नकाबपोशों के चले जाने के बाद जब केवल घर वाले ही वहां रह गये तब राजा वीरेन्द्रसिंह ने अपने पिता से तारासिंह की बाबत जो कुछ हाल हम ऊपर लिख आये हैं कुछ घटा-बढ़ाकर बयान किया और इसके बाद कहा, ''तारासिंह नकाबपोशों के सामने ही लौटकर आ गया था जिससे अभी तक यह पूछने का मौका न मिला कि वह कहां गया था और वह तस्वीर उसे कहां से मिली थी जो उसने अपनी मां को दी थी।''
इतना कहकर वीरेन्द्रसिंह चुप हो गये और देवीसिंह ने वह कपड़े वाली तस्वीर (जो चम्पा ने दी थी) महाराज सुरेन्द्रसिंह के सामने रख दी। सुरेन्द्रसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा और इसके बाद तारासिंह से पूछा -
सुरेन्द्र - निःसन्देह यह तस्वीर किसी अच्छे कारीगर के हाथ की बनी हुई है, यह तुम्हें कहां से मिली?
तारा - मैं स्वयं इस तस्वीर का हाल अर्ज करने वाला था, परन्तु इसके सम्बन्ध की कई ऐसी बातों को जानना आवश्यक था जिनके बिना इसका पूरा भेद मालूम नहीं हो सकता, अतएव मैं उन्हीं बातों के जानने की फिक्र में पड़ा हुआ था और इसी सबब से अभी तक कुछ अर्ज करने की नौबत नहीं आई।
तेज - तो क्या तुम्हें इसका पूरा-पूरा भेद मालूम हो गया।
तारा - जी नहीं, मगर कुछ-कुछ जरूर मालूम हुआ है?
तेज - तो इस काम में तुमने अपने साथियों से मदद क्यों नहीं ली?
तारा - अभी तक मदद की जरूरत नहीं पड़ी थी, मगर, हां अब मदद लेनी पड़ेगी!
वीरेन्द्र - खैर, बताओ कि इस तस्वीर को तुमने क्योंकर पाया?
तारा - (इधर-उधर देखकर) भूतनाथ की स्त्री से।
तारासिंह की इस बात को सुनकर सब कोई चौंक पड़े खासकर देवीसिंह को तो बड़ा ही ताज्जुब हुआ और उसने हैरत की निगाह से अपने लड़के तारासिंह की तरफ देखकर पूछा -
देवी - भूतनाथ की स्त्री तुम्हें कहां मिली?
तारा - उसी जंगल में जिसमें आपने और भूतनाथ ने उसे देखा था, बल्कि उसी झोंपड़ी में जिसमें भूतनाथ और आप उसके साथ गये थे और लाचार होकर लौट आये थे। आपको यह सुनकर ताज्जुब होगा कि वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री ही थी।
देवी - (आश्चर्य से) हैं, क्या वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी।
तारा - जी हां, आप और भूतनाथ नकाबपोशों के फेर में यद्यपि कई दिनों तक परेशान हुए परन्तु उतना हाल मालूम न कर सके जितना मैं जान आया हूं।
इस समय दरबार में आपस वालों के सिवाय कोई गैर आदमी ऐसा न था जिसके सामने इस तरह की बातों के कहने-सुनने में किसी तरह का खयाल होता अतएव बड़ी उत्कण्ठा के साथ सब कोई तारासिंह की बातें सुनने के लिए तैयार हो गये और देवीसिंह का तो कहना ही क्या जिनका दिल तूफान में पड़े हुए जहाज की तरह हिंडोले खा रहा था। उन्हें यकायक यह खयाल पैदा हुआ कि अगर वह वास्तव में भूतनाथ की स्त्री थी तो दूसरी औरत भी जरूर चम्पा ही रही होगी जिसे नकाबपोशों के मकान में देखा गया था। अस्तु बड़े ताज्जुब के साथ अपने लड़के तारासिंह से पूछा, ''क्या तुम बता सकते हो कि जिन दो औरतों को हमने नकाबपोशों के मकान में देखा था, वे कौन थीं'
तारा - उनमें से एक तो जरूर भूतनाथ की स्त्री थी मगर दूसरी के बारे में अभी तक कुछ पता नहीं लगा।
देवी - (कुछ सोचकर) दूसरी भी तुम्हारी मां होगी?
तारा - शायद ऐसा हो मगर विश्वास नहीं होता।
तेज - तुम्हें यह कैसे निश्चय हुआ कि वास्तव में वह भूतनाथ की स्त्री थी?
तारा - उसने स्वयं भूतनाथ की स्त्री होना स्वीकार किया बल्कि और भी बहुत-सी बातें ऐसी कहीं जिससे किसी तरह का शक नहीं रहा।
देवी - और तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि नकाबपोशों के घर जाकर हम लोगों ने किसे देखा या जंगल में भूतनाथ की स्त्री हम लोगों को मिली थी और हम लोग उसके पीछे-पीछे एक झोंपड़ी में जाकर सूखे हाथ लौट आये थे?
तारा - यह सब हाल मुझे बखूबी मालूम है और उस समय मैं भी उसी जंगल में था जिस समय आपने भूतनाथ की स्त्री को देखा था और उसके पीछे-पीछे गये थे। इस समय आप यह सुनकर और ताज्जुब करेंगे कि आपसे अलग होकर भूतनाथ ने उसी दिन अर्थात् कल संध्या के समय उन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार कर लिया जिनकी सूरत यहां दरबार में देखकर दारोगा और जैपाल बदहवास हो गये थे।
वीरेन्द्र - (ताज्जुब से) हैं! मगर वे दोनों नकाबपोश तो आज भी यहां आये थे जिनका जिक्र तुम कर रहे हो।
तारा - जी हां, उन्हें तो मैं अपनी आंखों ही से देख चुका हूं, मगर मेरे कहने का मतलब यह है कि भूतनाथ ने कल जिन दोनों नकाबपोशों को गिरफ्तार किया है उनकी सूरतें ठीक वैसी ही हैं जैसी दारोगा और जैपाल ने यहां देखी थीं चाहे ये लोग हों कोई भी।
तेज - और भूतनाथ ने उन्हें गिरफ्तार कहां किया?
तारा - उसी खोह के मुहाने पर उसने उन्हें धोखा दिया जिसमें नकाबपोश लोग रहते थे।
देवी - मालूम होता है कि हम लोगों की तरह तुम भी कई दिनों से नकाबपोशों की खोज में पड़े हो?
तारा - खोज में नहीं बल्कि फेर में।
वीरेन्द्र - खैर तुम खुलासे तौर पर सब हाल बयान कर जाओ, इस तरह पूछने और कहने से काम नहीं चलेगा।
तारा - जो आज्ञा, मगर मेरा हाल कुछ बहुत लम्बा-चौड़ा नहीं, केवल इतना ही कहना है कि मैं भी पांच-सात दिन से उन नकाबपोशों के फेर में पड़ा हूं और इत्तिफाक से मैं भी उसी खोह के अन्दर जा पहुंचा जिसमें वे लोग रहते हैं। (कुछ सोचकर जीतसिंह की तरफ देखकर) अगर कोई हर्ज न हो तो दो घंटे के बाद मुझसे मेरा हाल पूछा जाय।
जीत - (महाराज की तरफ देखकर और कुछ इशारा पाकर) खैर कोई चिन्ता नहीं, मगर यह बताओ कि इन दो घण्टे के अन्दर तुम क्या काम करोगे?
तारा - कुछ भी नहीं, मैं केवल अपनी मां से मिलूंगा और स्नान-ध्यान से छुट्टी पा लूंगा।
देवी - (धीरे से) आजकल के लड़के भी कुछ विचित्र ही पैदा होते हैं, खास करके ऐयारों के।
इसके जवाब में तारासिंह ने अपने पिता की तरफ देखा और मुस्कुराकर सिर झुका लिया। यह बात देवीसिंह को कुछ बुरी मालूम हुई मगर बोलने का मौका न देखकर चुप रह गये।
तेज - (तारा से) आज जब हम लोग तुम्हारे न मिलने से परेशान थे तो हमारी परेशानी को देखकर नकाबपोशों ने कहा था कि तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि वह घंटे भर के अन्दर ही यहां आ पहुंचेगा, और वास्तव में हुआ भी ऐसा ही, तो क्या नकाबपोशों को तुम्हारा हाल मालूम था यह बात नकाबपोशों से भी पूछी गई थी मगर उन्होंने कुछ जवाब न दिया और कहा कि 'इसका जवाब तारा ही देगा।'
तारा - नकाबपोशों की सभी बातें ताज्जुब की होती हैं, मैं नहीं जानता कि उन्हें मेरा हाल क्योंकर मालूम हुआ।
तेज - क्या तुम्हें इस बात की खबर है कि इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने तुम्हें और भैरोसिंह को बुलाया है?
तारा - जी नहीं।
तेज - (कुमार की चीठी तारा को दिखाकर) लो इसे पढ़ो।
तारा - (चीठी पढ़कर) नकाबपोशों ही के हाथ यह चीठी आई होगी?
तेज - हां और उन्हीं नकाबपोशों के साथ तुम दोनों को जाना भी पड़ेगा?
तारा - जब मर्जी होगी हम दोनों चले जायंगे।
इसके बाद महाराज की आज्ञानुसार दरबार बर्खास्त हुआ और सब कोई अपने-अपने ठिकाने चले गये। तारासिंह भी महल में अपनी मां से मिलने के लिए चला गया और घंटे भर से ज्यादे देर तक उसके पास बैठा बातचीत करता रहा। इसके बाद जब महल से बाहर आया तो सीधे जीतसिंह के डेरे में चला गया और जब मालूम हुआ कि वे महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास गये हुए हैं तो खुद भी महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चला गया।
हम नहीं कह सकते कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, जीतसिंह और तारासिंह में देर तक क्या-क्या बातें होती रहीं, हां इसका नतीजा यह जरूर निकला कि तारासिंह को पुनः अपना हाल किसी से कहना न पड़ा अर्थात् महाराज ने उसे अपना हाल बयान करने से माफी दे दी और तारासिंह को भी जो कुछ कहना-सुनना था महाराज से ही कह-सुनकर छुट्टी पा ली। औरों को तो इस बात का ऐसा खयाल न हुआ मगर देवीसिंह को यह चालाकी बुरी मालूम हुई और उन्हें निश्चय हो गया कि तारासिंह और चम्पा दोनों मां-बेटे मिले हुए हैं और साथ ही इसके बड़े महाराज भी इस भेद को जानते हैं मगर ताज्जुब है कि ऐयारों पर प्रकट नहीं करते, इसका कोई-न-कोई सबब जरूर है, और तब देवीसिंह की हिम्मत न पड़ी कि अपने लड़के को कुछ कहें या डांटें।
दो घण्टे रात जा चुकी थी जब महाराज सुरेन्द्रसिंह ने वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को अपने पास बुलाया। उस समय जीतसिंह पहिले ही से महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास बैठे हुए थे, अस्तु जब दोनों आदमी वहां आ गये तो दो घण्टे तक तारासिंह के बारे में बातचीत होती रही और इसके बाद महाराज आराम करने के लिए पलंग पर चले गये। वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह अपने-अपने कमरे में चले आये।