कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह तिलिस्म तोड़ने की धुन में लगे हुए थे। मगर उनके दिल से किशोरी और कमलिनी तथा कामिनी और लाडिली की मुहब्बत एक सायत के लिए भी बाहर नहीं होती थी। जब दोनों कुमारों ने बाग के उत्तर तरफ वाले मकान की खिड़की (छोटे दरवाजे) में से झांकते हुए राजा गोपालसिंह की जुबानी किशोरी, कमलिनी, कामिनी और लाडिली का सब हाल सुना और यह भी सुना कि अब वे बहुत जल्द जमानिया में लाई जाएंगी, तब बहुत खुश हुए और उन लोगों से जल्द मिलने के लिए तिलिस्म तोड़ने की फिक्र उन्हें बहुत ज्यादे हो गई। जब गोपालसिंह, इन्दिरा और इन्द्रदेव बातचीत करके चले गये तब बड़े कुमार ने सर्यू से कहा, ''सर्यू, हम लोग अब बहुत जल्द तुम्हें अपने साथ लिये हुए इस तिलिस्म के बाहर होंगे। हम लोगों को तिलिस्म तोड़ने और दौलत पाने का उतना खयाल नहीं है जितना तिलिस्म से बाहर निकलने का ध्यान है। इस तिलिस्म से हम लोगों को एक किताब मिलने वाली है जिसके लिए हम लोग जरूर उद्योग करेंगे क्योंकि उसी किताब की बदौलत हम लोग चुनारगढ़ का वह भारी तिलिस्म तोड़ सकेंगे जिसे हमारे पिता ने हमारे लिए छोड़ रक्खा है और जिसका तोड़ना हम दोनों भाइयों को आवश्यक कहा जाता है।''

सर्यू - मेरे दिल ने उम्मीदों से भरकर उसी समय विश्वास दिया कि अब तेरा दुर्दैव सदैव के लिए तेरा पीछा छोड़ देगा जब आप दोनों भाइयों के दर्शन हुए तथा आप लोगों का परिचय मिला। अब मैं अपना दुःख भूलकर बिल्कुल बेफिक्र हो रही हूं और सिवाय आपकी आज्ञा मानने के कोई दूसरा खयाल मेरे दिल में नहीं है।

इन्द्रजीत - अच्छा तो अब तुम हम लोगों के लिए फल तोड़ो और तब तक हम लोग इस बाग में घूमकर कोई दरवाजा ढूंढ़ते हैं। ताज्जुब नहीं कि हम लोगों को इस बाग में कई दिन रहना पड़े।

सर्यू - जो आज्ञा।

इतना कहकर सर्यू फल तोड़ने और नहर के किनारे छाया देखकर कुछ जमीन साफ करने के खयाल में पड़ी और दोनों कुमार बाग में इधर-उधर घूमकर दरवाजा खोजने का उद्योग करने लगे।

पहर भर से ज्यादे देर तक घूमने और पता लगाने के बाद जब कुमार उत्तर तरफ वाली दीवार के नीचे पहुंचे जिधर मकान था तब उन्हें पूरब तरफ के कोने की तरफ हटकर जमीन में एक हौज का निशान मालूम हुआ। उसी के पास दीवार में एक छोटे से दरवाजे का चिह्न भी दिखा जिससे निश्चय हो गया कि उन लोगों का काम इन्हीं दोनों निशानों से चलेगा। इतना सोचकर वे दोनों भाई वहां चले आये जहां सर्यू फल तोड़ और जमीन साफ करके बैठी हुई दोनों भाइयों के आने का इन्तजार कर रही थी। सर्यू ने अच्छे-अच्छे और पके हुए फल दोनों भाइयों के लिए तोड़े और जल से धोकर साफ पत्थर की चट्टान पर रक्खे थे। दोनों भाइयों ने उन्हें खाकर नहर का जल पिया और इसके बाद सर्यू को भी खाने के लिए कहके उसी ठिकाने चले गए जहां हौज और दरवाजे का निशान पाया था। हौज में मिट्टी भरी हुई थी जिसे दोनों भाइयों ने खंजर से खोद-खोदके निकालना शुरू किया और थोड़ी देर में सर्यू भी उनके पास पहुंचकर मिट्टी फेंकने में मदद करने लगी। संध्या हो जाने पर इन सभों ने उस काम से हाथ खींचा और नहर के किनारे जाकर आराम किया। उस हौज की सफाई में इन लोगों को चार दिन लग गए। पांचवें दिन दोपहर होते-होते वह हौज साफ हुआ और मालूम होने लगा कि यह वास्तव में एक फौवारा है। वह हौज संगमर्मर का बना हुआ था और फौवारा सोने का। अब दोनों कुमारों ने खंजर के सहारे उस हौज की जमीन का पत्थर उखाड़ना शुरू किया और जब दो-तीन दिन की मेहनत में सब पत्थर उखड़ गए तब वह फौवारा भी सहज ही में निकल गया और उसके नीचे एक दरवाजे का निशान दिखाई दिया। दरवाजे में पल्ला हटाने के लिए कड़ी लगी हुई थी और जिस जगह ताला लगा हुआ था उसके मुंह पर लोहे की एक पतली चादर रक्खी हुई थी जिसे कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने हटा दिया और उसी तिलिस्मी ताली से ताला खोला जो पुतली के हाथ में से उन्हें मिली थी।

दरवाजा हटाने पर नीचे उतरने के लिए सीढ़ियां दिखाई पड़ीं। आनन्दसिंह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर रोशनी करते हुए नीचे उतरे और उनके पीछे-पीछे इन्द्रजीतसिंह और सर्यू भी गए। नीचे पहुंचकर उन्होंने अपने को एक छोटी-सी कोठरी में पाया जिसके बीचोंबीच में एक हौज बना हुआ था। उस हौज के चारों तरफ वाली दीवार कई तरह की धातुओं से बनी हुई थी और हौज के बीच में किसी तरह की राख भरी हुई थी। कोठरी की चारों तरफ की दीवारों में से तांबे की बहुत-सी तारें आई थीं और वे सब एक साथ होकर उसी हौज के बीच में चली गई थीं। इन्द्रजीतसिंह ने सर्यू से कहा, ''जब ये सब तारें काट दी जायेंगी तब बाग के चारों तरफ की दीवार करामात से खाली हो जायेगी अर्थात् उसमें यह गुण न रहेगा कि उसके छूने से किसी को किसी तरह की तकलीफ हो। इसके बाद हम लोग उस दीवार वाले दरवाजे को साफ करके रास्ता निकालेंगे और इस बाग से निकलकर किसी दूसरी ही जगह जायेंगे, अस्तु तुम यहां से निकलकर ऊपर चली जाओ तब हम लोग तार काटने में हाथ लगावें।''

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार सर्यू कोठरी से बाहर निकल गई और दोनों कुमारों ने तिलिस्मी खंजर से शीघ्र ही उन तारों को काट डाला और बाहर निकल आये। दरवाजा पहिले की तरह बन्द कर दिया और ऊपर से मिट्टी डाल दी, फिर नहर के किनारे आकर तीनों आदमी बैठ गए और बातचीत करने लगे।

सर्यू - अब दीवार छूने में किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती?

इन्द्र - अभी नहीं धीरे-धीरे दो पहर में उसका गुण जायेगा और तब तक हम लोगों को व्यर्थ बैठे रहना पड़ेगा।

आनन्द - तब तक (सर्यू की तरफ बताकर) इनका बचा हुआ किस्सा सुन लिया जाता तो अच्छा होता।

इन्द्र - नहीं अब इनका किस्सा पिताजी के सामने सुनेंगे।

सर्यू - अब तो मैं आपके साथ ही रहूंगी, इसलिए तिलिस्म तोड़ते समय जो कुछ कार्रवाई आप करेंगे या जो तमाशा दिखाई देगा देखूंगी मगर यदि आज के पहिले का हाल जब से आप इस तिलिस्म में आये हैं सुना देते तो बड़ी कृपा होती। मैं भी समझती कि आपकी बदौलत इस तिलिस्म का पूरा-पूरा तमाशा देख लिया।

इन्द्र - अच्छी बात है, (आनन्दसिंह से) तुम इस तिलिस्म का हाल इन्हें सुना दो।

थोड़ी देर आराम करने तथा जरूरी कामों से छुट्टी पाने के बाद भाई की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने अपना और तिलिस्म का हाल तथा जिस ढंग से इन्दिरा की मुलाकात हुई थी वह सब सर्यू को कह सुनाया, इसके साथ ही साथ तिलिस्म के बाहर आजकल का जैसा जमाना हो रहा था वह सब भी बयान किया। वह सब हाल कहते-सुनते रात आधी से कुछ ज्यादा चली गई और उस समय इन लोगों ने एक विचित्र तमाशा देखा।

इस बाग के उत्तर तरफ जो सटा हुआ मकान था और जिसमें से राजा गोपालसिंह और कुमार में बातचीत हुई थी, हम पहिले लिख आये हैं कि उसमें आगे की तरफ सात खिड़कियां थीं। इस समय यकायक एक आवाज आने से दोनों कुमारों और सर्यू की निगाह उस तरफ चली गई। देखा कि बीच वाली बड़ी खिड़की (दरवाजा) खुली है और उसके अन्दर रोशनी मालूम होती है। इन लोगों को ताज्जुब हुआ और इन्होंने सोचा कि शायद राजा गोपालसिंह आये हैं और हम लोगों से बातचीत करने का इरादा है मगर ऐसा न था। थोड़ी ही देर बाद उसके अन्दर दो-तीन नकाबपोश चलते-फिरते दिखाई दिये और इसके बाद एक नकाबपोश खिड़की में कमन्द अड़ाकर नीचे उतरने लगा। पहिले तो दोनों कुमारों और सर्यू को गुमान हुआ कि खिड़की में राजा गोपालसिंह या इन्द्रदेव दिखाई देंगे या होंगे मगर जब एक नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतरने लगा तब उनका खयाल बदल गया और वे सोचने लगे कि यह काम इन्द्रदेव या गोपालसिंह का नहीं है बल्कि किसी ऐसे आदमी का है जो इस तिलिस्म का हाल नहीं जानता क्योंकि गोपालसिंह और इन्द्रदेव तथा इन्दिरा को भी मालूम ही है कि इस बाग की दीवार छूने या बदन के साथ लगाने लायक नहीं है, तभी तो इन्दिरा अपनी मां के पास नहीं पहुंच सकी थी और सर्यू ने यह बात इन्दिरा से कही होगी।

इन्द्रजीतसिंह ने इसी समय सर्यू से पूछा कि ''इस बाग की दीवार का हाल इन्दिरा को मालूम है' इसके जवाब में सर्यू ने कहा, ''जरूर मालूम है, मैंने खुद इन्दिरा से कहा था और इसी सबब से तो वह मेरे पास आज तक न आ सकी, निःसन्देह इन्दिरा ने यह बात राजा गोपालसिंह से कही होगी बल्कि वह खुद जानते होंगे इसी से मैं सोचती हूं कि ये लोग कोई दूसरे ही हैं जो इस भेद को नहीं जानते, मगर अब तो इस दीवार का गुण जाता ही रहा।''

तीनों को ताज्जुब हुआ और तीनों आदमी टकटकी लगाकर उस तरफ देखने लगे। जब वह नकाबपोश कमन्द के सहारे नीचे उतर आया तब दूसरे नकाबपोश ने वह कमन्द ऊपर खेंच ली और उसी कमन्द में एक गठरी बांधकर नीचे लटकाई। दोनों कुमारों और सर्यू को विश्वास हो गया कि इस गठरी में जरूर कोई आदमी है।

जो नकाबपोश नीचे आ चुका था उसने गठरी थाम ली और खोलकर कमन्द खाली कर दी मगर जिस कम्बल में वह गठरी बंधी हुई थी उसे इसी के साथ बांध दिया और ऊपर वाले नकाबपोश ने खेंच लिया। थोड़ी देर बाद दूसरी गठरी लटकाई गई और नीचे वाले नकाबपोश ने पहिले की तरह उसे भी थाम लिया और कम्बल खोलकर फिर कमन्द के साथ बांध दिया।

इसी तरह बारी-बारी से सात गठरियां नीचे उतारी गईं, इसके बाद वह नकाबपोश जो सबके पहिले नीचे उतरा था उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गया और खिड़की बन्द हो गई।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel