महल के बाहर आने पर भी देवीसिंह के दिल को किसी तरह चैन न पड़ा। यद्यपि रात बहुत बीत चुकी थी तथापि राजा वीरेन्द्रसिंह से मिलकर उस तस्वीर के विषय में बातचीत करने की नीयत से वह राजा साहब के कमरे में चले गए, मगर वहां जाने पर मालूम हुआ कि वीरेन्द्रसिंह महल में गये हुए हैं। लाचार होकर लौटा ही चाहते थे कि राजा वीरेन्द्रसिंह भी आ पहुंचे और अपने पलंग के पास देवीसिंह को देखकर बोले, ''रात को भी तुम्हें चैन नहीं पड़ती! (मुस्कुराकर) मगर ताज्जुब यह है कि चम्पा ने तुम्हें इतने जल्दी बाहर आने की छुट्टी क्योंकर दे दी!''
देवी - इस हिसाब से तो मुझे भी आप पर ताज्जुब करना चाहिए मगर नहीं, असल तो यह है कि मैं एक ताज्जुब की बात आपको सुनाने के लिए यहां चला आया हूं।
वीरेन्द्र - वह कौन-सी बात है, और तुम्हारे हाथ में यह कपड़े का पुलिन्दा कैसा है?
देवी - इसी कम्बख्त ने तो मुझे इस आनन्द के समय में आपसे मिलने पर मजबूर किया।
वीरेन्द्र - सो क्या (चारपाई पर बैठकर) बैठ के बातें करो।
देवीसिंह ने महल में चम्पा के पास जाकर जो कुछ देखा और सुना था सब बयान किया, इसके बाद वह कपड़े वाली तस्वीर खोलकर दिखाई तथा उस नक्शे को अच्छी तरह समझाने के बाद कहा, ''न मालूम यह नक्शा तारा को क्योंकर और कहां से मिला और उसने इसे अपनी मां को क्यों दे दिया!''
वीरेन्द्र - तारासिंह से तुमने क्यों नहीं पूछा।
देवी - अभी तो मैं सीधा आप ही के पास चला आया हूं, अब जो कुछ मुनासिब हो किया जाय। कहिए तो लड़के को इसी जगह बुलाऊं?
वीरेन्द्र - क्या हर्ज है, किसी को कहो, बुला लावे।
देवीसिंह कमरे के बाहर निकले और पहरे के एक सिपाही को तारासिंह को बुलाने की आज्ञा देकर पुनः कमरे में चले गये और राजा साहब से बातचीत करने लगे। थोड़ी देर में पहरे वाले ने वापस आकर अर्ज किया कि 'तारासिंह से मुलाकात नहीं हुई और इसका भी पता न लगा कि वे कब और कहां गये हैं, उनका खिदमतगार कहता है कि संध्या होने के पहिले ही से उनका पता नहीं है।'
बेशक यह बात ताज्जुब की थी। रात के समय बिना आज्ञा लिए तारासिंह का गैरहाजिर रहना सभों को ताज्जुब में डाल सकता था, मगर राजा वीरेन्द्रसिंह ने सोचा कि आखिर तारासिंह ऐयार है शायद किसी काम की जरूरत समझकर कहीं चला गया हो अस्तु राजा साहब ने भैरोसिंह को तलब किया और थोड़ी ही देर में भैरोसिह ने हाजिर होकर सलाम किया।
वीरेन्द्र - (भैरो से) तुम जानते हो कि तारासिंह क्योंकर और कहां गया है?
भैरो - तारा तो आज संध्या होने के पहिले से ही गायब है, पहर भर दिन बाकी था जब मुझसे मिला था, उसे तरद्दुद में देखकर मैंने पूछा भी था कि आज तुम तरद्दुद में क्यों मालूम पड़ते हो मगर इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया।
वीरेन्द्र - ताज्जुब की बात है! हमें उम्मीद थी कि तुम्हें उसका हाल जरूर मालूम होगा।
भैरो - क्या मैं सुन सकता हूं कि इस समय उसे याद करने की जरूरत क्यों पड़ी?
वीरेन्द्र - जरूर सुन सकते हो।
इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह की तरफ देखा और देवीसिंह ने कुछ कम-बेश अपना और भूतनाथ का किस्सा बयान करने के बाद उस तस्वीर का हाल कहा और तस्वीर भी दिखाई। अन्त में भैरोसिंह ने कहा, ''मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि तारासिंह को यह तस्वीर कब और कहां से मिली मगर अब इसका हाल जानने की कोशिश जरूर करूंगा।''
हुक्म पाकर भैरोसिंह बिदा हुआ और थोड़ी देर तक बातचीत करने के बाद देवीसिंह भी चले गये।
दूसरे दिन मामूली कामों से छुट्टी पाकर राजा वीरेन्द्रसिंह जब दरबारे-खास में बैठे तो पुनः तारासिंह के विषय में बातचीत शुरू हुई और इसी बीच में नकाबपोशों का भी जिक्र छिड़ा। उस समय वहां वीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह, तेजसिंह तथा देवीसिंह वगैरह अपने ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी न था। जितने थे सभी ताज्जुब के साथ तारासिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कर रहे थे और मौके पर भूतनाथ तथा नकाबपोशों का भी जिक्र आता था। दोनों नकाबपोश वहां आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का जो किस्सा सुना गए थे उसे आज तीन दिन का जमाना गुजर गया। इस बीच में न तो वे दोनों नकाबपोश आये और न उनके विषय में कोई बात ही सुनी गई। साथ ही इनके अभी तक भूतनाथ का कोई हाल-चाल मालूम न हुआ। खुलासा यह कि इस समय के दरबार में इन्हीं सब बातों की चर्चा थी और तरह-तरह के खयाल दौड़ाये जा रहे थे। इसी समय चोबदार ने दोनों नकाबपोशों के आने की इत्तिला की। हुक्म पाकर वे दोनों हाजिर किए गये और सलाम करके आज्ञानुसार उचित स्थान पर बैठ गये।
एक नकाब - (हाथ जोड़कर राजा वीरेन्द्रसिंह से) महाराज ताज्जुब करते होंगे कि ताबेदारों ने हाजिर होने में दो-तीन दिन का नागा किया।
वीरेन्द्र - बेशक ऐसा ही है क्योंकि हम लोग इन्द्रजीत और आनन्द का तिलिस्मी किस्सा सुनने के लिए बेचैन हो रहे थे।
नकाब - ठीक है, हम लोग हाजिर न हुए इसके कई सबब हो सकते हैं। एक तो इसका पता हम लोगों को लग चुका था कि भूतनाथ जो हम लोगों की फिक्र में गया था अभी तक लौटकर नहीं आया और इस सबब से कैदियों के मुकद्दमे में दिलचस्पी नहीं आ सकती थी। दूसरे कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के किस्से में कई बातें ऐसी थीं जिनका हाल दरियाफ्त करना बहुत जरूरी था और इस काम के लिए हम लोग तिलिस्म के अन्दर गये हुए थे।
वीरेन्द्र - क्या आप लोग जब चाहे तब उस तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं जिसे वे दोनों लड़के फतह कर रहे हैं?
नकाब - जी सब जगह तो नहीं मगर खास-खास ठिकाने कभी-कभी जा सकते हैं जहां तक कि हमारे गुरु महाराज जाया करते थे, मगर उनकी खबर एक-एक घड़ी की हम लोगों को मिला करती है।
वीरेन्द्र - आप लोगों के गुरु कौन और कहां हैं?
नकाब - अब तो वे परमधाम को चले गये।
वीरेन्द्र - खैर तो जब आप लोग तिलिस्म में गये थे तो क्या दोनों लड़कों से मुलाकात हुई थी!
नकाब - मुलाकात तो नहीं हुई मगर जिन बातों का शक था वह मिट गया और जो बातें मालूम न थीं वे मालूम हो गईं जिससे इस समय हम लोग पुनः उनका किस्सा कहने के लिए तैयार हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आपने भूतनाथ को अकेला छोड़ दिया?
देवी - हां, क्योंकि मुझे आप लोगों का भेद जानने का उतना शौक न था जितना भूतनाथ को है। मैं तो उस दिन केवल इतना ही जानने के लिए गया था कि देखें भूतनाथ कहां जाता है और क्या करता है मगर मेरी तबियत इतने में ही भर गई।
नकाब - मगर भूतनाथ की तबियत अभी नहीं भरी।
तेज - वह भी विचित्र ढंग का ऐयार है! साफ-साफ देखता है कि आप लोग उसके पक्षपाती हैं मगर फिर भी आप लोगों का असल हाल जानने के लिए बेताब हो रहा है। यह उसकी भूल है तथापि आशा है कि आप लोगों की तरफ से उसे किसी तरह की तकलीफ न पहुंचेगी।
नकाब - नहीं-नहीं कदापि नहीं। (राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देखके और हाथ जोड़के) हम लोगों को अपना लड़का समझिए और विश्वास रखिए कि आपके किसी ऐयार को हम लोगों की तरफ से किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुंच सकती चाहे वे लोग हमें किसी तरह का रंज पहुंचावें।
बीरेन्द्र - आशा तो ऐसी ही है, और हमारे ऐयार भी बड़े ही नालायक होंगे अगर आप लोगों को किसी तरह की तकलीफ पहुंचाने का इरादा करेंगे।
देवी - मैं कल से एक और तरद्दुद में पड़ गया हूं।
नकाब - वह क्या?
देवी - कल से मेरे लड़के तारासिंह का पता नहीं है, न मालूम वह क्यों और कहां चला गया।
नकाब - तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि घण्टे भर के अन्दर ही यहां आ पहुंचेगा।
देवी - आपके इस कहने से तो मालूम होता है कि आपको उसका हाल मालूम है।
नकाब - बेशक मालूम है मगर मैं अपनी जुबान से कुछ भी न कहूंगा, आप स्वयं उससे जो कुछ पूछना होगा पूछे लेंगे। (वीरेन्द्रसिंह से) आज जिस समय हम लोग घर से यहां की तरफ रवाना हो रहे थे उसी समय एक चीठी कुंअर इन्द्रजीतसिंह की मुझे मिली जिसमें उन्होंने लिखा था कि तुम महाराज के पास जाकर मेरी तरफ से अर्ज करो कि महाराज भैरोसिंह और तारासिंह को मेरे पास भेज दें क्योंकि उनके बिना हम लोगों को कई बातों की तकलीफ हो रही है, साथ ही इसके एक चीठी महाराज के नाम की भी उन्होंने भेजी है।
इतना कहके नकाबपोश ने अपनी जेब में से एक बंद लिफाफा निकालकर वीरेन्द्रसिंह के हाथ में दिया।
बीरेन्द्र - (ताज्जुब के साथ लिफाफा लेकर) सीधे मेरे पास क्यों नहीं भेजा?
नकाब - वे न तो खुद तिलिस्म के बाहर आ सकते हैं और न किसी को भेज सकते हैं, हम लोगों का आदमी हर समय तिलिस्म के अन्दर मौजूद रहता है और उनके हालचाल की खबर लिया करता है इसलिए उसके मारफत पत्र भेज सकते हैं।
इतना सुनकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो रहे और लिफाफा खोलकर पढ़ने लगे। प्रणाम इत्यादि के बाद यह लिखा था -
''हम दोनों भाई कुशलपूर्वक तिलिस्म की कार्रवाई कर रहे हैं परन्तु कोई ऐयार या मददगार न रहने के कारण कभी-कभी तकलीफ हो जाती है इसलिए आशा है कि भैरोसिंह और तारासिंह को शीघ्र भेज देंगे। यहां तिलिस्म में ईश्वर ने हमें दो मददगार बहुत अच्छे पहुंचा दिये हैं जिनका नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह है। ये दोनों मायारानी के तिलिस्मी दारोगा इत्यादि के भेदों से खूब वाफिक हैं। यदि इन लोगों के सामने दुष्टों के मुकद्दमे का फैसला करेंगे तो आशा है कि देखने-सुनने वालों को एक अपूर्व आनन्द मिलेगा। इन्हीं दोनों की जुबानी हम दोनों भाइयों का हाल पूरा-पूरा मिला करेगा और ये ही दोनों भैरोसिंह और तारासिंह को भी हम लोगों के पास पहुंचा देंगे। भाई गोपालसिंह से कह दीजियेगा कि उनके दोस्त भरतसिंहजी भी इस तिलिस्म में मुझे मिले हैं। उन्हें कम्बख्त दारोगा ने कैद किया था, ईश्वर की कृपा से उनकी जान बच गई। भाई गोपालसिंहजी मुझसे बिदा होते समय तालाब वाले नहर के विषय में गुप्त रीति से जो कुछ कह गये थे वह ठीक निकला, चांद वाला पताका भी हम लोगों को मिल गया।
आपके आज्ञाकारी पुत्र - इन्द्रजीत, आनन्दसिंह।''
इस चीठी को पढ़कर वीरेन्द्रसिंह बहुत ही प्रसन्न हुए मगर साथ ही इसके उन्हें ताज्जुब भी हद से ज्यादे हुआ। इन्द्रजीतसिंह के हाथ के अक्षर पहिचानने में किसी तरह की भूल नहीं हो सकती थी, तथापि शक मिटाने के लिए वीरेन्द्रसिंह ने वह चीठी राजा गोपालसिंह के हाथ में दे दी क्योंकि उनके विषय में भी दो-एक गुप्त बातों का ऐसा इशारा था जिसके पढ़ने से इस बात का रत्ती-भर भी शक नहीं हो सकता था कि चीठी कुमार के हाथ की लिखी हुई नहीं है या ये नकाबपोश जाल करते हैं।
चीठी पढ़ने के साथ ही राजा गोपालसिंह हद से ज्यादे खुश होकर चौंक पड़े और राजा वीरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, ''निःसन्देह यह पत्र इन्द्रजीतसिंह के हाथ का लिखा हुआ है। बिदा होते समय जो गुप्त बातें मैं उनसे कह आया था इस चीठी में उनका जिक्र एक अपूर्व आनन्द दे रहा है, तिस पर अपने मित्र भरतसिंह के पा जाने का हाल पढ़कर मुझे जो प्रसन्नता हुई उसे मैं शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर सकता। (नकाबपोशों की तरफ देखके) अब मालूम हुआ कि आप लोगों के नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह हैं। जरूर आप लोग बहुत-सी बातों को छिपा रहे हैं परन्तु जिस समय भेदों को खोलेंगे उस समय निःसन्देह एक अद्भुत आनन्द मिलेगा।
इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने वह चीठी तेजसिंह के हाथ में दे दी और इन्होंने पढ़कर देवीसिंह को और देवीसिंह ने पढ़कर और ऐयारों को भी दिखाई जिसके सबब से इस समय सभों ही के चेहरे पर प्रसन्नता दिखाई देने लगी। इसी समय तारासिंह भी वहां पहुंचा।
नकाबपोश ने जो कुछ कहा था वही हुआ अर्थात् थोड़ी देर में तारासिंह ने भी वहां पहुंचकर सभों के दिल से खुटका दूर किया, मगर हमारे राजा साहब और ऐयारों को इस बात का ताज्जुब जरूर था कि नकाबपोश को तारासिंह का हाल क्योंकर मालूम हुआ और उसने किस जानकारी पर कहा कि वह घण्टे-भर के अन्दर आ जायगा। खैर इस समय तारासिंह के आ जाने से सभों को प्रसन्नता ही हुई और देवीसिंह को भी उस तस्वीर के विषय में कुछ खुलासा हाल पूछने का मौका मिला, मगर नकाबपोशों के सामने उस विषय में बातचीत करना उचित न जाना।
नकाबपोश - (वीरेन्द्रसिंह से) देखिए तारासिंह आ गये, जो मैंने कहा था वही हुआ। अब इन दोनों के विषय में क्या हुक्म होता है क्या आज ये दोनों ऐयार कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास जाने के लिए तैयार हो सकते हैं?
तेज - हां तैयार हो सकते हैं और आप लोगों के साथ जा सकते हैं मगर दो-एक जरूरी कामों की तरफ ध्यान देने से यही उचित जान पड़ता है कि आज नहीं बल्कि कल इन दोनों भाइयों को आपके साथ बिदा किया जाय।
नकाब - जैसी मर्जी, अब आज्ञा हो तो हम लोग बिदा हों।
तेज - क्या आज इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का किस्सा आप न सुनावेंगे?
नकाब - देर तो हो गई मगर फिर भी कुछ थोड़ा-सा हाल सुनाने के लिए हम लोग तैयार हैं, आप दरियाफ्त करायें यदि बड़े महाराज निश्चिन्त हों तो...।
इशारा पाते ही भैरोसिंह बड़े महाराज अर्थात् महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चले गये और थोड़ी देर में लौट आकर बोले, ''महाराज आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।''
इतना सुनते ही वीरेन्द्रसिंह के साथ ही साथ सब कोई उठ खड़े हुए और बात की बात में यह दरबारे-खास महाराज सुरेन्द्रसिंह का दरबारे-खास हो गया।