मारसे जलमें कच्चे बर्तनकी तरह सैकड़ों टुकड़ोंमें अलग - अलग हो जायगा । सुन्दरि ! यह सोचकर मैं तुम्हारे ऊपर आघात करनेका विचार नहीं कर रहा हूँ । अतः विशालनयने ! तुम मुझे अङ्गीकार कर लो ॥३५ - ३८॥
मेरी तलवारकी मारको इन्द्र भी नहीं सह सकते । तुम युद्धका विचार छोड़ दो एवं अब मेरी पत्नी बन जाओ । मुने ! योगीश्वरीने निशुम्भकी यह बात सुनकर हँसते हुए उससे भावभरे वचनमें कहा - वीर ! लड़ाईके मैदानमें बिना हारे हुए मैं किसीकी पत्नी नहीं बन सकती । यदि तुम मुझे अपनी स्त्री बनाना चाहते हो तो संग्राममें मुझे जीत लो । नारदजी ! इस बातके कहनेपर उस दानवने तलवार उठाकर कौशिकीकी ओर उसे वेगसे चलाया ॥३९ - ४२॥
देवीने अपनी ओर आती हुई उस तलवारको ढालसहित मोरके पंखसे सुशोभित छः बाणोंसे काट दिया । वह ( दृश्य ) बड़ा ही विचित्र हुआ । ढालकिए साथ तलवारके कट जानेपर वह महा असुर गदा लेकरहवाके समान तेजीसे कौशिकीकी ओर दौड़ा । अम्बिकाने लड़ाईमें चढ़ाई करनेवाले उस असुरकी, गदाके साथ सुपुष्ट, सुडौल, गठीली भुजाओंको क्षुरप्र ( खुरपे या बाण ) - से उसी समय काट गिराया । उस अत्यन्तभयङ्कर देवशत्रुके गिरनेपर चण्डी आदि मातृकाएँ प्रसन्न होकर किलकिलाध्वनि ( हर्षसूचक ध्वनि ) करने लगीं ॥४३ - ४६॥
उसके बाद आकाशमें स्थित इन्द्र आदि देवगण शत्रुको मारकर गिराये जानेपर हर्षित होते हुए बोले - विजये ! तुम्हारी जय हो । फिर चारों ओर भूतगण भेरी बजाने लगे और देवगण कात्यायनीके ऊपर फूलोंकी वर्षा करने लगे । महामुनि नारदजी ! निशुम्भको गिरा हुआ देखकर शुम्भ क्रोधसे हाथमें पाश लिये हुए हाथीपर चढ़कर आया । हाथीपर चढ़कर दानवेश्वरको आते देख ( देवीने ) चमकते हुए अर्धचन्द्राकार चार बाणोंको उठा लिया ॥४७ - ५०॥
हँसते हुए उस अम्बिकाने खेल - खेलमें दो तीखे बाणोंसे उस हाथीसे दो पैरोंको काट दिया एवं दो बाणोंसे उसके कुम्भस्थलपर आघात किया । दो पैरोंके कट जानेपर वह हाथी इन्द्रके वज्रसे घायल पर्वतराजकी ऊँची चोटीकी तरह अपने - आप ही गिर पड़ा । शिवाने घायल हुए हाथीपरसे उछलनेवाले शुम्भका कुण्डलसे सुशोभित मस्तक बाणसे ( झट ) काट दिया । सिरके कट जानेपर दैत्येन्द्र हाथीके साथ ऐसे गिरा जैसे महासेन कार्तिकेयद्वारा घायल हुआ क्रौञ्चासुर महिषके साथ गिरा था । मृडानी ( देवी ) - द्वारा दोनों देवशत्रुओंका संहार किया जाना सुनकर इन्द्रसहित सूर्य, मरुत, अश्विनीकुमार एवं वसुगण आदि देवता उस श्रेष्ठ पर्वतपर आये एवं विनयपूर्वक देवीकी इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥५१ - ५५॥
देवताओंने स्तुति की - भगवति ! पापनाशिनि ! आपको नमस्कार है । सुर - शत्रुओंके दर्पका दलन करनेवाली ! आपको नमस्कार है । विष्णु और शङ्करको राज्य देनेवाली ! आपको नमस्कार है । यज्ञके भागके भोक्ता देवोंका कार्य करनेवाली ! आपको नमस्कार है । देवताओंके शत्रुओंका विनाश करनेवाली ! आपको नमस्कार है । इन्द्रके द्वारा पूजित चरणोंवाली ! आपको नमस्कार है । महिषासुरका विनाश करनेवाली ! आपको नमस्कार है । विष्णु, शङ्कर एवं सूर्यसे स्तुति की जानेवाली ! आपको नमस्कार है । अष्टादश भुजाओंवाली ! आपको नमस्कार है । शुम्भ और निशुम्भका वध करनेवाली ! आपको नमस्कार है । समस्त संसारका दुःख हरण करनेवाली ! त्रिशूल धारण करनेवाली ! आपको नमस्कार है । चक्र धारण करनेवाली ! आपको नमस्कार है । वाराहि ! धराको सदा धारण करनेवाली ! आपको नमस्कार है । नारसिंही ! आपके चरणोंपर हम प्रणत हैं, आपको नमस्कार है । वज्र धारण करनेवाली ! गजध्वजे ! आपको नमस्कार है । कौमारि ! मयूरवाहिनि ! आपको नमस्कार है ॥५६ - ५९॥
ब्रह्माके हंसपर बैठनेवाली ! आपको नमस्कार है । विकट माला धारण करनेवाली ! सुन्दर केशोंवाली ! आपको नमस्कार है । गर्दभकी पीठपर बैठनेवाली ! आपको नमस्कार है । समस्त क्लेशोंका नाश करनेवाली ! जगन्मये ! आपको नमस्कार है । विश्वेश्वरि ! आपको नमस्कार है । आप विश्वकी रक्षा करें तथा ब्राह्मणों और देवताओंके शत्रुओंका संहार करें । त्रिनेत्रे ! सर्वमयि ! आपको नमस्कार है । वरदायिनि ! आपको बारम्बार नमस्कार है । आप प्रसन्न हों । ब्रह्माणी और मृडानी आप ही हैं । आप ही सुन्दर मोरपर चलनेवाली और हाथमें शक्ति धारण करनेवली कुमारी हैं । सुन्दर मुखवाली वाराही आप ही हैं तथा गरुड़पर चलनेवाली, शाङ्गधनुष धारण करनेवाली वैष्णवी आप ही हैं । घुरघुर शब्द करनेवाली, देखनेमें भयंकर नारसिंही आप ही है । आप ही व्रज धारण करनेवाली ऐन्द्री एवं महामारी चर्ममुण्डा हैं । शवपर चलनेवाली तथा योग सिद्ध कर चुकनेवाली योगिनी भी आप ही हैं । तीन नेत्रोंवाली भगवति ! आपको नमस्कार है । आपके चरणोंका आश्रय कर नम्रतासे प्रतिदिन अपना सिर झुकानेवालों तथा बलि एवं फूलोंको हाथमें लिये सर्वदा आपकी स्तुति करनेवालोंका कोई पराजय, अनादर और अकल्याण नहीं होता ॥६० - ६३॥
श्रेष्ठ देवताओंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर देवताओंके शत्रुओंका संहार देवीने देवताओं, सि द्धिं और श्रेश्ष्ठ माहर्षियोंसे हँसकर कहा - मैंने आप लोगोंके कृपासे युद्धभूतिमे ( शत्रुका ) मर्दन कर देवशत्रुओं ( दानवों ) - पर अत्यन्त अनूठी विजय प्राप्त की है । आप लोगोंसे कही गयी इस स्तुतिको पढ़नेवाले भक्तिपरायण श्रेष्ठ मनुष्योंके दुःस्वप्नोंका निस्सन्देह नाश होगा । ( अब ) आप लोग दूसरे इच्छित वरको माँगें ॥६४ - ६५॥
देवताओंने कहा - यदि आप देवताओंको वर देना चाहती हैं तो ब्राह्मणों, बच्चों और गौओंके कल्याणके लिये यत्न कीजिये । अग्निके सदृश शरीरवाली ! आप ( हम सबके ) अन्य देवशत्रुओंको भविष्यमें भी जलाकर भस्म करें ॥६६॥
देवीने कहा - देवो ! मैं पुनः शङ्करके मुखके पसीनेके जलसे उत्पन्न हो करके रक्तसे रञ्जित मुखवाली होकर संसारमें चर्चिका नामसे प्रसिद्ध होऊँगी और अन्धकासुरका संहार करुँगी । फिर मैं नन्दके गृहमें यशोदासे उत्पन्न होकर प्रबल देवशत्रुका वध करुँगी । वहाँ मैं अवतार लेकर दाँतोंके आघातसे विप्रचित्ति, लवणासुर एवं अन्य शुम्भनिशुम्भ दानवोंका विनाश करुँगी । देवताओ ! कलियुगमें भोजन न करती हुई इन्द्रके घरमें मारीको देखकर मैं पुनः अमितसत्यधामा देवीके साथ इन्द्रके घर शाकम्भरीके रुपमें प्रकट होकर भरण - पोषण करुँगी । देवताओ ! पुनः मैं शत्रुओंके संहार तथा ऋषियोंकी रक्षाके लिये विन्ध्याचलमें उपस्थित होऊँगी । देवो ! वहाँ दुराचारी दैत्योंका नाश करनेके बाद पुनः स्वर्ग चली जाऊँगी । देवताओ ! अरुणाक्ष नामक महासुरके उत्पन्न होनेपर महाभ्रमरके रुपसे पुनः उत्पन्न होऊँगी एवं उसका संहार कर फिर स्वर्ग चली जाऊँगी ॥६७ - ७१॥
पुलस्त्यजी बोले - ऐसा कहनेके बाद देवी श्रेष्ठ ब्राह्मणोंको प्रणाम करके अन्य प्राणियोंको बिदाकर एवं देवोंको वर देकर सिद्धोंके साथ स्वर्गमें चली गयीं । देवीकी यह विजय - कथा परम पवित्र और प्राचीन है, यह पुरुषोंको मङ्गल देनेवाली है, संयतचित्त मनुष्योंको इसे सदा सुननी चाहिये । भगवानने इसे ' रक्षोघ्न ' कहा है ॥७२ - ७३॥