अठारहवें भाग के अन्त में हम इन्द्रानी और आनन्दी का मारा जाना लिख आये हैं और यह भी लिख चुके हैं कि कुमार के सवाल करने पर नानक ने अपना दोष स्वीकार किया और कहा - ''इन दोनों को मैंने ही मारा है और इनाम पाने का काम किया है, ये दोनों बड़ी ही शैतान थीं।''
एक तो इनके मारे जाने ही से दोनों कुमार दुःखी हो रहे थे, दूसरे नानक के इस उद्दण्डता के साथ जवाब देने ने उन्हें अपने आपे से बाहर कर दिया। कुंअर आनन्दसिंह ने तलवार के कब्जे पर हाथ रखकर बड़े भाई की तरफ देखा अर्थात् इशारे ही में पूछा कि यदि आज्ञा हो तो नानक को दो टुकड़े कर दिया जाय। कुंअर आनन्दसिंह के इस भाव को नानक भी समझ गया और हंसता हुआ बोला, ''आश्चर्य है कि आपके दुश्मनों को मारकर भी मैं दोषी ठहराया जाता हूं।''
इन्द्रजीत - क्या ये दोनों हमारी दुश्मन थीं?
नानक - बेशक।
इन्द्रजीत - इसका सबूत क्या है?
नानक - केवल ये दोनों लाशें।
इन्द्रजीत - इसका क्या मतलब?
नानक - यही कि इन दोनों का चेहरा साफ करने पर आपको मालूम हो जायगा कि ये दोनों वास्तव में मायारानी और माधवी थीं।
इन्द्रजीत - (चौंककर ताज्जुब से) हैं, मायारानी और माधवी!!
नानक - (बात पर जोर देकर) जी हां, मायारानी और माधवी!
इन्द्रजीत - (आश्चर्य और क्रोध से बूढ़े दारोगा की तरफ देखकर) आप सुनते हैं नानक क्या कह रहा है?
दारोगा - नहीं कदापि नहीं, नानक झूठा है।
नानक - (लापरवाही से) कोई हर्ज नहीं, यदि कुमार चाहेंगे तो बहुत जल्द मालूम हो जायेगा कि झूठा कौन है।
दारोगा - बेशक, कोई हर्ज नहीं, मैं अभी बावली में से जल लाकर और इनका चेहरा धोकर अपने को सच्चा साबित करता हूं।
इतना कहकर दारोगा जोश दिखाता हुआ बावली की तरफ चला गया और फिर लौटकर न आया।
पाठक, आप समझ सकते हैं कि नानक की बातों ने कुंअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के कोमल कलेजों के साथ कैसा बर्ताव किया होगा आनन्दी और इन्द्रानी वास्तव में मायारानी और माधवी हैं इस बात ने दोनों कुमारों को हद से ज्यादे बेचैन कर दिया और दोनों अपने किए पर पछताते हुए क्रोध और लज्जाभरी निगाहों से बराबर एक-दूसरे को देखते हुए मन में सोचने लगे कि 'हाय, हम दोनों से कैसी भूल हो गई! यदि कहीं यह हाल कमलिनी और लाडिली तथा किशोरी और कामिनी को मालूम हो गया तो क्या वे सब मारे तानों के हम लोगों के कलेजों को छलनी न कर डालेंगी। अफसोस, उस बुड्ढे दारोगा ही ने नहीं बल्कि हमारे सच्चे साथी भैरोसिंह ने भी हमारे साथ दगा की। उसने कहा था कि इन्द्रानी ने मेरी सहायता की थी इत्यादि पर यह कदापि सम्भव नहीं कि मायारानी भैरोसिंह की सहायता करे। अफसोस, क्या अब यह जमाना आ गया कि सच्चे ऐयार भी अपने मालिकों के साथ दगा करें।'
कुछ देर तक इसी तरह की बातें दोनों कुमार सोचते और दारोगा के आने का इन्तजार करते रहे। आखिर आनन्दसिंह ने अपने बड़े भाई से कहा, ''मालूम होता है कि वह कम्बख्त बुड्ढा दारोगा डर के मारे भाग गया, यदि आज्ञा हो तो मैं जाकर पानी लाने का उद्योग करूं।'' इसके जवाब में कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने पानी लाने का इशारा किया और आनन्दसिंह बावली की तरफ रवाना हुए।
थोड़ी ही देर में कुंअर आनन्दसिंह अपना पटुका पानी से तर कर ले आए और यह कहते हुए इन्द्रजीतसिंह के पास पहुंचे - ''बेशक दारोगा भाग गया।''
उसी पटुके के जल से दोनों लाशों का चेहरा साफ किया गया और उसी समय मालूम हो गया कि नानक ने जो कुछ कहा सब सच है, अर्थात् वे दोनों लाशें वास्तव में मायारानी तथा माधवी की ही हैं।
अब दोनों भाइयों के रंज और गम का कोई हद न रहा। सकते की हालत में खड़े हुए पत्थर की मूरत की तरह वे उन दोनों लाशों की तरफ देख रहे थे। कुछ देर के बाद कुंअर आनन्दसिंह ने एक लम्बी सांस लेकर कहा, ''वाह रे भैरोसिंह, जब तुम्हारा यह हाल है तब हम लोग किस पर भरोसा कर सकते हैं!''
इसके जवाब में पीछे की तरफ से आवाज आई, ''भैरोसिंह ने क्या कसूर किया है जो आप उस पर आवाज कस रहे हैं!''
दोनों कुमारों ने घूमकर देखा तो भैरोसिंह पर निगाह पड़ी। भैरोसिंह ने पुनः कहा, ''जिस दिन आप इस बात को सिद्ध कर देंगे कि भैरोसिंह ने आपके साथ दगा की उस दिन जीते-जी भैरोसिंह को इस दुनिया में कोई भी न देख सकेगा।''
इन्द्रजीत - आशा तो ऐसी ही थी मगर आजकल तुम्हारे मिजाज में कुछ फर्क आ गया है।
भैरो - कदापि नहीं।
इन्द्रजीत - अगर ऐसा न होता तो तुम बहुत-सी बातें मुझसे छिपाकर मुझे आफत में न डालते।
भैरो - (कुमार के पास जाकर) मैंने कोई बात आपसे नहीं छिपाई और जो कुछ आप समझे हुए हैं वह आपका भ्रम है।
इन्द्रजीत - क्या तुमने नहीं कहा था कि इन्द्रानी तुम्हें इस तिलिस्म में मिली थी और उसने तुम्हारी सहायता की थी?
भैरो - कहा था और बेशक कहा था।
इन्द्रजीत - (उन दोनों लाशों की तरफ इशारा करके) फिर यह क्या मामला है तुम देख रहे हो कि ये किसकी लाशें हैं?
भैरो - मैं जानता हूं कि ये मायारानी और माधवी की लाशें हैं जो नानक के हाथ से मारी गई हैं, मगर इससे मेरा कोई कसूर साबित नहीं होता और न मेरी बात ही झूठी होती है। सम्भव है कि इन दोनों ने जिस तरह आपको धोखा दिया उसी तरह आपका मित्र और साथी समझकर मुझे भी धोखा दिया हो।
इन्द्रजीत - (कुछ सोचकर) खैर, एक नहीं, मैं और भी कई बातों में तुम्हें झूठा साबित करूंगा।
भैरो - दिल्लगी के शब्दों को छोड़कर आप मेरी एक बात भी झूठी साबित नहीं कर सकते।
इन्द्रजीत - सो सब-कुछ नहीं, इन पेचीली बातों को छोड़कर तुम्हें साफ-साफ मेरी बातों का जवाब देना होगा।
भैरो - मैं बहुत साफ-साफ आपकी बातों का जवाब दूंगा, आपको जो कुछ पूछना हो पूछें।
इन्द्रजीत - तुम हम लोगों से विदा होकर कहां गए थे, अब कहां से आ रहे हो, और इन लाशों की खबर तुम्हें कैसे मिली?
भैरो - आप तो एक साथ बहुत से सवाल कर गए जिनका जवाब मुख्तसर में हो ही नहीं सकता। बेहतर होगा कि आप यहां से चलकर उस कमरे में या और किसी ठिकाने बैठें और जो कुछ मैं जवाब देता हूं उसे गौर से सुनें। मुझे पूरा यकीन है कि निःसन्देह आप लोगों के दिल का खुटका निकल जायगा और आप लोग मुझे बेकसूर समझेंगे, इतना ही नहीं मैं और भी कई बातें आपसे कहूंगा।
इन्द्रजीत - इन दोनों लाशों को और नानक को यों ही छोड़ दिया जाय?
भैरो - क्या हर्ज है अगर यों ही छोड़ दिया जाय!
नानक - जबकि मैंने आप लोगों के साथ किसी तरह की बुराई नहीं की है तो फिर मुझे इस बेबसी की हालत में क्यों छोड़े जाते हैं यदि मुझे कुछ इनाम न मिले तो कम-से-कम कैद से तो छुट्टी मिल जाय।
इन्द्रजीत - ठीक है, मगर अभी हमें यह मालूम होना चाहिए कि तू इस तिलिस्म के अन्दर क्योंकर और किस नीयत से आया था, क्योंकि अभी उसी बाग में तेरी बदनीयती का हाल मालूम हो चुका जब दारोगा ने तुझे पकड़ा था।
नानक - मगर आपको दारोगा की बदनीयती का हाल भी तो मालूम हो चुका है।
भैरो - इस पचड़े से हमें कोई मतलब नहीं, अभी राजा गोपालसिंह का आदमी इसको लेने के लिए आता होगा। इसे उसके हवाले कर दीजिएगा।
इन्द्र - अगर ऐसा हो तो बहुत अच्छी बात है, मगर क्या तुमको ठीक मालूम है कि राजा गोपालसिंह का आदमी आयेगा क्या इस मामले की खबर उन्हें लग गई है?
भैरो - जी हां।
इन्द्र - क्योंकर?
भैरो - सो तो मैं नहीं जानता मगर कमलिनी की जुबानी जो कुछ सुना है वह कहता हूं।
इन्द्र - तो क्या तुमसे और कमलिनी से मुलाकात हुई थी इस समय वे सब कहां हैं?
भैरो - जी हां हुई थी और मैं आपकी मुलाकात उन लोगों से करा सकता हूं। (हाथ का इशारा करके) वे सब उस तरफ वाले बाग में हैं, और इस समय मैं उन्हीं के साथ था (रुककर और सामने की तरफ देखकर), वह देखिए राजा गोपालसिंह का आदमी आ पहुंचा।
दोनों भाइयों ने ताज्जुब के साथ उस तरफ देखा, वास्तव में एक आदमी आ रहा था जिसने पास पहुंचकर एक चीठी इन्द्रजीतसिंह के हाथ में दी और कहा, ''मुझे राजा गोपालसिंह ने आपके पास भेजा है।''
इन्द्रजीतसिंह ने उस चीठी को बड़े गौर से देखा। राजा गोपालसिंह का हस्ताक्षर और खास निशान भी पाया। जब निश्चय हो गया कि यह चीठी राजा गोपालसिंह ही की लिखी है तब पढ़के आनन्दसिंह को दे दिया। उस पत्र में केवल इतना लिखा हुआ था -
''आप नानक तथा मायारानी और माधवी की लाश को इस आदमी के हवाले करके अलग हो जायं और जहां तक जल्दी हो सके तिलिस्म का काम पूरा करें।''
इन्द्रजीतसिंह ने उस आदमी से कहा, ''नानक और ये दोनों लाशें तुम्हारे सुपुर्द हैं, तुम जो मुनासिब समझो करो मगर राजा गोपालसिंह को कह देना कि कल तक वह इस बाग में मुझसे जरूर मिल लें'' इसके जवाब में उस आदमी ने ''बहुत अच्छा'' कहा और दोनों कुमार तथा भैरोसिंह वहां से रवाना होकर बावली पर आए। तीनों ने उस बावली में स्नान करके अपने कपड़े सूखने के लिए पेड़ों पर फैला दिए और इसके बाद ऊपर वाले चबूतरे पर बैठकर बातचीत करने लगे।