आधी रात का समय था जब लीला और मायारानी उस जंगल में पहुंचीं जिसमें माधवी और भीमसेन टिके हुए थे। जब ये दोनों उसके पास पहुंचीं और लीला को वहां टिके हुए बहुत-से आदमियों की आहट मिली तो वह मायारानी को एक ठिकाने खड़ा करके पता लगाने के लिए उनकी तरफ गई।
हम ऊपर बयान कर चुके हैं कि सेनापति कुबेरसिंह के साथ थोड़ी-सी फौज भी थी - अस्तु लीला को थोड़ी ही कोशिश से मालूम हो गया कि यहां सैकड़ों आदमियों का डेरा पड़ा हुआ है और वे लोग इस ढंग से घने जंगल में आड़ देख टिके हुए हैं जैसे डाकुओं का गरोह या छिपकर धावा मारने वाले टिकते हैं और हर वक्त होशियार रहते हैं। लीला खूब जानती थी कि राजा वीरेन्द्रसिंह और उनके साथी या सम्बन्धी अगर किसी काम के लिए कहीं जाते हैं या लड़ाई करते हैं तो छिपकर या आड़ पकड़कर डेरा नहीं डालते, हां अगर अकेले या ऐयार लोग हों तो शायद ऐसा करें, मगर जब उनके साथ सौ-पचास आदमी या कुछ फौज होगी तब कदापि ऐसा न करेंगे इसलिये उसे गुमान हुआ कि ये लोग जरूर कोई गैर हैं बल्कि ताज्जुब नहीं कि हमारा साथ देने वाले हों। अस्तु बहुत-सी बातों को सोच-विचार और अपनी ऐयारी पर भरोसा करके लीला माधवी की फौज में घुस गई और वहां बहुत-से सिपाहियों को होशियार तथा पहरा देते हुए देखा।
पहिले लिखा जा चुका है कि लीला भेष बदले हुए थी और यह भी दर्शा गया है कि माधवी और कुबेरसिंह अपनी असली सूरत में सफर करते थे।
लीला को कई सिपाहियों ने देखा और एक ने टोका कि कौन है?
लीला - एक मुसाफिर परदेसी औरत।
सिपाही - यहां क्यों चली आ रही है?
लीला - अपनी भलाई की आशा से।
सिपाही - क्या चाहती है?
लीला - आपके सरदार से मिलना।
सिपाही - अपना परिचय दे तो सरदार के पास भेजवा दूं।
लीला - परिचय देने में कोई हर्ज तो नहीं है मगर डरती हूं कि आप लोग भी कहीं उन्हीं में से न हों जिन्होंने मुझे लूट लिया है, यद्यपि अब मैं बिल्कुल खाली हो रही हूं मगर...।
इतने में और भी कई सिपाही वहां जुट आये और सभों ने लीला को घेरकर सवाल करना शुरू किया और लीला ने भी गौर करके जान लिया कि ये लोग राजा वीरेन्द्रसिंह के दल वाले नहीं हैं क्योंकि उनके फौजी सिपाही अक्सर जर्द पोशाक काम में लाते हैं, इसी तरह से जमानिया वाले भी नहीं मालूम हुए क्योंकि उनकी बातचीत और चाल-ढाल को लीला खूब पहिचानती थी, अस्तु कुछ और बातचीत होने पर लीला को विश्वास हो गया कि ये लोग उनमें से नहीं हैं जिनका मुझे डर है।
उन सिपाहियों को भी एक अकेली औरत से डरने की कोई जरूरत न थी इसलिये उन्होंने अपने मालिक का नाम जाहिर कर दिया और लीला को लिये हुए उस जगह जा पहुंचे जहां माधवी और भीमसेन का बिस्तर लगा हुआ था और वे दोनों इस समय भी बैठे बातचीत कर रहे थे। लालटेन जलाया गया और लीला की सूरत अच्छी तरह देखी गयी, लीला ने भी उसी रोशनी में माधवी को पहिचान लिया और खुश होकर बोली, ''अहा, आप तो गया की रानी माधवीदेवी हैं!''
माधवी - और तू कौन है?
लीला - मैं प्रसिद्ध मायारानी की ऐयारा हूं और उन्हीं के साथ यहां तक आई भी हूं। यह दुनिया का कायदा है कि एक से दूसरे को मदद पहुंचती है अस्तु जिस तरह आपको मायारानी से मदद पहुंच सकती है उसी तरह आप मायारानी की भी मदद कर सकती हैं। वाह-वाह, यह समागम तो बहुत ही अच्छा हुआ। अगर आजकल मायारानी मुसीबत के दिन काट रही हैं तो क्या हुआ मगर फिर भी वह तिलिस्म की रानी रह चुकी हैं और जो कुछ वह कर सकती हैं किसी दूसरे से नहीं हो सकता। आप लोगों का मिलकर एक हो जाना बहुत ही मुनासिब होगा और तब आप लोग जो चाहेंगी कर सकेंगी।
माधवी - (खुश होकर) मायारानी कहां हैं उन्हें तो राजा वीरेन्द्रसिंह कैद करके चुनार ले गये थे!
लीला - जी हां, मगर मैं अभी कह चुकी हूं कि मायारानी आखिर तिलिस्म की रानी हैं इसलिये जो कुछ वह कर सकती हैं किसी दूसरे के किये नहीं हो सकता। राजा वीरेन्द्रसिंह ने उन्हें कैद किया तो क्या हुआ, उनका छूटना कोई मुश्किल न था!!
माधवी - बेशक-बेशक, अच्छा बताओ वह कहां हैं?
लीला - यहां से थोड़ी दूर पर खड़ी हैं, किसी सरदार को भेजिये उनका इस्तकबाल करके यहां ले आवे, दो-तीन सौ कदम से ज्यादे न चलना पड़ेगा।
माधवी - मैं खुद उन्हें लेने के लिए चलूंगी।
लीला - इससे बढ़कर और क्या हो सकता है अगर आप उनकी इज्जत करेंगी तो वह भी आपके लिये जान तक देना जरूरी समझेंगी।
लीला ने अपनी लम्बी-चौड़ी बातों में माधवी को खूब उलझाया, यहां तक कि माधवी अपने साथ भीमसेन और कुबेरसिंह तथा कई सिपाहियों को लेकर मायारानी के पास गई और उसे बड़ी खातिर और इज्जत के साथ अपने डेरे पर ले गई। जल मंगवाकर हाथ-मुंह धुलवाया और फिर बातचीज करने लगी।
माधवी - (मायारानी से) आपको वीरेन्द्रसिंह की कैद से छूट जाने पर मैं मुबारकबाद देती हूं यद्यपि आपके लिए यह कोई बड़ी बात न थी।
माया - बेशक यह कोई बड़ी बात न थी, इस काम को तो अकेली मेरी सखी या ऐयारा लीला ही ने कर दिखाया। इस समय आपसे मिलकर मैं बहुत खुश हुई और इसमें अब शक करने की कोई जगह न रही कि आप पुनः गया की रानी और मैं जमानिया की मालिक बन जाऊंगी। दुनिया में एक का काम दूसरे से हुआ ही करता है और जब हम-आप एक दिल हो जायेंगे तो वह कौन-सा काम है जिसे नहीं कर सकते! मुझे आपके कैद होने की भी खबर लगी थी और मुझे इस बात का बहुत रंज था कि आपको मेरी छोटी बहिन कमलिनी ने कैदखाने की सूरत दिखाई थी।
माधवी - इधर तो यह सुनने में आया है कि आपसे और कमलिनी से कोई नाता नहीं है और लक्ष्मीदेवी भी प्रकट हो गई है तथा उसे राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार ले गये हैं।
माया - (मुस्कराकर) बेशक ऐसा ही है, मगर जिस जमाने का मैं जिक्र कर रही हूं उस जमाने में वह मेरी ही बहिन कहलाती थी। और लक्ष्मीदेवी को राजा वीरेन्द्रसिंह चुनार नहीं ले गये हैं वह तो किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिनी और कमला के सहित किसी दूसरी ही जगह छिपाई गई है। मगर इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि कल शाम को गोपालसिंह उन सभों को जमानिया की तरफ ले जायेंगे और हम लोग उन्हें गोपालसिंह के सहित रास्ते ही में गिरफ्तार कर लेंगे।
माधवी - (ताज्जुब से) हां! क्या कल मैं दुष्टा किशोरी की नापाक सूरत देख सकूंगी! उस पर मुझे बड़ा ही रंज है, और कमलिनी ने तो मुझे कैद ही किया था।
माया - बेशक कल किशोरी और कमलिनी इत्यादि तुम्हारे कब्जे में होंगी और गोपालसिंह भी तुम्हारे काबू में होगा जो वीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों की बदौलत तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन हो चुका है।
माधवी - निःसन्देह वह मेरा और तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन है। तो क्या उसकी गिरफ्तारी का इन्तजाम हो चुका है?
माया - हां, चौदह आना इन्तजाम हो चुका और जो दो आना बाकी है सो वह भी हो जायगा।
माधवी - क्या बन्दोबस्त हुआ है और किस समय तथा किस तरह वे लोग गिरफ्तार किये जायेंगे?
माया - (इधर-उधर देखकर) बहुत-सी बातें ऐसी हैं जो मैं केवल तुम्हीं से कहूंगी क्योंकि कोई दूसरा उसके सुनने का अधिकारी नहीं है।
माधवी - बहुत अच्छा, यह कोई बड़ी बात नहीं है।
इतना कहकर माधवी ने भीमसेन और कुबेरसिंह की तरफ देखा क्योंकि माधवी, मायारानी और लीला के सिवाय केवल ये ही दो आदमी वहां मौजूद थे। भीमसेन ने कहा, ''हम दोनों यहां से हट जाते हैं, तुम लोग बेधड़क बातें करो मगर (मायारानी से) मेरे एक सवाल का जवाब पहिले मिलना चाहिए।''
माया - वह क्या?
भीम - आप अभी कह चुकी हैं कि कल किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी वगैरह गिरफ्तार हो जायेंगी मगर मैंने सुना था कि राजा वीरेन्द्रसिंह के लश्कर में पहुंचकर मनोरमा ने किशोरी, कामिनी और कमला को जान से मार डाला, अब इस समय कोई और ही बात सुनने में आ रही है।
माधवी - हां यह सवाल मैं भी करने वाली थी लेकिन बातों का सिलसिला दूसरी तरफ चला गया और मैं पूछना भूल गई।
माया - हां यह बात अच्छी तरह सुनने में आई थी और मुझे विश्वास भी हो गया था कि वास्तव में ऐसा ही हुआ है मगर आज यह बात खुद गोपालसिंह की लिखावट से खुल गई कि वास्तव में वे तीनों मारी नहीं गयीं, परन्तु मुझे यह मालूम नहीं है कि इस विषय में किस तरह की चालाकी खेली गयी या मनोरमा ने जिन्हें मारा वह कौन थीं।
भीम - तो निश्चय है कि वे तीनों मारी नहीं गईं?
माया - बेशक वे तीनों जीती हैं। (गोपालसिंह वाली चीठी दिखाकर) देखो एक ही सबूत में मैं तुम्हारी दिलजमई कर देती हूं। इसे पढ़ो और माधवी रानी को सुनाओ।
(माधवी से) देखो बहिन, तुम इस बात का खयाल न करना कि मैं तुम्हें आप कहकर सम्बोधन नहीं करती, मेरा-तुम्हारा अब दोस्ती और मुहब्बत का नाता हो चुका इसलिये अब इन बातों का खयाल नहीं हो सकता।
माधवी - मैं भी यही पसन्द करती हूं और इस बारे में अपने लिये भी तुमसे पहिले ही माफी मांग लेती हूं।
भीमसेन ने पत्र पढ़ा और माधवी को सुनाया।
भीम - इस पत्र से तो बड़ा काम निकल सकता है! यह कब का लिखा है और तुम्हारे हाथ क्योंकर लगा तथा जिस अंगूठी का इसमें जिक्र किया गया है वह कहां है?
माया - (अंगूठी दिखाकर) अंगूठी भी मुझे मिल गई है और यह चीठी आज ही की लिखी और आज ही मेरे हाथ लगी है। अभी इसकी कार्रवाई बिल्कुल बाकी है।
भीम - अफसोस इतना ही है कि मेरे ऐयारों में से कोई भी रामदीन को नहीं जानता...।
माया - क्या हर्ज है, यह मेरी ऐयारा लीला बखूबी उसकी तरह बनकर काम निकाल सकती है, तुम्हारे ऐयार इसकी मदद पर मुस्तैद रह सकते हैं, और यह जब रामदीन की सूरत बनेगी तो इसे अच्छी तरह देख भी सकते हैं।
भीम - (चीठी मायारानी के हाथ में देकर) अच्छा अब तुम दोनों को जो कुछ गुप्त बातें करनी हैं कर लो पीछे मैं इस विषय में कुछ कहूं-सुनूंगा।
इतना कहकर भीमसेन उठ खड़ा हुआ और कुबेरसिंह को साथ लिये हुए कुछ दूर चला गया और मौका समझकर लीला भी कुछ पीछे हट गई।
माया - जो कुछ तुम पीछे कहो-सुनोगी उसे मैं पहिले ही निपटा देना चाहती हूं। सच पूछो तो मेरी और तुम्हारी अवस्था बराबर है, तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूं, क्योंकि मैं वास्तव में गोपालसिंह की स्त्री नहीं हूं और यह बात सभों को मालूम हो गई बल्कि तुम भी सुन ही चुकी होगी।
माधवी - हां, मैं सुन चुकी हूं, और मैंने यह सुना था कि तुमने राजा गोपालसिंह को वर्षों तक कैद कर रक्खा था पर आखिर कमलिनी ने उन्हें छुड़ा लिया। तो तुमने ऐसा क्यों किया और उन्हें मार ही क्यों न डाला?
माया - यही मुझसे भूल हो गई। तिलिस्म के दो-चार भेद जो मुझे मालूम न थे जानने के लिए मैंने ऐसा किया था, मुझे उम्मीद थी कि वह कैद की तकलीफ उठाकर बता देगा। तब उसे मार डालती तो आज यह दिन देखना नसीब न होता। मैं तिलिस्म की बदौलत अकेली ही राजा वीरेन्द्रसिंह ऐसे दस को जहन्नुम में पहुंचा देने की ताकत रखती थी। अब भी अगर गोपालसिंह को मैं पकड़ पाऊं और मार सकूं तो पुनः तिलिस्म की रानी होने से मुझे कोई भी नहीं रोक सकता और तब मैं बात की बात में तुम्हें राजगृही और गया की रानी बना सकती हूं, मगर उस बात का सिलसिला तो टूटा ही जाता है। तुम भी विधवा हो और मैं भी विधवा हूं, तुम भी नौजवान और आशिक-मिजाज हो तथा मैं भी नौजवान और आशिक-मिजाज हूं, तुम भी इन्द्रजीतसिंह के फेर में पड़कर दुःख भोग रही हो और मैं भी आनन्दसिंह की मुहब्बत में इस दशा तक आ पहुंची हूं। अब भी मेरी और तुम्हारी किस्मतों का फैसला एक साथ और एक ही ठिकाने हो सकता है क्योंकि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी आजकल जमानिया ही में तिलिस्म तोड़ रहे हैं। अगर आज हम-तुम एक होकर काम करें तो बहुत जल्द दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर अपने प्यारों के साथ दुनिया का सुख भोग सकती हैं, मगर मुझे इस समय तुम्हारे दो कंटक दिखाई देते हैं।
माधवी - हां, एक तो मेरा भाई भीमसेन और दूसरा मेरा सेनापति कुबेरसिंह मगर तुम इन दोनों का कुछ भी खयाल न करो, इस समय हमें इन दोनों को मिला-जुलाकर काम कर लेना चाहिए फिर तुम जैसा कहोगी वैसा किया जायगा।
माया - शाबाश-शाबाश! यही मालूम करने के लिए मैं तुमसे निराले में बातचीत किया चाहती थी क्योंकि ये बातें ऐसी हैं कि सिवाय मेरे और तुम्हारे किसी तीसरे का न जानना ही अच्छा है।
माधवी - निःसन्देह ऐसा ही है, हम दोनों के दिल की बातें हवा को भी न मालूम होनी चाहिए। आज बड़ी खुशी का दिन है कि हम दोनों जो एक ही तरह का दिल रखती हैं यहां पर आ मिली हैं। अब हम दोनों को हमेशा मेल-मिलाप रखने और समय पड़ने पर एक-दूसरे की मदद करने के लिए कसम खाकर मजबूत हो जाना चाहिए।
पाठक, मायारानी और माधवी दोनों ही अपना मतलब देख रही हैं। दोनों ही धूर्त, दोनों ही खुदगर्ज, और दोनों ही विश्वासघातिनी हैं। इस समय कुछ देर तक कानों में घुल-घुलकर बातें होती रहीं, वादे भी हुए और कसमें भी खाई गईं। इसके बाद फिर भीमसेन और कुबेरसिंह बुलाए गए तथा लीला भी आ गई और आपस में बातें होने लगीं।
भीम - अच्छा तो अब क्या निश्चय किया जाता है राजा गोपालसिंह की चीठी लेकर जमानिया कौन जायगा और क्या होगा?
माया - पहिले तुम अपनी राय दो।
भीम - मेरी राय तो यह है कि लीला रामदीन की सूरत बन दीवान साहब के पास जाय और वहां से उनकी फरमाइश लेकर 'पिपलिया घाटी' पहुंचे और हम लोग भी अपनी फौज लेकर वहीं मौजूद रहें। लीला को यह करना चाहिए कि उन दो सौ सवारों को जिन्हें जमानिया से अपने साथ लायेगी किसी बहाने से पीछे टिकवा दे जिससे गोपालसिंह के पहुंचते ही हम लोग बात की बात में उन सभों को गिरफ्तार कर लें या मार डालें।
माया - मगर यह बात मुझे नापसन्द है क्योंकि एक तो उसके लिखे अनुसार फौज 'पिपलिया घाटी' तक जरूर जायगी, अगर मान लिया जाय कि नकली रामदीन के हुक्म से फौज पीछे रह भी जाय और तुम लोग उन सभों को गिरफ्तार कर लो तो भी हमारा काम न निकल सकेगा क्योंकि राजा गोपालसिंह के पकड़े या मारे जाने की खबर दीवान को तुरंत लग जायगी। और वह अपनी फौज को दुरुस्त करके लड़ने के लिए तैयार हो जाएगा और हम लोगों को जमानिया के अन्दर कभी घुसने न देगा। कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह भी जमानिया ही में तिलिस्म के अन्दर हैं, वे दोनों भी लड़ने-भिड़ने के लिए तैयार हो जायेंगे और उस समय हम लोग फिर लंडूरे ही रह जायेंगे। इतना बखेड़ा करने का कुछ फायदा न निकलेगा, न तो जमानिया की गद्दी मिलेगी और न गया का राज्य।
भीम - अब आप ही कहिए कि क्या करना चाहिए।
माया - (कुबेर से) इस वक्त आपके पास कितनी फौज है?
कुबेर - पांच सौ।
माया - (माधवी से) ऐसा करना चाहिए कि हम-तुम, भीमसेन और कुबेरसिंह चारों आदमी जमानिया वाले तिलिस्मी बाग के अन्दर जा घुसें और इन पांच सौ आदमियों को इस तरह तिलिस्मी बाग के अन्दर ले चलें और छिपा रक्खें कि किसी को कानों-कान खबर न हो, क्योंकि उस बाग में इतने आदमियों को छिपा रखने की जगह है और वह बाग भी इस लायक है कि अगर मैं उसके अन्दर मौजूद रहूं तो चाहे कैसा ही जबर्दस्त दुश्मन हो और चाहे कितनी ही ज्यादे फौज लेकर क्यों न चढ़ आवे मगर बाग के अन्दर किसी की नजर तक पहुंचने न दूं।
माधवी - बेशक यह बाग ऐसा ही सुनने में आया है और तुम तो वहां की रानी ही ठहरीं तथा तुम्हें वहां के सब भेद मालूम भी हैं, अच्छा तब?
माया - जब किशोरी और कमलिनी इत्यादि को लेकर गोपालसिंह जमानिया जायगा तो निःसन्देह सभों को लिये हुए उसी बाग में पहुंचेगा, बस उस समय हम लोग जो छिपे हुए रहेंगे निकल आवेंगे और बात की बात में सभों को मार लेंगे। ऐसा होने से जमानिया में दखल भी बना रहेगा और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह भी कब्जे में आ जायेंगे।
माधवी - (खुश होकर) बात तो बहुत ठीक है, मगर हम लोग इतने आदमियों को लेकर चुपचाप उस बाग के अन्दर किस तरह पहुंच सकते हैं?
माया - इसका बन्दोबस्त इस तरह हो सकता है कि हम-तुम, भीमसेन और कुबेरसिंह एक साथ ही भेष बदलकर लीला के साथ जमानिया जायें और लीला दीवान साहब से कहे कि गोपालसिंह ने इन सभों अर्थात् हम लोगों को खास बाग के अन्दर पहुंचा देने का हुक्म दिया है। बस इतना कहकर हम लोगों को उस बाग के अन्दर पहुंचा दे क्योंकि दीवान इस नकली रामदीन की बात अंगूठी की बरकत से टाल न सकेगा और रामदीन पहिले भी खास बाग के अन्दर आता-जाता था यह बात दीवान जानता है। जब हम लोग उस बाग के अन्दर जा पहुंचेंगे तो एक गुप्त रास्ते से कुल फौज को बाग के अन्दर ले लेंगे। इन फौजी सिपाहियों को सुरंग के मुहाने का पता बता दिया जायगा जिसकी राह से हम सभों को खास बाग के अन्दर पहुंचावेंगे।
माधवी - यह बात तो तुमने बहुत ही अच्छी सोची!
भीम - इससे बढ़कर और कोई तर्कीब फतह पाने के लिए हो ही नहीं सकती!
कुबेर - और ऐसा करने में कोई टण्टा भी नहीं है।
लीला - बस अब इसी राय को पक्की रखिए।
इसके बाद फिर सभों में बातचीत और राय होती रही यहां तक कि सबेरा हो गया। मायारानी, माधवी, भीमसेन और कुबेरसिंह ने सूरतें बदल लीं और लीला भी रामदीन बन बैठी। भीमसेन के चारों ऐयारों को सुरंग का पता-ठिकाना अच्छी तरह बता दिया गया और कह दिया गया कि उसी ठिकाने सुरंग के मुहाने पर फौजी सिपाहियों को लेकर इन्तजार करना, इसके बाद मायारानी, माधवी, भीमसेन, कुबेरसिंह और लीला ने घोड़ों पर सवार होकर जमानिया का रास्ता लिया।