सबसे ज्यादे फिक्र भूतनाथ को इस बात के जानने की थी कि वे दोनों नकाबपोश कौन हैं और दारोगा, जैपाल तथा बेगम का उन सूरतों से क्या सम्बन्ध है जो समय-समय पर नकाबपोशों ने दिखाई थीं या हमारे तथा राजा गोपालसिंह और लक्ष्मीदेवी इत्यादि के सम्बन्ध में हम लोगों से भी ज्यादे जानकारी इन नकाबपोशों को क्योंकर हुई तथा ये दोनों वास्तव में दो ही हैं या कई।
इन्हीं बातों के सोच-विचार में भूतनाथ का दिमाग चक्कर खा रहा था। यों तो उस दरबार में जितने भी आदमी थे सभी उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के लिए बेताब हो रहे थे और दरबार बर्खास्त होने तथा अपने डेरे पर जाने के बाद भी हर एक आदमी इन्हीं दोनों नकाबपोशों का खयाल और फिक्र करता था मगर किसी की हिम्मत यह न होती थी कि उनके पीछे-पीछे जाय। हां, ऐयार और जासूस लोग जिनकी प्रकृति ही ऐसी होती है कि खामखाह भी लोगों के भेद जानने की कोशिश किया करते हैं उन दोनों नकाबपोशों का हाल जानने के फेर में पड़े हुए थे।
भूतनाथ का डेरा यद्यपि तिलिस्मी इमारत के अन्दर बलभद्रसिंह के साथ था मगर वास्तव में वह अकेला न था। भूतनाथ के पिछले किस्से से पाठकों को मालूम हो चुका होगा कि उसके साथी, नौकर, सिपाही या जासूस लोग कम न थे जिनसे वह समय-समय पर काम लिया करता था और जो उसके हाल-चाल की खबर बराबर रक्खा करते थे। अब यह कह देना आवश्यक है कि यहां भी भूतनाथ के बहुत से आदमी धीरे-धीरे आ गए हैं जो सूरत बदलकर चारों तरफ घूमते और उसकी जरूरतों को पूरा करते हैं और उनमें से दो आदमी खास तिलिस्मी इमारत के अन्दर उसके साथ रहते हैं जिन्हें भूतनाथ ने अपने खिदमतगार कहकर अपने पास रख लिया है और इस बात को बलभद्रसिंह भी जानते हैं।
दरबार बर्खास्त होने के बाद भूतनाथ और बलभद्रसिंह अपने डेरे पर गये और कुछ जलपान इत्यादि से छुट्टी पाकर यों बातचीत करने लगे -
बलभद्र - ये दोनों नकाबपोश तो बड़े ही विचित्र मालूम पड़ते हैं।
भूत - क्या कहें, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मजा तो यह है कि वे हमीं लोगों की बातों को हम लोगों से भी ज्यादे जानते और समझते हैं।
बलभद्र - बेशक ऐसा ही है।
भूत - यद्यपि अभी तक इन नकाबपोशों ने मेरे साथ कुछ बुरा बर्ताव नहीं किया बल्कि एक तौर पर मेरा पक्ष ही करते हैं तथापि मेरा कलेजा डर के मारे सूखा जाता है। यह सोचकर कि जिस तरह आज मेरी स्त्री की एक गुप्त बात इन्होंने प्रकट कर दी जिसे मैं भी नहीं जानता था उसी तरह कहीं मेरी उस सन्दूकड़ी का भेद भी न खोल दें जो जैपाल की दी हुई अभी तक राजा साहब के पास अमानत रक्खी है और जिसके खयाल ही से मेरा कलेजा हरदम कांपा करता है।
बलभद्र - ठीक है, मगर मेरा खयाल है कि नकाबपोश तुम्हारी उस सन्दूकड़ी का भेद न तो खुद ही खोलेंगे और न खुलने ही देंगे।
भूत - सो कैसे?
बलभद्र - क्या तुम उन बातों को भूल गये जो एक नकाबपोश ने भरे दरबार में तुम्हारे लिए कही थीं क्या उसने नहीं कहा था कि भूतनाथ ने जैसे-जैसे काम किये हैं उनके बदले में उसे मुंहमांगा इनाम देना चाहिए और क्या इस बात को महाराज ने भी स्वीकार नहीं किया था?
भूत - ठीक है, तो इस कहने से शायद आपका मतलब यह है कि मुंहमांगा इनाम के बदले में मैं उस सन्दूकड़ी को भी पा सकता हूं?
बलभद्र - बेशक ऐसा ही है और उन नकाबपोशों ने भी इसी खयाल से वह बात कही थी मगर अब यह सोचना चाहिए कि मुकद्दमा तै होने के पहिले मांगने का मौका क्योंकर मिल सकता है।
भूत - मेरे दिल ने भी उस समय यही कहा था, मगर दो बातों के खयाल से मुझे प्रसन्न होने का समय नहीं मिलता।
बलभद्र - वह क्या?
भूत - एक तो यही कि मुकद्दमा होने के पहिले इनाम में उस सन्दूकड़ी के मांगने का मौका मुझे मिलेगा या नहीं। और दूसरे यह कि नकाबपोश ने उस समय यह बात सच्चे दिल से कही थी या केवल जैपाल को सुनाने की नीयत से। साथ ही इसके एक बात और भी है।
बलभद्र - वह भी कह डालो।
भूत - आज आखिरी मर्तबे दूसरे नकाबपोश ने जो सूरत दिखाई थी उसके बारे में मुझे कुछ भ्रम - सा होता है। शायद मैंने उसे कभी देखा है मगर कहां और क्योंकर सो नहीं कह सकता।
बलभद्र - हां, उस सूरत के बारे में तो अभी तक मैं भी गौर कर रहा हूं मगर अक्ल तब तक कुछ ठीक काम नहीं कर सकती जब तक उन नकाबपोशों का कुछ हाल मालूम न हो जाय।
भूत - मेरी तो यही इच्छा होती है कि उनका असल हाल जानने के लिए उद्योग करूं बल्कि कल मैं अपने आदमियों को इस काम के लिए मुस्तैद भी कर चुका हूं।
बलभद्र - अगर कुछ पता लग सका तो बहुत ही अच्छी बात है, सच तो यों है कि मेरा दिल भी खुटके से खाली नहीं है।
भूत - इस समय से संध्या तक और इसके बाद रात भर मुझे छुट्टी है, यदि आप आज्ञा दें तो मैं इस फिक्र में जाऊं।
बलभद्र - कोई चिन्ता नहीं, तुम जाओ, अगर महाराज का कोई आदमी खोजने आवेगा तो मैं जवाब दे लूंगा।
भूत - बहुत अच्छा।
इतना कहकर भूतनाथ उठा और अपने दोनों आदमियों में से एक को साथ लेकर मकान के बाहर हो गया।