भैरोसिंह के चले जाने के बाद दर्वाजा बंद हो जाने से दोनों राजकुमारों को ताज्जुब नहीं हुआ बल्कि उन्हें भैरोसिंह की तरफ़ से एक प्रकार की फ़िक्र लग गई! आनन्दसिंह से अपने बड़े भाई की तरफ़ देखकर कहा, "अब इस रात के समय भैरोसिंह के लिए हम लोग क्या कर सकते है? "

इन्द्रजीत- कुछ भी नहीं। मगर भैरोसिंह के हाथ में तिलिस्मी खंजर है, वह यकायक किसी के कब्जे में ना आ सकेगा।

आनंद- पहले भी तो उनके पास तिलिस्मी खंजर था बल्कि ऐयारी का बटुआ भी मौजूद था, तब उन्होंने क्या कर लिया था?

इन्द्रजीत- सो तो ठीक कहते हो, तिलिस्म के अन्दर हर तरह से बजे रहना मामूली काम नहीं है, मगर रात के समय अब हो ही क्या सकता है।

आनंद- मेरी राय है कि तिलिस्मी खंजर से छोटे से दरवाजे को काटने का उद्योग किया जाय, शायद...

इन्द्रजीत- अच्छी बात है, कोशिश करो।

आनंदसिंह ने तिलिस्मी खंजर का वार उस छोटे से दरवाजे पर किया मगर कोई नतीजा न निकला, आखिर दोनों भाई लाचार होकर वहाँ से हटे और किसी दालान में एक किनारे बैठकर बातचीत में रात बिताने का उद्योग करने लगे। रात के साथ ही साथ दोनों कुमारों की उदासी भी कुछ कुछ जाती रही और फूलों की महक से बसी हुई सुबह की ठंडी हवा में उद्योग और उत्साह का संचार किया। दोनों के पराधीन और चुटीले दिलों में किसी की याद ने गुदगुदी पैदा कर दी और बारह पर्दे के अंदर से भी खुशबू फैलाने वाली मगर कुछ दिनों तक नाउम्मीदी के पाले से गंधहीन हो गई, कलियों पर आशारूपी वायु के झपेटे से बहक कर आए हुए श्रृंगाररूपी भ्रमर इस समय पुन: गुंजार करने लग गए। क्या आज दिनभर की मेहतन से भी अपने प्रेमी का पता न लगा सकेगें? क्या आज दिन भर के उद्योग की सहायता से भी इस छोटी सी मगर अनूठी रंगशाला के नेपथ्य में से किसी की खोज निकालने में सफल मनोरथ न होगें? क्या आज दिनभर की कार्यवाई भी हमें विश्वास न दिला सकेगी कि जानोदिल का मालिक किसी स्थान में आ पहुँचा है। जैसा कि सुन चुके हैं और क्या आज दिनभर की उपासना का फल भी जुदाई की उसी काली घटा को दूर न कर सकेगा, जिसने इन चकोरों को जीवनदान देने वाले पूर्णचन्द्र को छिपा रखा है? नहीं-नहीं ऐसा कदापि नहीं हो सकता, आज दिन भर में हम बहुत कुछ कर सकेगें और उनका पता अवश्य लगायेगें जिन पर अपनी जिंदगी का भरोसा समझते हैं और जिनके मिलाप से बढकर इस दुनियाँ में और किसी चीज को नहीं मानते है।

इसी तरह की बातें सोचते हुए दोनों कुमार खड़े हो गए। नहर के किनारे आकर हाथ मुँह धोने के बाद घड़ी भर के अंदर ही जरूरी कामों से छुट्टी पाए। बाग में घूमने और वहाँ की हर के चीज को गौर से देखने लगे और थोड़ी ही देर में बारहदरी के सामने वाली दोमंजिला इमारत के नीचे जा पहुँचे जिसके ऊपर वाली मंजिल में रात को कोई काम करते हुए भैरोसिंह ने कई आदमियों को देखा था।

इस इमारत के नीचे वाला भाग ऊपर वाले हिस्से के विपरीत दर्वाजे बल्कि दर्वाजे के किसी नामोनिशान तक से भी ख़ाली था। बाग की तरह वाली नीचे की दीवार साफ़ और चिकनी संगमरमर से बनी हुई थी और बीचोबीच चार हाथ ऊँचा और दो हाथ चौड़ा स्याह पत्थर का एक टुकड़ा लगा हुआ था। उसमे नीचे लिखे मोटे छत्तीस अक्षर खुदे हुए थे, जिसे दोनों कुमार बड़े गौर से देखने और उसका मतलब जानने के लिए उद्योग करने लगे।

वे अक्षर ये थे-
                
ने    ए     ती   के    स्म   स्सों
                 
हि    को    ड़    की    उ    ति

स्से   का    स    लि   हि    न  
                 
या    से    न    न    टू    र

य    क    ल    सै    जो    गे
                 
रो    ख    हाँ    टें    क    रो

दो घड़ी तक गौर करने पर कुँवर इंद्रजीत उसका मतलब समझ गए और अपने छोटे भाई कुँवर आनन्दसिंह को भी समझाया, इसके बाद दोनों भाइयों ने जोर करके उस पत्थर को दबाया तो वह अंदर की तरफ़ घुस कर जमीं के बराबर हो गया और अंदर जाने लायक एक ख़ासा दर्वाजा दिखाई देने लगा, साथ इसके भीतर की तरफ अंधकार भी मालूम हुआ। इन्द्रजीत ने तिलिस्मी खंजर की रोशनी करके आगे चलने के लिए आनंदसिंह से कहा।

तिलिस्मी खंजर की रोशनी के सहारे दोनों भाई उस दरवाजे के अंदर चले गये और एक छोटे से कमरे में पहुंचे, जिसके बीचोबीच से ऊपर की मंजिल में जाने के लिए छोटी-छोटी चक्करदार सीढियां बनी हुई थी। उन्हीं सीढ़ियों की राह से दोनों कुमार ऊपर वाली मंजिल पर चढ़ गए और एक ऐसी कोठरी में पहुँचे जिसकी बनावट अर्धचन्द्र के ढंग की थी और तीन् दर्वाजे बाग की तरफ उस बारहदरी के ठीक सामने थे, जिसमे रात को दोनों कुमारों ने आराम किया था।

बाग की तरफ़ वाले तीनों दर्वाजे खोल देने से उस कोठरी के अंदर अच्छी तरह उजाला हो गया, उस समय आनन्दसिंह से तिलिस्मी खंजर की रोशनी बंद की और उसे कमर में रखने के बाद अपने भाई से कहा-

आनंद- इसी कोठरी में रात को भैरोसिंह ने कई आदमियों को चलते फिरते तथा काम करते देखा था, और मालूम होता है कि इसके दोनों तरह की कोठरियों का सिलसिला एक दूसरे से लगा हुआ है और सभों का एक दूसरे से सम्बन्ध है।

इंद्र- मैं भी ऐसा ही विश्वास करता हूँ, इस दाहिने बगलवाली दूसरी कोठरी का दर्वाजा खोलो और देखो कि उसके अंदर क्या है?

बड़े कुमार की आज्ञानुसार आनंदसिंह ने बगलवाली दूसरी कोठरी का दर्वाजा खोला, उसी समय दोनों कुमारों को ऐसा मालूम हुआ कि कोई आदमी तेजी के साथ कोठरी में से निकलकर इसके बाद वाली दूसरी कोठरी में चला गया। दोनों कुमारों ने तेजी के साथ उसका पीछा किया और दूसरी कोठरी में गए जिसका दर्वाजा मजबूती के साथ बंद न था, नो नानक पर निगाह पड़ी। यद्यपि उस कोठरी के वे दरवाजे जो बाग की तरफ़ पड़ते थे, बंद थे। मगर दिन का समय होने के कारण झिलमिलियों की दरारों में से पड़ने वाली रोशनी ने उसमें इतना उजाला जरूर कर रखा था कि आदमी की सूरत शक्ल बखूबी दिखाई दे जाय, यही सबब था कि निगाह पड़ते ही दोनों कुमारों ने नानक को पहचान लिया, इसी तरह नानक ने भी दोनों कुमारों को पहचान कर प्रणाम किया और कहा, " मैं किसी दुश्मन का होना अनुमान करके भागा था, मगर जब आवाज सुनी तो पहचान कर रुक गया। मैं कल से आप दोनों भाइयों की खोज कर रहा हूँ मगर पता न लगा सका क्योंकि तिलिस्मी कारखाने में बिना बूझे दखल देना उचित न जानकर अपनी बुद्धिमानी या जबर्दस्ती से किसी दर्वाजे को खोल न सका और इसलिए बाग में भी पहुँचने की नौबत न आई। कहिए आप लोग कुशल से तो हैं!"

इंद्र- हाँ हम लोग बहुत अच्छी तरह हैं, तुम बताओ कि यहाँ कब कैसे क्यों और किस तरह से आए?

नानक- कमलिनी जी से मिलने के लिए घर से निकला था मगर जब मालूम हुआ कि वे राजा गोपालसिंह के साथ जमानिया गई तब मैं राजा गोपालसिंह के पास आया और उन्हीं की आज्ञानुसार यहाँ आपके पास आया हूँ।

इंद्र- किनकी आज्ञानुसार? राजा गोपालसिंह की या कमलिनी की?

नानक- कमलिनी की आज्ञानुसार।

नानक की बात सुन कर आनंदसिंह ने एक भेद की निगाह इन्द्रजीतसिंह पर डाली और इन्द्रजीतसिंह ने कुछ मुस्कुराहट के साथ आनंदसिंह की तरफ देखकर कहा- "बाग की तरफ़ जो दर्वाजे पड़ते हैं उन्हें खोल दो, चांदनी हो जाय।"

आनन्दसिंह ने दर्वाजे खोल दिये और फिर नानक के पास आकर पूछा, "हाँ तो कमलिनी जी की आज्ञानुसार तुम यहाँ आये?"

नानक- जी हाँ।

आनंद- कमलिनी को कहाँ छोड़ा?

नानक- राजा गोपालसिंह के तिलिस्मी बाग में।

इंद्र- वह अच्छी तरह से तो हैं न?

नानक- जी हाँ बहुत अच्छी तरह से हैं।

आनंद- घोड़े पर से गिरने के कारण उनकी टाँगे जो टूट गई थी वह अच्छी हुई?

नानक- यह खबर आपको कैसे मालूम हुई?

आनंद- अजी वाह, मेरे सामने ही तो घोड़े पर से गिरी थी, भैरोसिंह ने उनका इलाज किया था, अच्छी हो गई थी मगर कुछ दर्द बाकी था, जब मैं इधर चला आया।

नानक- जी हाँ अब तो वह बहुत अच्छी हैं।

आनंद- (हंसकर) अच्छा यह तो बताओ कि तुम किस रास्ते से यहाँ आए हो?

नानक- उसी बुर्ज वाले रास्ते से आया हूँ।

आनंद- मुझे अपने साथ ले चल कर वह रास्ता बता तो दो।

नानक- बहुत अच्छा, चलिए मैं बता देता हूँ, मगर मुझसे कमलिनी जी ने कहा था किजब तुम बाग में जाओगे तो लौटने का रास्ता बंद हो जाएगा।

आनंद- यह तो उन्होने ठीक ही कहा था। हम दोनों भाइयों को भी उन्होंने यह कहला भेजा था कि मैं नानक को तुम्हारे पास भेजूंगी, तुम उसकी ज़ुबानी सब हाल सुनकर हिफाजत के साथ उसे तिलिस्म के बाहर कर देना।

नानक- (कुछ शर्माना सा होकर) जी ई ई ई, आप तो दिल्लगी करते हैं, मालूम होता है आपको मुझ पर कुछ शक है और आप समझते हैं कि मैं आपके दुश्मन का ऐयार हूँ और नानक की सूरत बन आया हूँ, अस्तु आप जिस तरह चाहें मेरी आजमाइश कर सकते हैं।

इतने ही में एक तरफ़ से आवाज आई, "जब तुम कमलिनी जी के भेजे हुए आए हो तो आजमाइश करने की ज़रूरत ही क्या है? थोड़ी देर में कमलिनी जी का सामना आप ही हो जायगा!"

इस आवाज ने दोनों कुमारों को तो कम मगर नानक को हद से ज्यादे परेशान कर दिया। उसके चेहरे पर हवाई सी उड़ने लगी और वह घबड़ा कर पीछे की तरफ़ देखने लगा। इस कोठरी में से दूसरी कोठरी में जाने के लिए जो दर्वाजा था वह इस समय मामूली तौर पर बंद था इसलिए किसी गैर पर उसकी निगाह न पड़ी अतएव उस दर्वाजे को खोल कर नानक अगली कोठरी में चला गया, मगर साथ ही आनंदसिंह ने भी वहाँ पहुँच कर उसकी कलाई पकड़ ली और कहा, "बस इतने ही में घबड़ा गए! इसी हौसले पर तिलिस्म के अंदर आए थे! आओ-आओ हम तुम्हे बाग में ले चलते हैं जहाँ निश्चिन्ती से बैठकर अच्छी तरह बातें कर सकेगें।"

इसी समय दो दर्वाजे खुले और स्याह लबादा ओढ़े हुए चार-पाँच आदमी उसके अंदर से निकल आए जो नानक को जबरदस्ती घसीटकर ले गए, साथ ही वे दर्वाजे भी उसी तरह बंद हो गये जैसे पहले थे। दोनों कुमारों ने कुछ सोच कर आपत्ति न की और उसे ले जाने दिया।

और कोठरियां की बनिस्बत इस कोठरी में दर्वाजे ज्यादे थे अर्थात दो दर्वाजे दोनों तरफ़ थे ही मगर बाग की तरफ़ चार और दो दर्वाजे पिछली तरफ़ भी थे और उसी पिछली तरफ़ वाले दोनों दरवाजों में से वे लोग आए थे जो नानक को घसीट कर ले गए थे। नानक को ले जाने के बाद आनंदसिंह से उन्हीं पिछली तरफ़ वाले दरवाजों में से एक दर्वाजा खोला और अंदर की तरफ़ झाँक के देखा। भीतर बहुत लंबा चौड़ा एक कमरा नज़र आया जिसमे अंधकार का नाम निशान भी न था बल्कि अच्छी तरह उजाला था। दोनों कुमार उस कमरे में चले गए और तब मालूल हुआ कि वे दर्वाजे एक ही कमरे में जाने के लिए हैं। इस कमरे में दोनों कुमारो ने एक बहुत बूढ़े आदमी को देखा जो चारपाई के ऊपर लेटा हुआ कोई किताब पड़ रहा था। कुमारों को देखते ही वह चारपाई के नीचे उतर कर खड़ा हो गया और सलाम कर के बोला, "आज कई दिनों से मैं आप दोनों भाइयों के आने का इंतज़ार कर रहा हूँ।"

इंद्र- तुम कौन हो?

बुढ्ढा- जी मैं इस बाग का दारोगा हूँ।

इंद्र- तुम हम लोगों का इंतज़ार क्यों कर रहे थे?

दारोगा- इसलिए कि आप लोगों को यहाँ की इमारतों और अजायबातों की सैर करा के अपने सर से एक भारी बोझ उतार दूँ।

इंद्र- क्या इधर दो-तीन दिन के बीच में कोई और भी इस बाग में आया है?

दारोगा- जी हाँ दो मर्द और कई औरतें आई हैं।

इंद्र- क्या उन लोगों के नाम बता सकते हो?

दारोगा- नानक और भैरोसिंह के सिवाय मैं और किसी का नाम नहीं जानता(कुछ सोचकर) हाँ एक औरत का भी नाम जानता हूँ शायद उसका नाम कमलिनी है, क्योंकि वह दो एक दफे इसी नाम से पुकारी गई थी, बड़ी ही धूर्त और चालाक है, अपनी अक्ल के सामने किसी को कुछ समझती ही नहीं, अस्तु बिना धोखा खाए नहीं रह सकती।

इंद्र- क्या बता सकते हो कि वे सब इस समय कहाँ है और उनसे मुलाक़ात क्यों कर हो सकती है?

दारोगा- जी मुझे उन लोगों का पता नहीं मालूम क्योंकि कमलिनी ने उन सभों को मेरी बात मानने न दी और अपनी इच्छानुसार उन सभों को लिए हुए चारों तरफ़ घूमती रही, इसी से मुझे रंज हुआ और मैंने उनकी खबरगीरी छोड़ दी।

इंद्र- अगर तुम यहाँ के दारोगा हो तो खबरदारी न रखने पर भी यह तो ज़रूर जानते ही होवोंगे कि वे सब कहाँ है?

दारोगा- मुझे यहाँ का दारोगा समझने और न समझने का तो आपको अख्तियार है मगर मैं यह ज़रूर कहूँगा कि मुझे उन सभों का पता नहीं मालूम हैं।

आनंद- (हंसकर) यही हाल है तो यहाँ की हिफाज़त क्या करते हो?

दारोगा- इसका हाल तो तभी मालूम होगा जब आप मेरे साथ चल कर यहाँ की सैर करेगें।

आनंद- अच्छा ये बताओ कि अभी हमारे देखते ही देखते जो लोग नानक को ले गए वे कौन थे?

दारोगा- वे सब मेरे ही नौकर थे। वह झूठा और शैतान है तथा आपको नुकसान पहुँचाने की नियत से धोखा देकर यहाँ घुस आया है इसीलिये मैंने उसे गिरफ्तार करने का हुक्म दिया।

आनंद- तुम्हारे आदमी लोग कहाँ रहते है? यहाँ तो मै तुमको अकेला ही देखता हूँ।

दारोगा- यह कमरा तो मेरा एकांत स्थान है, जब पढ़ने या किसी विषय पर गौर करने की ज़रूरत पड़ती है तब मैं इस कमरे में आ कर बैठता या लेटता हूँ। मगर यहाँ खड़े-खड़े बातें करने में तो आपको तकलीफ़ होगी। आप मेरे स्थान पर चले तो उत्तम हो या बाग ही में चलिए जहाँ और भी कई...

इन्द्रजीत- खैर यह सब तो होता रहेगा पहले हम लोगों को यह मालूम होना चाहिए कि तुम हमारे दोस्त हो, दुश्मन नही और तुम्हारी यह सूरत असली है, बनावटी नही। इसके बाद मैं तुमसे दिल खोल कर बातें कर सकूंगा।

दारोगा- इस बात का पता तो आपको मेरी कार्यवाई से ही लग सकेगा, मेरे कहने का आपको एतबार कब होगा, मगर इस बात को खूब समझ...

दारोगा की बात पूरी न होने पाई थी कि एक तरफ़ से आवाज आई, "अजी तुम्हें कुछ खाने पीने की भी सुध है या यों ही बकवाद किया करोगे।" दोनों कुमार ताज्जुब के साथ उस तरफ़ देखने लगे जिधर से आवाज आई थी। उसी समय एक बुढ़िया उसी तरफ़ से कमरे के अंदर आती दिखाई पड़ी और वह दारोगा के पास आकर फिर बोली, "मैं बड़ी ही बदकिस्मत थी जो तुम्हारे साथ ब्याह गई। मैंने जो कहा तुमने कुछ सुना या नहीं?"

दारोगा- (क्रोध से) आ गई शैतान की नानी!

दोनों कुमारों ने देखते ही उस बुढिया को पहिचान लिया कि वही बुढिया है जो भैरोसिंह की जोरू उस समय बनी हुई थी जब भैरोसिंह पागल भया हुआ, इसी बाग में हम लोगों को दिखाई दिया था।

इन्द्रजीतसिंह ने ताज्जुब और दिल्लगी की निगाह से उस बुढ़िया की तरफ़ देखा और कहा, "अभी कल की बात है कि तू भैरोसिंह पागल की जोरू बनी हुई थी और आज इस दारोगा को अपना मालिक बता रही है।"

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