''बेशक, बेशक'' की आवाज ने दोनों कुमारों को चौंका दिया। वह आवाज सर्यू की न थी और न किसी ऐसे आदमी की थी जिसे कुमार पहिचानते हों, यह सबब उनके चौंकने का और भी था। दोनों कुमारों को निश्चय हो गया कि यह आवाज उन्हीं नकाबपोशों में से किसी की है जो तिलिस्म के अन्दर लटकाये गये थे और जिन्हें हम लोग खोज रहे हैं। ताज्जुब नहीं कि सर्यू भी इन्हीं लोगों के सबब से गायब हो गई हो क्योंकि एक कमजोर औरत की बेहोशी हम लोगों की बनिस्बत जल्द दूर नहीं हो सकती।
दोनों भाइयों के विचार एक से थे अतएव दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा और इसके बाद इन्द्रजीतसिंह और उनके पीछे-पीछे आनन्दसिंह उस दरवाजे के अन्दर चले गए जिसमें किसी के बोलने की आवाज आई थी।
कुछ आगे जाने पर कुमार को मालूम हुआ कि रास्ता सुरंग के ढंग का बना हुआ है मगर बहुत छोटा और केवल एक ही आदमी के जाने लायक है अर्थात् इसकी चौड़ाई डेढ़ हाथ से ज्यादे नहीं है।
लगभग बीस हाथ जाने के बाद दूसरा दरवाजा मिला जिसे लांघकर दोनों भाई एक छोटे से बाग में गये जिसमें सब्जी की बनिस्बत इमारत का हिस्सा बहुत ज्यादे था अर्थात् उसमें कई दालान-कोठरियां और कमरे थे जिन्हें देखते ही इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ''इसके अन्दर थोड़े आदमियों का पता लगाना भी कठिन होगा।''
दोनों कुमार दो ही चार कदम आगे बढ़े थे कि पीछे से दरवाजे के बन्द होने की आवाज आई, घूमकर देखा तो उस दरवाजे को बन्द पाया जिसे लांघकर इस बाग में पहुंचे थे। दरवाजा लोहे का और एक ही पल्ले का था जिसने चूहेदानी की तरह ऊपर से गिरकर दरवाजे का मुंह बन्द कर दिया। उस दरवाजे के पल्ले पर मोटे-मोटे अक्षरों में यह लिखा हुआ था -
''तिलिस्म का यह हिस्सा टूटने लायक नहीं है, हां तिलिस्म को तोड़ने वाला यहां का तमाशा जरूर देख सकता है।''
इन्द्रजीत - यद्यपि तिलिस्मी तमाशे दिलचस्प होते हैं मगर हमारा यह समय बड़ा नाजुक है और तमाशा देखने योग्य नहीं क्योंकि तरह-तरह के तरद्दुदों ने दुःखी कर रक्खा है। देखा चाहिए इस तमाशाबीनी से छुट्टी कब मिलती है।
आनन्द - मेरा भी यही खयाल है बल्कि मुझे तो इस बात का अफसोस है कि इस बाग में क्यों आए, अगर किसी दूसरे दरवाजे के अन्दर गये होते तो अच्छा होता।
इन्द्रजीत - (कुछ आगे बढ़कर ताज्जुब से) देखो तो सही उस पेड़ के नीचे कौन बैठा है! कुछ पहिचान सकते हो?
आनन्द - यद्यपि पोशाक में बहुत बड़ा फर्क है मगर सूरत भैरोसिंह की-सी मालूम पड़ती है!
इन्द्रजीत - मेरा भी यही खयाल है, आओ इसके पास चलकर देखें।
आनन्द - चलिये।
इस बाग के बीचोंबीच में एक कदम्ब का बहुत बड़ा पेड़ था जिसके नीचे एक आदमी गाल पर हाथ रक्खे बैठा हुआ कुछ सोच रहा था। उसी को देखकर दोनों कुमार चौंके थे और उस पर भैरोसिंह के होने का शक हुआ था। जब दोनों भाई उसके पास पहुंचे तो शक जाता रहा और अच्छी तरह पहिचानकर इन्द्रजीतसिंह ने पुकारा और कहा, ''क्यों यार भैरोसिंह, तुम यहां कैसे आ पहुंचे?'
बस आदमी ने सिर उठाकर ताज्जुब से दोनों कुमारों की तरफ देखा और तब हलकी आवाज में जवाब दिया, ''तुम दोनों कौन हो मैं तो सात वर्ष से यहां रहता हूं मगर आज तक किसी ने भी मुझसे यह न पूछा कि तुम यहां कैसे आ पहुंचे?'
आनन्द - कुछ पागल तो नहीं हो गये हो?
इन्द्रजीत - क्योंकि तिलिस्म की हवा बड़े-बड़े चालाकों और ऐयारों को पागल बना देती है!
भैरो - (शायद वह भैरोसिंह ही हो) कदाचित् ऐसा ही हो मगर मुझे आज तक किसी ने यह भी नहीं कहा कि तू पागल हो गया है! मेरी स्त्री भी यहां रहती है। वह भी मुझे बुद्धिमान ही समझती है।
आनन्द - (मुस्कराकर) तुम्हारी स्त्री कहां है उसे मेरे सामने बुलाओ, मैं उससे पूछूंगा कि वह तुम्हें पागल समझती है या नहीं।
भैरो - वाह-वाह, तुम्हारे कहने से मैं अपनी स्त्री को तुम्हारे सामने बुला लूं! कहीं तुम उस पर आशिक हो जाओ या वही तुम पर मोहित हो जाय तो क्या हो?
इन्द्रजीत - (हंसकर) वह भले ही मुझ पर आशिक हो जाय मगर मैं वादा करता हूं कि उस पर मोहित न होऊंगा।
भैरो - सम्भव है कि मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास कर लूं मगर उसकी नौजवानी मुझे उस पर विश्वास नहीं करने देती। अच्छा ठहरो, मैं उसे बुलाता हूं। अरी ए री मेरी नौजवान स्त्री भोली ई...ई...ई...!!
एक तरफ से आवाज आई, ''मैं आप ही चली आ रही हूं, तुम क्यों चिल्ला रहे हो कम्बख्त को जब देखो 'भोली भोली' करके चिल्लाया करता है!''
भैरो - देखो कम्बख्त को! साठ घड़ी में एक पल भी सीधी तरह से बात नहीं करती, खैर नौजवान औरतें ऐसी हुआ ही करती हैं!
इतने में दोनों कुमारों ने देखा कि बाईं तरफ से एक नब्बे वर्ष की बुढ़िया छड़ी टेकती धीरे-धीरे चली आ रही है जिसे देखते ही भैरोसिंह उठा और यह कहता हुआ उसकी तरफ बढ़ा, ''आओ मेरी प्यारी भोली, तुम्हारी नौजवानी तुम्हें अकड़कर चलने नहीं देती तो मैं अपने हाथों का सहारा देने के लिए तैयार हूं।''
भैरोसिंह ने बुढ़िया को हाथ का सहारा देकर अपने पास ला बैठाया और आप भी उसी जगह बैठकर बोला, ''मेरी प्यारी भोली, देखो ये दो नये आदमी आज यहां आये हैं जो मुझे पागल बताते हैं। तू ही बता कि क्या मैं पागल हूं?'
बुढ़िया - राम-राम, ऐसा भी कभी हो सकता है मैं अपनी नौजवानी की कसम खाकर कहती हूं कि तुम्हारे ऐसे बुद्धिमान बुड्ढे को पागल कहने वाला स्वयं पागल है! (दोनों कुमारों की तरफ देखकर) ये दोनों उजड्ड यहां कैसे आ पहुंचे क्या किसी ने इन्हें रोका नहीं?
भैरो - मैंने इनसे अभी कुछ भी नहीं पूछा कि ये कौन हैं और यहां कैसे आ पहुंचे क्योंकि मैं तुम्हारी मुहब्बत में डूबा हुआ तरह-तरह की बातें सोच रहा था, अब तुम आई हो तो जो कुछ पूछना हो स्वयं पूछ लो।
बुढ़िया - (कुमारों से) तुम दोनों कौन हो?
भैरो - (कुमारों से) बताओ-बताओ, सोचते क्या हो आदमी हो, जिन्न हो, भूत हो, प्रेत हो, कौन हो, कहते क्यों नहीं! क्या तुम देखते नहीं कि मेरी नौजवान स्त्री को तुमसे बात करने में कितना कष्ट हो रहा है?
भैरोसिंह और उस बुढ़िया की बातचीत और अवस्था पर दोनों कुमारों को बड़ा ही आश्चर्य हुआ और कुछ सोचने के बाद इन्द्रजीतसिंह ने भैरोसिंह से कहा, ''अब मुझे निश्चय हो गया कि जरूर तुम्हें किसी ने इस तिलिस्म में ला फंसाया है और ऐसी चीज खिलाई या पिलाई है कि जिससे तुम पागल हो गए हो, ताज्जुब नहीं कि यह सब बदमाशी इसी बुढ़िया की हो, अब अगर तुम होश में न आओगे तो मैं तुम्हें मार-पीटकर होश में लाऊंगा।'' इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह भैरोसिंह की तरफ बढ़े, मगर उसी समय बुढ़िया ने यह कहकर चिल्लाना शुरू किया, ''दौड़ियो दौड़ियो, हाय रे, मारा रे, मारा रे, चोर चोर, डाकू डाकू, दौड़ो दौड़ो, ले गया, ले गया, ले गया!''
बुढ़िया चिल्लाती रही मगर कुमार ने उसकी एक भी न सुनी और भैरोसिंह का हाथ पकड़के अपनी तरफ खेंच ही लिया, मगर बुढ़िया का चिल्लाना भी व्यर्थ न गया। उसी समय चार-पांच खूबसूरत लड़के दौड़ते हुए वहां आ पहुंचे जिन्होंने दोनों कुमारों को चारों तरफ से घेर लिया। उन लड़कों के गले से छोटी-छोटी झोलियां लटक रही थीं और उनमें आटे की तरह की कोई चीज भरी हुई थी। आने के साथ ही इन लड़कों ने अपनी झोली में से वह आटा निकाल-निकालकर दोनों कुमारों की तरफ फेंकना शुरू किया।
निःसन्देह उस बुकनी में तेज बेहोशी का असर था जिसने दोनों कुमारों को बात की बात में बेहोश कर दिया और दोनों चक्कर खाकर जमीन पर लेट गये। जब आंख खुली तो दोनों ने अपने को एक सजे-सजाये कमरे में फर्श के ऊपर पड़े पाया।