भूतनाथ और देवीसिंह को कई आदमियों ने पीछे से पकड़कर अपने काबू में कर लिया और उसी समय एक आदमी ने किसी विचित्र भाषा में पुकारकर कुछ कहा जिसे सुनते ही वे दोनों औरतें अर्थात् चम्पा तथा भूतनाथ की स्त्री चिराग फेंक-फेंककर पीछे की ओर लौट गईं और अंधकार के कारण कुछ मालूम न हुआ कि वे दोनों कहां गईं, हां भूतनाथ और देवीसिंह को इतना मालूम हो गया कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले भी सब नकाबपोश हैं। भूतनाथ की तरह देवीसिंह भी सूरत बदलकर अपने चेहरे पर नकाब डाले हुए थे।
गिरफ्तार हो जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह दोनों एक साथ कर दिये गये और दोनों ही को लिये हुए वे सब बीच वाले बंगले की तरफ रवाना हुए। यद्यपि अंधकार के अतिरिक्त सूरत बदलने और नकाब डाले रहने के सबब एक को दूसरे का पहिचानना कठिन था तथापि अन्दाज ही से एक को दूसरे ने जान लिया और शरमिन्दगी के साथ धीरे-धीरे उस बंगले की तरफ जाने लगे। जब बंगले के पास पहुंचे तो आगे वाले दालान में जहां दो चिरागों की रोशनी थी, तीन आदमियों को हाथ में नंगी तलवार लिये पहरा देते देखा। वहां पहुंचने पर हमारे दोनों ऐयारों को मालूम हुआ कि उन्हें गिरफ्तार करने वाले गिनती में आठ से ज्यादे नहीं हैं। उस समय देवीसिंह और भूतनाथ के दिल में थोड़ी देर के लिए यह बात पैदा हुई कि केवल आठ आदमियों से हमें गिरफ्तार हो जाना उचित न था और अगर हम चाहते तो इन लोगों से अपने को बचा ही लेते, मगर उन दोनों का यह विचार तुरन्त ही जाता रहा जब उन्होंने कुछ कम-वेश यह सोचा कि अगर हम इन लोगों से अपने को बचा लेते तो क्या होता क्योंकि यहां से निकलकर भाग जाना कठिन था और अगर भाग भी जाते तो जिस काम के लिए आये हैं उससे हाथ धो बैठते, अस्तु जो होगा देखा जायगा।
इस दालान में अन्दर जाने के लिए दरवाजा था और उसके आगे लाल रंग का रेशमी पर्दा लटक रहा था। दीवार-छत इत्यादि सब रंगीन बने हुए थे और उन पर बनी हुई तरह-तरह की तस्वीरें अपनी खूबी और खूबसूरती के सबब देखने वालों का दिल खींच लेती थीं परन्तु इस समय उन पर भरपूर और बारीक निगाह डालना हमारे ऐयारों के लिए कठिन था इसलिए हम भी उनका हाल बयान नहीं कर सकते।
जो लोग दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे उनमें से एक आदमी पर्दा उठाकर बंगले के अन्दर चला गया और चौथाई घड़ी के बाद लौट आकर अपने साथियों से बोला, ''इन दोनों महाशयों को सरदार के सामने ले चलो और एक आदमी जाकर इनके लिए हथकड़ी-बेड़ी भी ले आओ, कदाचित् हमारे सरदार इन दोनों के लिए कैदखाने का हुक्म दें।''
अस्तु एक आदमी हथकड़ी-बेड़ी लाने के लिए चला गया और वे सब देवीसिंह और भूतनाथ को लिये हुए बंगले की तरफ रवाना हुए।
यह बंगला बाहर से जैसा सादा और मामूली ढंग का मालूम होता था वैसा अन्दर से न था, जूता उतारकर चौखट के अन्दर पैर रखते ही हमारे दोनों ऐयार ताज्जुब के साथ चारों तरफ देखने लगे और फौरन ही समझ गये कि इसके अन्दर रहने वाला या इसका मालिक कोई साधारण आदमी नहीं है। देवीसिंह के लिए यह बात सबसे ज्यादे ताज्जुब की थी और इसीलिए उनके दिल में घड़ी-घड़ी यह बात पैदा होती थी कि यह स्थान हमारे इलाके में होने पर भी अफसोस और ताज्जुब की बात है कि इतने दिनों तक हम लोगों को इसका पता न लगा!
पर्दा उठाकर अन्दर जाने पर हमारे दोनों ऐयारों ने अपने को एक गोल कमरे में पाया जिसकी छत भी गोल गुम्बजदार थी और उसमें बहुत-सी बिल्लौरी हांडियां जिनमें इस समय मोमबत्तियां जल रही थीं कायदे और मौके के साथ लटक रही थीं। दीवारों पर खूबसूरत जंगलों और पहाड़ों की तस्वीरें निहायत खूबी के साथ बनी हुई थीं जो इस जगह की ज्यादे रोशनी के सबब साफ मालूम होती थीं और यही जान पड़ता था कि अभी बनकर तैयार हुई हैं। इस तस्वीरों में अकस्मात देवीसिंह और भूतनाथ ने रोहतासगढ़ के पहाड़ और किले की भी तस्वीर देखी जिसके सबब से और तस्वीरों को भी गौर से देखने का शौक इन्हें हुआ मगर ठहरने की मोहलत न मिलने के सबब लाचार थे। यहां की जमीन पर सुर्ख मखमली मुलायम गद्दा बिछा हुआ था और सदर दरवाजे के अतिरिक्त और भी तीन दरवाजे नजर आ रहे थे जिन पर बेशकीमत किमखाब के पर्दे पड़े हुए थे और उनमें मोतियों की झालरें लटक रही थीं। हमारे दोनों ऐयारों को दाहिने तरफ वाले दरवाजे के अन्दर जाना पड़ा जहां गली के ढंग पर रास्ता घूमा हुआ था। इस रास्ते में भी मखमली गद्दा बिछा हुआ था। दोनों तरफ की दीवारें साफ और चिकनी थीं तथा छत के सहारे एक बिल्लौरी कन्दील लटक रही थी जिसकी रोशनी इस सात-आठ हाथ लम्बी गली के लिए काफी थी। इस गली को पार करके ये दोनों एक बहुत बड़े कमरे में पहुंचाये गए जिसकी सजावट और खूबी ने उन्हें ताज्जुब में डाल दिया और वे हैरत की निगाह से चारों तरफ देखने लगे।
जंगल, मैदान, पहाड़, खोह, दर्रे, झरने, शिकारगाह तथा शहरपनाह, किले, मोरचे और लड़ाई इत्यादि की तस्वीरें चारों तरफ दीवार में इस खूबी और सफाई के साथ बनी हुई थीं कि देखने वाला यह कह सकता था कि बस इससे ज्यादे कारीगरी और सफाई का काम मुसौवर कर ही नहीं सकता। छत पर हर तरह की चिड़ियों और उनके पीछे झपटते हुए बाज-बहरी इत्यादि शिकारी परिन्दों की तस्वीरें बनी हुई थीं जो दीवारगीरों और कन्दीलों की तेज रोशनी के सबब बहुत साफ दिखाई दे रही थीं। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा हुआ था और सामने की तरफ हाथ-भर ऊंची गद्दी पर दो नकाबपोश तथा गद्दी के नीचे और कई आदमी अदब के साथ बैठे हुए थे मगर उनमें से ऐसा कोई भी न था जिसके चेहरे पर नकाब न हो।
देवीसिंह और भूतनाथ को उम्मीद थी कि हम उन्हीं दोनों नकाबपोशों को उसी ढंग की पोशाक में देखेंगे जिन्हें कई दफे देख चुके हैं मगर यहां उसके विपरीत देखने में आया। इस बात का निश्यच तो नहीं हो सकता था कि इन नकाब के अन्दर वही सूरत छिपी हुई हैं या कोई और लेकिन पोशाक और आवाज यही प्रकट करती थी कि वे दोनों कोई दूसरे ही हैं, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन दोनों की पोशाक उन नकाबपोशों से कहीं बढ़-चढ़के थी जिन्हें भूतनाथ और देवीसिंह देख चुके थे।
जब देवीसिंह और भूतनाथ उन दोनों नकाबपोशों के सामने खड़े हुए तो उन दोनों में से एक ने अपने आदमियों से पूछा, ''ये दोनों कौन हैं जिन्हें गिरफ्तार कर लाये हो?'
एक - जी इनमें से एक (हाथ का इशारा करके) राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐयार देवीसिंह हैं और यह वही मशहूर भूतनाथ है जिसका मुकद्दमा आजकल राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पेश है।
नकाब - (ताज्जुब से) हां! अच्छा तो ये दोनों यहां क्यों आये अपनी मर्जी से आये हैं या तुम लोग जबर्दस्ती गिरफ्तार कर लाए हो?
वही आदमी - इस हाते के अन्दर तो ये दोनों आदमी अपनी मर्जी से आये थे मगर यहां हम लोग गिरफ्तार करके लाये हैं।
नकाब - (कुछ कड़ी आवाज में) गिरफ्तार करने की जरूरत क्यों पड़ी किस तरह मालूम हुआ कि ये दोनों यहां बदनीयती के साथ आये हैं क्या इन दोनों ने तुम लोगों से कुछ हुज्जत की थी?
वही आदमी - जी हुज्जत तो किसी से न की मगर छिप-छिपकर आने और पेड़ की आड़ में खड़े होकर ताक-झांक करने से मालूम हुआ कि इन दोनों की नीयत अच्छी नहीं है, इसीलिए गिरफ्तार कर लिए गये।
नकाब - इतने बड़े प्रतापी राजा वीरेन्द्रसिंह के ऐसे नामी ऐयार के साथ केवल इतनी बात पर इस तरह का बर्ताव करना तुम लोगों को उचित न था, कदाचित् ये हम लोगों से मिलने के लिए आए हों। हां अगर केवल भूतनाथ के साथ ऐसा बर्ताव होता तो ज्यादे रंज की बात न थी -
यद्यपि नकाबपोश की आखिरी बात भूतनाथ को कुछ बुरी मालुम हुई मगर कर ही क्या सकता था साथ ही इसके यह भी देख रहा था कि नकाबपोश भलमनसी और सभ्यता के साथ बातें कर रहा है, जिसकी उम्मीद यहां आने के पहिले कदापि न थी। अस्तु जब नकाबपोश अपनी बात पूरी कर चुका तो इसके पहिले कि उसका नौकर कुछ जवाब दे भूतनाथ बोल उठा -
भूतनाथ - कृपानिधान, हम लोग यहां किसी बुरी नीयत से नहीं आये हैं, न तो चोरी करने का इरादा है न किसी को तकलीफ देने का, मैं केवल अपनी स्त्री का पता लगाने के लिए यहां आया हूं, क्योंकि मेरे जासूसों ने मेरी स्त्री के यहां होने की मुझे इत्तिला दी थी।
नकाब - (मुस्कुराकर) शायद ऐसा हो, मगर मेरा खयाल कुछ दूसरा ही है। मेरा दिल कह रहा है कि तुम लोग उन दोनों नकाबपोशों का असल हाल जानने के लिए यहां आये हो जो राजा साहब के दरबार में जाकर अपने विचित्र कामों से लोगों को ताज्जुब में डाल रहे हैं, मगर साथ ही इसके इस बात को भी समझ लो कि यह मकान उन दोनों नकाबपोशों का नहीं है बल्कि हमारा है। उनके मकान में जाने का रास्ता तुम उस सुरंग के अन्दर ही छोड़ आये जिसे तै करके यहां आये हो अर्थात् हमारे और उनके मकान का रास्ता बाहर से तो एक ही है मगर सुरंग के अन्दर आकर दो हो गया है। खैर जो कुछ हो हम इस बारे में ज्यादा बातचीत करना उचित नहीं समझते और न तुम लोगों को कुछ तकलीफ ही देना चाहते हैं बल्कि अपना मेहमान समझकर कहते हैं कि अब आ गये हो तो रातभर कुटिया में आराम करो, सबेरा होने पर जहां इच्छा हो चले जाना। (गद्दी के नीचे बैठे हुए एक नकाबपोश की तरफ देखके) यह काम तुम्हारे सुपुर्द किया जाता है, इन्हें खिला-पिलाकर ऊपर वाली मंजिल में सोने की जगह दो और सुबह को इन्हें खोह के बाहर पहुंचा दो।
इतना कहकर वह नकाबपोश उठ खड़ा हुआ और उसका साथी दूसरा नकाबपोश भी जाने के लिए तैयार हो गया। जिस जगह इन नकाबपोशों की गद्दी लगी हुई थी उस (गद्दी) के पीछे दीवार में एक दरवाजा था जिस पर पर्दा लटक रहा था। दोनों नकाबपोश पर्दा उठाकर अन्दर चले गये और यह छोटा-सा दरबार बर्खास्त हुआ। गद्दी के नीचे बैठने वाले भी मुसाहब दरबारी या नौकर जो कोई हों उठ खड़े हुए और उस आदमी ने, जिसे दोनों ऐयारों की मेहमानी का हुक्म हुआ था, देवीसिंह और भूतनाथ की तरफ देखकर कहा - ''आप लोग मेहरबानी करके मेरे साथ आइए और ऊपर की मंजिल में चलिए।'' भूतनाथ और देवीसिंह भी कुछ उज्र न करके पीछे-पीछे चलने के लिए तैयार हो गए।
नकाबपोश की बातों ने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को ताज्जुब में डाल दिया। भूतनाथ ने नकाबपोश से कहा था कि मैं अपनी स्त्री की खोज में यहां आया हूं, मगर बहुत कुछ कह जाने पर भी नकाबपोश ने भूतनाथ की इस बात का कोई जवाब न दिया और ऐसा करना भूतनाथ के दिल में खुटका पैदा करने के लिए कम न था। भूतनाथ को निश्चय हो गया, कि उसकी स्त्री यहां है और अवश्य है। उसने सोचा कि जो नकाबपोश राजा वीरेन्द्रसिंह के दरबार में पहुंचकर बड़ी-बड़ी गुप्त बातें इस अनूठे ढंग से खोलते हैं, उनके घर में यदि मैं अपनी स्त्री को देखूं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। हमारे देवीसिंह ने तो एक शब्द भी मुंह से निकालना पसन्द न किया, न मालूम इसका सबब क्या था और वे क्या सोच रहे थे मगर कम से कम इस बात की शर्म तो उनको जरूर ही थी कि वे यहां आने के साथ ही गिरफ्तार हो गये। यह तो नकाबपोशों की मेहरबानी थी कि हथकड़ी और बेड़ी से उनकी खातिर न की गई।
वह नकाबपोश कई रास्तों से घुमाता-फिराता भूतनाथ और देवीसिंह को ऊपर वाली मंजिल में ले गया। जो लोग इन दोनों को गिरफ्तार कर लाए थे वे भी उनके साथ गये।
जिस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह पहुंचाये गये वह यद्यपि बड़ा न था मगर जरूरी और मामूली ढंग के सामान से सजाया हुआ था। कन्दील की रोशनी हो रही थी। जमीन पर साफ-सुथरा फर्श बिछा था और कई तकिए भी रक्खे हुए थे। एक संगमर्मर की छोटी चौकी बीच में रक्खी हुई थी और किनारे दो सुन्दर पलंग आराम करने के लिए बिछे हुए थे।
भूतनाथ और देवीसिंह को खाने-पीने के लिए कई दफा कहा गया मगर उन दोनों ने इनकार किया अस्तु लाचार होकर नकाबपोश ने उन दोनों को आराम करने के लिए उसी जगह छोड़ा और स्वयं उन आदमियों को जो दोनों ऐयारों को गिरफ्तार कर लाये थे, साथ लिये हुए वहां से चला गया। जाती समय ये लोग बाहर से दरवाजे की जंजीर बन्द करते गये और इस कमरे में भूतनाथ और देवीसिंह अकेले रह गये।