दूसरे दिन तेजसिंह को उसी तिलिस्मी इमारत में छोड़कर और जीतसिंह को साथ लेकर राजा वीरेन्द्रसिंह अपने पिता से मिलने के लिए चुनार गए। मुलाकात होने पर वीरेन्द्रसिंह ने पिता के पैरों पर सिर रक्खा और उन्होंने आशीर्वाद देने के बाद बड़े प्यार से उठाकर छाती से लगाया और सफर का हाल-चाल पूछने लगे।
राजा साहब की इच्छानुसार एकान्त हो जाने पर वीरेन्द्रसिंह ने सब हाल अपने पिता से बयान किया जिसे वे बड़ी दिलचस्पी के साथ सुनते रहे। इसके बाद पिता के साथ ही साथ महल में जाकर अपनी माता से मिले और संक्षेप में सब हाल कहकर बिदा हुए तब चन्द्रकान्ता के पास गए और उसी जगह चपला तथा चम्पा से मिलकर देर तक अपने सफर का दिलचस्प हाल कहते रहे।
दूसरे दिन राजा वीरेन्द्रसिंह अपने पिता के पास एकान्त में बैठे हुए बातों में राय ले रहे थे जब जमानिया से आये हुए एक सवार की इत्तिला मिली जो राजा गोपालसिंह की चीठी लाया था। आज्ञानुसार वह हाजिर किया गया, सलाम करके उसने राजा गोपालसिंह की चीठी दी और तब बिदा लेकर बाहर चला गया।
यह चीठी जो राजा गोपालसिंह ने भेजी थी नाम ही को चीठी थी। असल में यह एक ग्रंथ ही मालूम होता था जिसमें राजा गोपालसिंह ने दोनों कुमार, किशोरी, कामिनी, सर्यू, तारा, मायारानी और माधवी इत्यादि का खुलासा किस्सा जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं और जो राजा वीरेन्द्रसिंह को अभी मालूम नहीं हुआ था तथा अपने यहां का भी कुछ हाल लिख भेजा था और साथ ही यह भी लिखा था कि 'आप लोग उसी खण्डहर वाली नई इमारत में रहकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के मिलने का इन्तजार करें' इत्यादि।
राजा सुरेन्द्रसिंह को यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि हम और राजा गोपालसिंह असल में एक ही खानदान की यादगार हैं और इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह से भी अब बहुत जल्द मुलाकात हुआ चाहती है, अस्तु यह बात तै पाई कि सब कोई उसी तिलिस्मी खण्डहर वाली नई इमारत में चलकर रहें और उसी जगह भूतनाथ का हाल-चाल मालूम करें। आखिर ऐसा ही हुआ अर्थात् राजा सुरेन्द्रसिंह, वीरेन्द्रसिंह, महारानी चन्द्रकान्ता, चपला और चम्पा वगैरह सभों की सवारी वहां आ पहुंची और मायारानी, दारोगा तथा और कैदियों को भी उसी जगह लाकर रखने का इन्तजाम किया गया।
हम बयान कर चुके हैं कि इस तिलिस्मी खंडहर के चारों तरफ अब बहुत बड़ी इमारत बनकर तैयार हो गई है जिसके बनवाने में जीतसिंह ने अपनी बुद्धिमानी का नमूना बड़ी खूबी के साथ दिखाया है, इत्यादि। अस्तु इस समय इन लोगों को यहां ठहरने में तकलीफ किसी तरह की नहीं हो सकती थी बल्कि हर तरह का आराम था।
पश्चिमी तरफ वाली इमारत के ऊपर वाले खंडों में कोठरियों और बालाखानों के अतिरिक्त बड़े-बड़े कमरे थे जिनमें से चार कमरे इस समय बहुत अच्छी तरह सजाए गये थे और उनमें महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह का डेरा था। यहां भूतनाथ के डेरे वाला बारह नम्बर का कमरा ठीक सामने पड़ता था और वह तिलिस्मी चबूतरा भी यहां से उतना ही साफ दिखाई देता था जितना भूतनाथ के डेरे से।
इन कमरों के पिछले हिस्से में बाकी लोगों का डेरा था और बचे हुए ऐयारों को इमारत के बाहरी हिस्से में स्थान मिला था और उस तरफ थोड़े से फौजी सिपाहियों और शागिर्दपेशे वालों को जगह दी गई थी।
इस जगह राजा साहब और जीतसिंह तथा तेजसिंह के भी आ जाने से भूतनाथ तरद्दुद में पड़ गया और सोचने लगा कि 'उस तिलिस्मी चबूतरे के अन्दर से निकलकर मुझसे मुलाकात करने वाले या बलभद्रसिंह को ले जाने वाले आदमियों का हाल कहीं राजा साहब या उनके ऐयारों को मालूम न हो जाय और मैं एक नई आफत में फंस जाऊं क्योंकि उनका पुनः चबूतरे के नीचे से निकलकर मुझसे मिलने आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है।'
रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है। राजा वीरेन्द्रसिंह अपने कमरे के बाहर बरामदे में फर्श पर बैठ अपने मित्र तेजसिंह से धीरे-धीरे कुछ बातें कर रहे हैं। कमरे के अन्दर इस समय एक हलकी रोशनी हो रही है सही, मगर कमरे का दरवाजा घूमा रहने के सबब यह रोशनी वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह तक नहीं पहुंच रही थी जिससे ये दोनों एक प्रकार से अंधकार में बैठे हुए थे और दूर से इन दोनों को कोई देख नहीं सकता था। नीचे बाग में लोहे के बड़े-बड़े खम्भों पर लालटेन जल रही थीं फिर भी बाग की घनी सब्जी और लताओं का सहारा उसमें छिपकर घूमने वालों के लिए कम न था। उस दालान में भी कंदील जल रही थी जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था और इस समय राजा वीरेन्द्रसिंह की निगाह भी जो तेजसिंह से बात कर रहे थे उसी तिलिस्मी चबूतरे की तरफ ही थी।
यकायक चबूतरे के निचले हिस्से में रोशनी देखकर राजा वीरेन्द्रसिंह को ताज्जुब हुआ और उन्होंने तेजसिंह का ध्यान भी उसी तरफ दिलाया। उस रोशनी के सबब से साफ मालूम होता था कि चबूतरे का अगला हिस्सा (जो वीरेन्द्रसिंह की तरफ पड़ता था) किवाड़ के पल्ले की तरह खुलकर जमीन के साथ लग गया है और दो आदमी एक गठरी लटकाये हुए चबूतरे से बाहर की तरफ ला रहे हैं। उन दोनों के बाहर आने के साथ ही चबूतरे के अन्दर वाली रोशनी बन्द हो गई और उन दोनों में से एक ने दूसरे के कंधे पर चढ़कर वह कंदील भी बुझा दी जो उस दालान में जल रही थी।
कंदील बुझ जाने से वहां अंधकार हो गया और इसके बाद मालूम न हुआ कि वहां क्या हुआ या क्या हो रहा है। तेजसिंह और वीरेन्द्रसिंह उसी समय उठ खड़े हुए और हाथ में नंगी तलवार लिए तथा एक आदमी को लालटेन लेकर वहां जाने की आज्ञा देकर उस दालान की तरफ रवाना हुए जिसमें तिलिस्मी चबूतरा था, मगर वहां जाकर सिवाय एक गठरी के जो उसी चबूतरे के पास पड़ी हुई थी और कुछ नजर न आया। जब आदमी लालटेन लेकर वहां पहुंचा तो तेजसिंह ने अच्छी तरह घूमकर जांच की मगर नतीजा कुछ भी न निकला, न तो यहां कोई आदमी दिखाई दिया और न उस चबूतरे ही में किसी तरह के निशान या दरवाजे का पता लगा।
तेजसिंह ने वह गठरी खोली तो एक आदमी पर निगाह पड़ी। लालटेन की रोशनी में बड़े गौर से देखने पर भी तेजसिंह या वीरेन्द्रसिंह उसे पहिचान न सके, अस्तु तेजसिंह ने उसी समय जफील बजाई जिसे सुनते ही कई सिपाही और खिदमतगार वहां इकट्ठे हो गये। इसके बाद वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस आदमी को उठवाकर राजा सुरेन्द्रसिंह के पास ले आए जो इस समय का शोरगुल सुनकर जाग चुके थे और जीतसिंह को अपने पास बुलवाकर कुछ बातें कर रहे थे।
उस बेहोश आदमी पर निगाह पड़ते ही जीतसिंह पहिचान गये और बोल उठे - ''यह तो बलभद्रसिंह है!''
वीरेन्द्र - (ताज्जुब से) हैं, यही बलभद्रसिंह हैं जो यहां से गायब हो गये थे!
जीत - हां यही हैं, ताज्जुब नहीं कि जिस अनूठे ढंग से यहां पहुंचाये गये हैं उसी ढंग से गायब भी हुए हों।
सुरेन्द्र - जरूर ऐसा ही हुआ होगा, भूतनाथ पर व्यर्थ शक किया जाता था। अच्छा अब इन्हें होश में लाने की फिक्र करो और भूतनाथ को बुलाओ।
तेज - जो आज्ञा।
सहज ही में बलभद्रसिंह चैतन्य हो गये और तब तक भूतनाथ भी वहां आ पहुंचा। राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तेजसिंह को सलाम करने के बाद भूतनाथ बैठ गया और बलभद्रसिंह से बोला -
भूत - कहिये कृपानिधान आप कहां छिप गये थे और कैसे प्रकट हो गये सभी को मुझ पर सन्देह हो रहा है।
पाठक, इसके जवाब में बलभद्रसिंह ने यह नहीं कहा कि 'तुम्हीं ने तो मुझे बेहोश किया था' जिसके सुनने की शायद आप इस समय आशा करते होंगे बल्कि बलभद्रसिंह ने यह जवाब दिया कि ''नहीं भूतनाथ, तुम पर कोई क्यों शक करेगा तुमने ही तो मेरी जान बचाई है और तुम्हीं मेरे साथ दुश्मनी करोगे ऐसा भला कौन कह सकता है?'
तेज - खैर यह बताइये कि आपको कौन ले गया था और कैसे ले गया था?
बल - इसका पता तो मुझे भी अभी तक नहीं लगा कि वे कौन थे जिनके पाले मैं पड़ गया था, हां जो कुछ मुझ पर बीती है उसे अर्ज कर सकता हूं मगर इस समय नहीं क्योंकि मेरी तबीयत कुछ खराब हो रही है, आशा है कि अगर मैं दो-तीन घंटे सो सकूंगा तो सुबह तक ठीक हो जाऊंगा।
सुरेन्द्र - कोई चिन्ता नहीं, आप इस समय जाकर आराम कीजिए।
जीत - यदि इच्छा हो तो अपने उसी पुराने डेरे में भूतनाथ के पास रहिए नहीं तो कहिए आपके लिए दूसरे डेरे का इन्तजाम कर दिया जाय।
बलभद्र - जी नहीं, मैं अपने मित्र भूतनाथ के साथ ही रहना पसन्द करता हूं।
बलभद्रसिंह को साथ लिए भूतनाथ अपने डेरे की तरफ रवाना हुआ। इधर राजा सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह उस तिलिस्मी चबूतरे तथा बलभद्रसिंह के बारे में बातचीत करने लगे तथा अन्त में यह निश्चय किया कि बलभद्रसिंह जो कुछ कहेंगे उस पर भरोसा न करके अपनी तरफ से इस बात का पता लगाना चाहिए कि उस तिलिस्मी चबूतरे की राह से आने-जाने वाले कौन हैं। उस दालान में ऐयारों का गुप्त पहरा मुकर्रर करना चाहिए।