डेरे पर पहुंचकर स्नान करने और पोशाक बदलने के बाद देवीसिंह सबसे पहिले राजा वीरेन्द्रसिंह के पास गये और उसी जगह तेजसिंह से भी मुलाकात की। पूछने पर देवीसिंह ने अपना और भूतनाथ का कुल हाल बयान किया जो कि हम ऊपर के बयानों में लिख आये हैं। उस हाल को सुनकर वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह को कई दफे हंसने और ताज्जुब करने का मौका मिला और अन्त में वीरेन्द्रसिंह ने कहा, ''अच्छा किया जो तुम भूतनाथ को छोड़कर यहां चले आये। तुम्हारे न रहने के कारण नकाबपोशों के आगे हम लोगों को शर्मिन्दा होना पड़ा।''
देवी - (ताज्जुब से) क्या वे लोग यहां आये थे?
बीरेन्द्र - हां, वे दोनों अपने मालूमी वक्त पर यहां आये थे और तुम दोनों के पीछा करने पर ताज्जुब और अफसोस करते थे, साथ ही इसके उन्होंने यह भी कहा था कि दोनों ऐयार हमारे मकान तक नहीं पहुंचे।
देवी - वे लोग जो चाहें सो कहें मगर मेरा खयाल यही है कि हम दोनों उन्हीं के मकान में गये थे।
बीरेन्द्र - खैर जो हो मगर उन नकाबपोशों का यह कहना बहुत ठीक है कि जब हम लोग समय पर अपना हाल आप ही कहने के लिए तैयार हैं तो आपको हमारा भेद जानने के लिए उद्योग न करना चाहिए!
देवी - बेशक उनका कहना ठीक है मगर क्या किया जाय, ऐयारों की तबियत ही ऐसी चंचल होती है कि किसी भेद को जानने के लिए वे देर तक या कई दिनों तक सब्र नहीं कर सकते। यद्यपि भूतनाथ इस बात को खूब जानता है कि वे दोनों नकाबपोश उसके पक्षपाती हैं और पीछा करके उनका दिल दुखाने का नतीजा शायद अच्छा न निकले मगर फिर भी उसकी तबियत नहीं मानती, तिस पर कल की बेइज्जती और अपनी स्त्री के खयाल ने उसके जोश को और भी भड़का दिया है। अगर वह अपनी स्त्री को वहां न देखता तो निःसन्देह मेरे साथ वापस चला आता और उन लोगों का पीछा करने का खयाल अपने दिल से निकाल देता।
तेज - खैर कोई चिन्ता नहीं, वे नकाबपोश खुशदिल, नेक और हमारे प्रेमी मालूम होते हैं, इसलिए आशा है कि भूतनाथ को अथवा तुम्हारे किसी आदमी को तकलीफ पहुंचाने का खयाल न करेंगे।
बीरेन्द्र - हमारा भी यही खयाल है। (देवीसिंह से मुस्कुराकर) तुम्हारा दिल भी तो अपनी बीवी साहेबा को देखने के लिए बेताब हो रहा होगा?
देवी - बेशक मेरे दिल में धुकनी-सी लगी हुई है और मैं चाहता हूं कि किसी तरह आपकी बात पूरी हो तो महल में जाऊं।
बीरेन्द्र - मगर हमसे तो तुमने पूछा ही नहीं कि तुम्हारे जाने के बाद तुम्हारी बीवी महल में थी या नहीं।
देवी - (हंसकर) जी आपसे पूछने की मुझे कोई जरूरत नहीं और न मुझे विश्वास ही है कि आप इस बारे में मुझसे सच बोलेंगे।
बीरेन्द्र - (हंसकर) खैर मेरी बातों पर विश्वास न करो और महल में जाकर अपनी रानी को देखो, मैं भी उसी जगह पहुंचकर तुम्हें इस बेएतबारी का मजा चखाता हूं!
इतना कहकर राजा वीरेन्द्रसिंह उठ खड़े हुए और देवीसिंह भी हंसते हुए वहां से चले गये।
महल के अन्दर अपने कमरे में एक कुर्सी पर बैठी चम्पा रोहतासगढ़ पहाड़ी और किले की तस्वीर दीवार के ऊपर बना रही है और उसकी दो लौंडियां हाथ में मोमी शमादान लिये हुए रोशनी दिखाकर इस काम में उसकी मदद कर रही हैं। चम्पा का मुंह दीवार की तरफ और पीठ सदर दरवाजे की तरफ है। दोनों लौंडियां भी उसी की तरह दीवार की तरफ देख रही हैं इसलिए चम्पा तथा उसकी लौंडियों को इस बात की कुछ भी खबर नहीं कि देवीसिंह धीरे-धीरे पैर दबाते हुए इस कमरे में आकर दूर से और कुछ देर से उनकी कार्रवाई देखते हुए ताज्जुब कर रहे हैं। चम्पा तस्वीर बनाने के काम में बहुत ही निपुण और शीघ्र काम करने वाली थी तथा उसे तस्वीरों के बनाने का शौक भी हद से ज्यादे था। देवीसिंह ने उसके हाथ की बनाई हुई सैकडों तस्वीरें देखी थीं, मगर आज की तरह ताज्जुब करने का मौका उन्हें आज के पहिले नहीं मिला था। ताज्जुब इसलिए कि इस समय जिस ढंग की तस्वीरें चम्पा बना रही थी ठीक उसी ढंग की तस्वीरें देवीसिंह ने भूतनाथ के साथ जाकर नकाबपोशों के मकान में दीवार के ऊपर बनी हुई देखी थीं। कह सकते हैं कि एक स्थान या इमारत की तस्वीर अगर दो कारीगर बनावें तो सम्भव है कि एक ढंग की तैयार हो जायं मगर यहां यही बात न थी। नकाबपोशों के मकान में रोहतासगढ़ पहाड़ी की जो तस्वीर देवीसिंह ने देखी थी उसमें दो नकाबपोश सवार पहाड़ी के ऊपर चढ़ते हुए दिखलाये गये थे जिनमें से एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। इस समय जो तस्वीर चम्पा बना रही थी उसमें भी उसी ठिकाने उसी ढंग के दो सवार इसने बनाये और उसी तरह इन दोनों सवारों में से भी एक का घोड़ा मुश्की और दूसरे का सब्जा था। देवीसिंह का खयाल है कि यह बात इत्तिफाक से नहीं हो सकती।
ताज्जुब के साथ उस तस्वीर को देखते हुए देवीसिंह सोचने लगे, क्या यह तस्वीर इसने यों ही अन्दाज से तैयार की है नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। अगर यह तस्वीर इसने अन्दाज से बनाई होती तो दोनों सवार और घोड़े ठीक उसी रंग के न बनते जैसा कि मैं उन नकाबपोशों के यहां देखे आता हूं। तो क्या यह वास्तव में उन नकाबपोशों के यहां गई थी बेशक गई होगी, क्योंकि उस तस्वीर के देखे बिना उसके जोड़ की तस्वीर यह बना नहीं सकती, मगर इस तस्वीर के बनाने से साफ जाहिर होता है कि यह अपनी उन नकाबपोशों के यहां जाने वाली बात गुप्त रखना भी नहीं चाहती, मगर ताज्जुब है कि जब इसका ऐसा खयाल है तो वहां (नकाबपोशों के घर पर) मुझे देखकर छिप क्यों गई थी खैर अब बातचीत करने पर जो कुछ भेद है सब मालूम हो जायगा।
यह सोचकर देवीसिंह दो कदम आगे बढ़े ही थे कि पैरों की आहट पाकर चम्पा चौंकी और घूमकर देखने लगी। देवीसिंह पर निगाह पड़ते ही कूंची और रंग की प्याली जमीन पर रखकर उठ खड़ी हुई और हाथ जोड़कर प्रणाम करने के बाद बोली, ''आप सफर से लौटकर कब आये?'
देवी - (मुस्कुराते हुए) चार-पांच घण्टे हुए होंगे, मगर यहां भी मैं आधी घड़ी से तमाशा देख रहा हूं।
चम्पा - (मुस्कुराती हुई) क्या खूब! इस तरह चोरी से ताक-झांक करने की क्या जरूरत थी?
देवी - इस तस्वीर और इसकी बनावट को देखकर मैं ताज्जुब कर रहा था और तुम्हारे काम में हर्ज डालने का इरादा नहीं होता था।
चम्पा - (हंसकर) बहुत ठीक, खैर आइये बैठिए।
देवी - पहिले मैं तुम्हारी इस कुर्सी पर बैठके इस तस्वीर को गौर से देखूंगा।
इतना कहकर देवीसिंह उस कुर्सी पर बैठ गये जिस पर थोड़ी ही देर पहिले चम्पा बैठी हुई तस्वीर बना रही थी और बड़े गौर से उस तस्वीर को देखने लगे। चम्पा भी कुर्सी की पिछवाई पकड़कर खड़ी हो गई और देखने लगी। देखते-देखते देवीसिंह ने झट हलके जर्द रंग की प्याली और कूंची उठा ली और उस तस्वीर में रोहतासगढ़ किले के ऊपर एक बुर्ज और उसके साथ सटी पताका का साधारण निशान बनाया अर्थात् उसकी जमीन बांधी जिसे देखते ही चम्पा चौंकी और बोली, ''हां-हां ठीक है यह बनाना तो मैं भूल ही गई थी। बस अब आप रहने दीजिए, इसे भी मैं ही अपने हाथ से बनाऊंगी, तब आप देखकर कहियेगा कि तस्वीर कैसी बनी और इसमें कौन-सी बात छूट गई थी।''
चम्पा की इस बात को सुन देवीसिंह चौंक पड़े। अब उन्हें पूरा-पूरा विश्वास हो गया कि चम्पा उन नकाबपोशों के मकान में जरूर गई हुई थी और मैंने निःसन्देह इसी को देखा था, अस्तु देवीसिंह ने घूमकर चम्पा की तरफ देखा और कहा, ''मगर यह तो बताओ कि वहां मुझे देखकर तुम भाग क्यों गई थीं?'
चम्पा - (ताज्जुब की सूरत बनाके) कहां कब?
देवी - उन्हीं नकाबपोशों के यहां!
चम्पा - मुझे बिल्कुल याद नहीं पड़ता कि आप कब की बात कर रहे हैं!
देवी - अब लगीं न नखरा करके परेशान करने!
चम्पा - मैं आपके चरणों की कसम खाकर कहती हूं कि मुझे कुछ याद नहीं कि आप कब की बात कर रहे हैं।
अब तो देवीसिंह के ताज्जुब का हद न रहा, क्योंकि वे खूब जानते थे कि चम्पा जितनी खूबसूरत और ऐयारी के फन में तेज है उतनी ही नेक और पतिव्रता भी है। वह उसके चरणों की कसम खाकर झूठ कदापि नहीं बोल सकती। अस्तु कुछ देर तक ताज्जुब के साथ गौर करने के बाद पुनः देवीसिंह ने कहा, ''आखिर कल या परसों तुम कहां गई थीं?'
चम्पा - मैं तो कहीं नहीं गई! आप महारानी चन्द्रकान्ता से पूछ लें क्योंकि मेरा-उनका तो दिन-रात का संग है, अगर कहीं जाती तो किसी काम के ही सिर जाती और ऐसी अवस्था में आपसे छिपाने की जरूरत ही क्या थी?
देवी - फिर यह तस्वीर तुमने कहां देखी?
चम्पा - यह तस्वीर मैं...!
इतना कह चम्पा कपड़े का एक लपेटा हुआ पुलिन्दा उठा लाई और देवीसिंह के हाथ में दिया। देवीसिंह ने उसे खोलकर देखा और चौंककर चम्पा से पूछा, ''यह नक्शा तुम्हें कहां से मिला?'
चम्पा - यह नक्शा मुझे कहां से मिला सो मैं पीछे कहूंगी पहिले आप यह बतावें कि इस नक्शे को देखकर आप चौंके क्यों और यह नक्शा वास्तव में कहां का है क्योंकि मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती।
देवी - यह नक्शा उन्हीं नकाबपोशों के मकान का है जिनके बारे में मैं अभी तुमसे पूछ रहा था।
चम्पा - कौन नकाबपोश वे ही जो दरबार में आया करते हैं?
देवी - हां वे ही, और उन्हीं के यहां मैंने तुमको देखा था।
चम्पा - (ताज्जुब के साथ) यों मैं कुछ भी नहीं समझ सकती, पहिले आप अपने सफर का हाल सुनावें और बतावें कि आप कहां गये थे और क्या-क्या देखा?
इसके जवाब में देवीसिंह ने अपने और भूतनाथ के सफर का हाल बयान किया और इसके बाद उस कपड़े वाले नक्शे की तरफ बताके कहा, ''यह उसी स्थान का नक्शा है। इस बंगले के अन्दर दीवारों पर तरह-तरह की तस्वीरें बनी हुई हैं जिन्हें कारीगर दिखा नहीं सकता, इसलिए नमूने के तौर पर बाहर की तरफ यही रोहतासगढ़ की एक तस्वीर बनाकर उसने नीचे लिख दिया है कि इस बंगले में इसी तरह की बहुत-सी तस्वीरें बनी हुई हैं। वास्तव में यह नक्शा बहुत ही अच्छा, साफ और बेशकीमत बना हुआ है।''
चम्पा - अब मैं समझी कि असल मामला क्या है, मैं उस मकान में नहीं गई थी।
देवी - तब यह तस्वीर तुमने कहां से पाई?
चम्पा - यह तस्वीर मुझे लड़के (तारासिंह) ने दी थी।
देवी - तुमने पूछा तो होगा कि यह तस्वीर उसे कहां से मिली?
चम्पा - नहीं, उसने बहुत तारीफ करके यह तस्वीर मुझे दी और मैंने ले ली थी।
देवी - कितने दिन हुए?
चम्पा - आज पांच-छः दिन हुए होंगे।
इसके बाद देवीसिंह बहुत देर तक चम्पा के पास बैठे रहे और जब वहां से जाने लगे तब वह कपड़े वाली तस्वीर अपने साथ बाहर लेते गये।