वेरीकोस वेन-

        स्त्रियों में गर्भावस्था से पहले और कभी-कभी गर्भावस्था के बाद पैरों में नीले रंग की बड़ी-बड़ी नसें दिखाई पड़ने लगती हैं। इन्हीं को ’वेरीकोस वेन’ कहा जाता है।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय आगे बढ़ता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- स्तनों के निप्पल, एरीओला, योनि का बाहरी भाग तथा मलद्वार की त्वचा काली होने लगती है। इसके साथ ही साथ दोनों गालों तथा माथे के बीच के हिस्से की त्वचा पर काले दाग और झाईयां दिखाई पड़ने लगती है। इन्हें कोलास्मा कहते हैं। त्वचा के काले होने के कारण त्वचा के नीचे मेलेनिन नाम का पिगमेंट इकट्ठा होने लगता है। यह परिवर्तन शरीर में उत्तेजित द्रव के कारण होता है।

        गर्भावस्था में नाभि से नीचे एक काले रंग की लकीर दिखाई पड़ने लगती है जिसे लिनिया नाइग्रा कहते हैं। इस लाइन के दोनों तरफ त्वचा के नीचे वसा के कारण छोटी-छोटी चांदी के समान आकार की सफेद लाईन दिखाई पड़ने लगती है, जिसे स्ट्राइग्रबिडोरम कहते हैं। यह निशान पेट, स्तन और जांघों पर भी हो जाते हैं। प्रसव के बाद मांसपेशी के खिंचाव के कारण यह निशान शरीर पर हमेशा के लिए बन जाते हैं। स्त्रियों के शरीर में उत्तेजित द्रव ए.सी.टी.एच के बढ़ते ही शरीर में यह बदलाव होता है।

        गर्भावस्था में बड़ी-बड़ी नसें जैसे ईनफीरियर, विनाकावा, फिमोरल वेन, सैफनस वेन आदि पर दबाव पड़ने के कारण यह नसें दिखाई देने लगती हैं क्योंकि रक्त शरीर के ऊपरी भाग में सरलता से नहीं लौट पाता है। साथ ही साथ इन नसों के वाल्व भी कमजोर हो जाते हैं। इसमें रक्त और ऊपर की ओर आने की स्थिति में नहीं होता है। गर्भ के कारण रक्त को पैरों की मांसपेशियों में लौटते समय अधिक रुकावट होती है। इस रुकावट के कारण पैरों की नसें जो पतली दीवारों और त्वचा के पास होने के कारण शीघ्र ही दिखाई पड़ने लगती है, वैरीकोस नसें कहलाती हैं।

        ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए। अधिक देर तक खडे़ नहीं होना चाहिए तथा अपने एक पैर को दूसरे पैर के ऊपर नहीं रखना चाहिए। सोते समय पैरों को थोड़ा सा ऊपर करके सोना चाहिए। कुर्सी पर बैठकर अपने पैरों को जमीन पर इधर-उधर चलाते रहना चाहिए जिससे पैरों की मांसपेशियों का व्यायाम हो सके।

        स्त्री की यह वेरीकोस नसें चूंकि हृदय से लगभग 12 मीटर दूर होती है। इस कारण उन पर अधिक रक्त का दबाव होता है। जिससे कारण कभी-कभी यह फूलकर त्वचा के बाहर उभर आती है। उभरने के साथ-साथ यह फैलती जाती है तथा कम स्थान होने के कारण टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई पड़ती है और इनमें अधिक दर्द होता है। इन नसों में प्रत्येक 15 सेंटीमीटर की दूरी पर एक वाल्व होता है जो रक्त के भरने के कारण ठीक प्रकार से कार्य नहीं कर पाता है। यह वाल्व आकार में छोटा तथा जोड़ों में होता है जो धमनियों की दीवार के आमने-सामने लगा होता है।

गर्भावस्था में बवासीर की शिकायत-

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ बच्चे के वजन, स्थान के कारण और बच्चेदानी के वजन के कारण कूल्हे की धमनियों पर दबाव पड़ता है। सभी धमनियों में रक्त इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। धमनियां जो मलद्वार के पास होती हैं। उनके फैलने के कारण वह मोटी-मोटी दिखाई पड़ने लगती है। इसे ही बवासीर कहते हैं।

        बवासीर दो प्रकार की होती है। जो बवासीर मलद्वार के अन्दर की ओर होती है उसे अन्दर की बवासीर कहते हैं। जो बाहर की ओर होती है उसे बाहर की बवासीर कहतें है। बवासीर को हैमेराईड भी कहा जाता है।

बवासीर होने के कारण-

    कब्ज की शिकायत होने पर मलत्याग के समय स्त्री को अधिक जोर लगाना पड़ता है जिससे कारण बवासीर हो जाती है।
    बार-बार मलत्याग करने तथा मलत्याग के समय देर तक बैठने की आदत के कारण भी बवासीर की शिकायत हो जाती है।
    बवासीर के कारण स्त्री के शरीर की मांसपेशियां ढीली और कमजोर हो जाती है। जिस कारण शरीर में रक्त का संचार नहीं हो पाता है।
    परिवारिक माहौल होने के कारण स्त्री सही समय पर भोजन नहीं कर पाती हैं। सही समय पर भोजन का सेवन न करने के कारण उन्हें बवासीर की शिकायत हो जाती है।
    गर्भावस्था के दौरान बच्चे के सिर का दबाव रक्त की धमनियों पर पड़ता है जिसके कारण स्त्री बवासीर से पीड़ित हो जाती है।
    गर्भावस्था में बच्चेदानी के दबाव के कारण भी स्त्री को बवासीर की शिकायत हो जाती है।
    स्त्री के पेट की धमनियों पर बच्चे और बच्चेदानी का दबाव पड़ना भी बवासीर होने का प्रमुख कारण होता है।

        बवासीर जब शुरू होने को होती है तो स्त्री को अपने मलद्वार पर जलन और अधिक खुजली होती है। धीरे-धीरे यह धमनियां बढ़ती हैं तथा मांसपेशियों की सतह से लटकना शुरू कर देती हैं। यही बवासीर होती है। मलत्याग करने के बाद यह और अधिक फैल जाती है। यह इतनी बाहर निकल आती है कि इनको हाथों की अंगुलियों द्वारा धीरे-धीरे दबाकर अन्दर करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में ध्यान रखना चाहिए कि हाथों के नाखून इसमें न लगने पाये क्योंकि रक्त निकलने की आशंका होती है। कुछ बवासीर की नसों में रक्त का जमाव भी हो जाता है। इस प्रकार की बवासीर को रक्त वाली बवासीर कहते हैं। इसके पनपने के कारण स्त्री को बहुत अधिक दर्द होता है।

बवासीर की चिकित्सा-

        गर्भावस्था के दौरान कब्ज होने के कारण बवासीर हो जाती है। इस कारण कब्ज की चिकित्सा बहुत ही आवश्यक होती है। कब्ज की शिकायत होने पर भोजन को शीघ्र ही बदल देना चाहिए। बवासीर को गुनगुने पानी से धोकर मलहम का प्रयोग करना चाहिए। मलत्याग करने के बाद पानी में पोटैशियमपरमैगनेट को डालकर मलद्वार की सिंकाई करनी चाहिए और ट्यूब को हाथ में लगाकर उसे अन्दर की ओर धकेलना चाहिए।

        बवासीर से पीड़ित रोगी को शौचक्रिया में कम समय तक बैठना चाहिए। अधिक से अधिक आराम करने पर भी यह अन्दर चला जाता है। शरीर को बेहोश करने वाले इन्जेक्शन, अन्य दवाइयों के द्वारा या ऑपरेशन करके बवासीर का इलाज किया जाता है। गर्भावस्था में ऑपरेशन या इंजैक्शन की सहायता से बवासीर की चिकित्सा नहीं करना चाहिए क्योंकि यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

        साधारण बवासीर गर्भावस्था के बाद स्वयं ही ठीक हो जाती है। परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इस दौरान स्त्री का वजन सन्तुलित रहना चाहिए तथा सन्तुलित मात्रा और नियमित समय पर भोजन करना चाहिए।

गर्भावस्था में शरीर की मांसपेशियों में ऐंठन-

        महिलाओं के शरीर में कैल्शियम, विटामिन `बी`, `ई` तथा लवण आदि की कमी के कारण गर्भावस्था के अन्त में मांसपेशियों में ऐंठन होने लगती है। यह मुख्य रूप से दोनों पैरों में अधिक होती है। मांसपेशियों में ऐंठन के समय दोनों पैरों के अंगूठों को अन्दर की तरफ मोड़कर मांसपेशियों को दबाना और मोड़ना चाहिए तथा मांसपेशियों कर मालिश करनी चाहिए।

        स्त्रियों को भोजन में अधिक मात्रा में कैल्शियम, विटामिन, दूध तथा दूध से निर्मित पदार्थ, हरी पत्तेदार सब्जियां, सलाद, दालें आदि का अधिक मात्रा में उपयोग करना चाहिए। मांसपेशियों के ऐंठन होने पर नींबू पानी में नमक डालकर सेवन करने से लाभ मिलता है। हाई ब्लडप्रेशर होने की स्थिति में नमक का सेवन नहीं करना चाहिए तथा डॉक्टर की सलाह लेनी चाहिए।

        मांसपेशियों की ऐंठन को रोकने के लिए पैर को घुटनों और जोड़ों से कई बार मोड़ने का प्रयास करना चाहिए। इससे पैरों के जोड़ों से मांसपेशियों तक का पूर्ण व्यायाम हो जाता है। इसके अतिरिक्त एड़ियों के बल चलना, पंजों के बल चलना तथा पैरों के किनारों पर अधिक वजन देकर चलने से भी लाभ होता है। मांसपेशियों की ऐंठन की अवस्था में थोडे़ समय टहलना लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान पूर्ण सांस ले पाना-

        जैसे-जैसे गर्भ में बच्चा बढ़ता जाता है वैसे-वैसे बच्चेदानी का आकार भी ऊपर की ओर बढ़ने लगता है। इससे फेफड़ों पर अधिक दबाव के कारण सांस पूर्ण रूप से बाहर नहीं आ पाती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर स्त्री को सांस लेने में काफी परेशानी होती है। गर्भ में जुड़वां बच्चे होने पर जब स्त्री बैठी होती हैं तो उसे सांस लेने में अधिक रुकावट प्रतीत होती है। इसके लिए स्त्री को अधिक से अधिक विश्राम करना चाहिए। सांस लेने में परेशानी होने पर जमीन पर न बैठना, कन्धों को अधिक मोड़कर कार्य करना, वजन उठाकर चलना आदि कार्यों को नहीं करना चाहिए।

दिल की धड़कन बढ़ जाना-

        गर्भावस्था के दौरान दिल की तेज धड़कन स्वयं को महसूस होना, चलने, बोलने आदि में सांस और धड़कनों का अधिक हो जाना आम बात है। हृदय का प्रमुख कार्य ऑक्सीजन युक्त रक्त मां और बच्चे के शरीर को प्रदान करना होता है। इस कारण दिल की धड़कन बढ़ जाती है। अधिक कार्य करने से हृदय की मांसपेशियां भी बढ़ जाती है जिसके कारण हृदय को लगभग 35 प्रतिशत से 40 प्रतिशत अधिक कार्य करना पड़ता है।

चक्कर घबराहट और अधिक नींद का आना-

        स्त्रियों के शरीर में अच्छी प्रकार से ऑक्सीजनयुक्त रक्त न पहुंच पाने के कारण अधिक चक्कर, घबराहट आदि की शिकायत होना आम बात होती है। ऐसी स्त्रियों का ब्लडप्रेशर भी लो होता है। मस्तिष्क तक कम मात्रा में रक्त पहुंचने के कारण स्त्रियों को अधिक थकान, सुस्ती और अधिक नींद आती है। गर्भावस्था में प्रथम तीन महीनों में अक्सर स्त्री का ब्लडप्रेशर सामान्य ब्लडप्रेशर की तुलना में कम होता है। इस कारण स्त्री को चक्कर भी आ सकते हैं। इस कारण स्त्री कार्य करते समय गिर सकती हैं और उसके शरीर को हानि हो सकती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अधिक सावधानी बरतनी पड़ती है। लो ब्लडप्रेशर से मां और बच्चे के शरीर को कोई हानि नहीं होती है। खुली हवा में धीरे-धीरे घूमना चाहिए तथा अपने आप को दूषित वातावरण से दूर रखना चाहिए। लम्बी यात्रा अधिक थकान वाले कार्य या फिर काफी देर बैठना स्त्री के लिए हानिकारक हो सकता है।

खुजली और जलन-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर पर खुजली और जलन आम बात होती है। इस प्रकार की खुजली स्त्री के पेट और कभी-कभी हाथ-पैरों पर भी हो जाती है। खुजली होने पर त्वचा में लाल रंग के दाने दिखाई पड़ने लगते हैं। जैसे-जैसे गर्भावस्था बढ़ती जाती है। त्वचा भी खिंचती जाती है। इसकी वजह से शरीर में जलन और खुजली होती है। इसको गर्भावस्था में एलर्जी कहते हैं। इस प्रकार की एलर्जी में नारियल का तेल, ऑलिव आयल या फिर कैलाड्रिल लोशन का प्रयोग किया जा सकता है। दो चम्मच ग्लिसरीन, दो चम्मच गुलाबजल और आधा चम्मच नींबू का रस मिलाकर त्वचा पर लगाने से त्वचा मुलायम हो जाती है और त्वचा की खुजली और जलन भी मिट जाती है।

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री की योनि में जलन और खुजली अक्सर हो जाती है। योनि और कूल्हे की मांसपेशियों में अधिक रक्तसंचार होने के कारण छोटे से छोटे आम कीटाणु भी खुजली पैदा कर देते हैं। इस खुजली और जलन से गर्भ में बच्चे को कोई हानि नहीं होती है परन्तु स्त्री को अधिक कष्ट होता है। इस कष्ट से छुटकारा पाने के लिए गुनगुने पानी में एन्टीसेप्टिक दवा (डिटोल) की कुछ बूंदे डालकर स्त्री को अपने योनिद्वार को 3-4 बार अच्छी तरह से धो लेना चाहिए।

चप्पल, जूते और सैण्डल से पैरों में दर्द-

        ऊंची एड़ी वाली सैंडल आदि पहनने से पैरों और पिण्डलियों में दर्द होना स्त्रियों के लिए एक सामान्य बात है लेकिन गर्भावस्था में स्त्री को ऊंची एड़ी के सैंडल आदि का प्रयोग न करके सामान्य चप्पलों का प्रयोग करना चाहिए। इससे स्त्री के फिसलने और गिरने का डर नहीं रहता है। घर पर भी स्त्री के लिए बिना एड़ी वाले साधारण चप्पल ही अच्छी रहती है।

        पैर शरीर का वह अंग है जो हृदय से दूर है। इस कारण रक्त का संचार पैरों में देरी से पहुंचता है और देर से ही लौटता है। इस कारण पैरों का खास ख्याल रखना जरूरी होता है। पैरों में लगी हुई चोट काफी देर से भर पाती है। खासकर उन स्त्रियों में जिनका ब्लडप्रेशर हाई हो, जिन्हे मधुमेह हो या जिनके शरीर में विषैलापन हो।

        शरीर का सम्पूर्ण भार पैरों द्वारा ही वहन किया जाता है। गर्भावस्था में शरीर के लिंगामेंट और मांसपेशियां ढीली हो जाने के कारण पैर फैल जाते हैं। पैरों की हडि्डयों में 3 प्रकार की कमानियां होती है। दो कमानियां जो आगे से पीछे की ओर होती है तथा एक कमानी एक तरफ से दूसरी तरफ को होती है। जिनको आर्चेज कहते हैं। यदि यह अधिक फैल जाती है तो स्त्री के पैरों में हमेशा के लिए दर्द की शिकायत हो सकती है।

        पैरों की देखभाल के लिए नियमित रूप से गर्म पानी में नमक डालकर पैरों को साफ करके मालिश करनी चाहिए। गर्भावस्था में चलते समय छोटे-छोटे कदम रखकर ही चलना चाहिए।

नाक से सांस का न आना-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स अधिक होने के कारण नाक के साईनस की दीवारों पर सूजन आ जाती है। यह सूजन म्यूकस मैमब्रेन में होती है। इसके कारण सांस लेने में कठिनाई हो जाती है। यह परेशानी गर्भावस्था के समय पूर्ण समय तक देखी गई है लेकिन बच्चे के जन्म के बाद यह शिकायत स्वयं ही दूर हो जाती है। इसके लिए लम्बी सांस का व्यायाम करना उचित होता है।

नाक से खून का निकलना-

        ब्लडप्रेशर अधिक होने के कारण कभी-कभी स्त्री की नाक से रक्तस्राव होने लगता है परन्तु यदि ब्लडप्रेशर ठीक हो और फिर भी नाक से रक्त आये तो इसका प्रमुख कारण नाक का दब जाना या हार्मोन्स के कारण नाक की दीवारों का रक्तसंचार बढ़ जाना होता है। कई बार तो नाक में उंगली डालने से भी नाक से खून निकलना शुरू हो जाता है। इसके लिए नाक में दवा की बूंदों या वैसलीन का प्रयोग किया जा सकता है।

कमर दर्द-

        आमतौर पर गर्भावस्था में स्त्रियों के शरीर का वजन बढ़ता चला जाता है जिसका प्रभाव स्त्री की मांसपेशियों और मुख्य रूप से कमर की हडि्डयों पर पड़ता है। स्त्री के शरीर में कमर दर्द होने का कारण कैल्शियम और प्रोटीन का कम मात्रा में होना है। इस कारण गर्भावस्था के दौरान स्त्री के भोजन में कैल्शियम तथा प्रोटीन की मात्रा अधिक होनी चाहिए और समय के अनुसार उसे हल्का व्यायाम करना चाहिए। शरीर का वजन सन्तुलित रखना चाहिए। स्त्री को गर्भावस्था के दौरान झुककर कार्य नहीं करना चाहिए। यह भी कमर दर्द का एक प्रमुख कारण होता है। शरीर का वजन दोनों पैरों पर एक समान मात्रा में रखना चाहिए तथा मांसपेशियों को खींचकर हल्का व्यायाम करना चाहिए। सोते या लेटते समय एक छोटा तकिया कमर के नीचे कुछ समय के लिए लगाया जा सकता है। इससे स्त्री को आराम और राहत मिलती है। स्त्री को सोते समय ढीले और सूती कपड़े पहनने चाहिए।

        जैसे-जैसे गर्भावस्था का समय बढ़ता जाता है वैसे-वैसे कूल्हे की हडि्डयों के लिंगामैंट (अस्थिबंध) (यह दो जोड़ों को बांधती है) स्वयं ही ढीली पड़ने लगते हैं। इसके कारण स्त्री के कूल्हों में दर्द होता है। इससे बचने के लिए स्त्री को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए या फिर प्रतिदिन के कार्य के बीच में आराम करके कमर और कूल्हों को आराम देना चाहिए। कई बार दर्द कूल्हे की हडि्डयों से पैर के पीछे की ओर भी चला जाता है। इस अवस्था में अधिक से अधिक आराम तथा हल्के व्यायाम करने चाहिए।

स्तनों में दर्द-

        गर्भाशय में बच्चे का आकार बढ़ने से मां के पेट का आकार बढ़ना एक स्वाभाविक बात है। इस कारण 6 महीने के बाद स्तनों के नीचे और स्तनों में दर्द हो सकता है। पेट के अन्य अंगों जैसे- लीवर, पेट, आंतों आदि पर भी दबाव पड़ता है।

स्त्री के पेट और टांगों में दर्द-

        गर्भ में धीरे-धीरे बच्चे का विकास होता रहता है तथा कूल्हे की हडि्डयों के जोड़ भी मुलायम होते जाते हैं। जिससे प्रसव के समय बच्चे को अधिक स्थान मिल सके और हडि्डयां सरलता से पीछे की ओर ढकेली जा सके। इस कारण स्त्री के पेट और टांगों में दर्द होना स्वाभाविक होता है।

हाथ-पैर की अंगुलियों का सुन्न हो जाना और सूजन आना-

        गर्भावस्था में स्त्री के शरीर में रक्त का संचार कम हो जाता है। इस दौरान स्त्री का वजन बढ़ना भी स्वाभाविक होता है जिसकी वजह से उसके हाथ-पैरों में सूजन आ जाती है। यह सूजन शरीर में पानी की अधिक मात्रा के कारण होती है, इसको एड़िमा कहते हैं। इस एकत्रित द्रव के कारण नसों और मांसपेशियों पर दबाव पड़ता है, जिसकी वजह से हाथ-पैरों की अंगुलियां सुन्न हो जाती है। चूंकि रात्रि में द्रव इकट्ठा होता रहता है। इस कारण सुबह के समय शरीर में सूजन अधिक होती है। इसके बाद जैसे ही स्त्री किसी कार्य में लग जाती हैं वैसे ही उसकी सूजन कम होना शुरू हो जाती है। स्त्रियों के शरीर में यह सूजन चेहरे-हाथ-पैर तथा जोड़ों आदि में अधिक होती है। पहनने वाले कपडे़ चुस्त होने से या ब्लडप्रेशर हाई होने से भी सूजन अधिक होती है। इस कारण स्त्रियों को खाने में कम मात्रा में नमक और प्रोटीन युक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। गर्भावस्था में अधिक देर तक बैठना, यात्रा करना या फिर देर तक खडे़ होना ठीक नहीं होता है। फिर भी सूजन में कमी न हो तो इसका कारण गुर्दे की कमजोरी हो सकती है। ऐसा होने पर डाक्टर की सलाह जरूर लेनी चाहिए।

कच्चे चावल मुल्तानी मिट्टी, कोयला, इमली या कच्चे आम खाने की इच्छा होना-


        गर्भावस्था के दौरान शरीर में कैल्शियम, प्रोटीन, लौह पदार्थ, विटामिन और लवण आदि की कमी के कारण अक्सर स्त्री ऐसे पदार्थों का सेवन करने लगती हैं जो शरीर के लिए हानिकारक होते हैं जैसे- मुल्तानी मिट्टी, कोयला, खट्टी चीजें, कच्चे चावल, इमली आदि। स्त्रियों की इस आदत को पाईका कहते हैं।  

शरीर में थकान और दर्द-

        सन्तुलित भोजन, पूरी नींद तथा मानसिक शान्ति गर्भावस्था में स्त्री के शरीर के लिए लाभकारी होती है। खून की कमी होने के कारण शरीर में थकान और दर्द बना रहता है। इस स्थिति में स्त्री के लिए 9-10 घंटों की नींद लेना जरूरी होता है। यदि कोई स्त्री एकसाथ इतनी नींद न ले सके तो उसके लिए दोपहर को सोना भी जरूरी होता है।  इससे उसे अपने शरीर की अन्य तकलीफों से भी राहत मिलती है।

मानसिक अशान्ति का होना-

        गर्भावस्था के समय अधिक हार्मोन्स बनने के कारण स्त्री कभी तो अचानक खुश हो जाती है और कभी अचानक ही दुखी हो जाती है। इसलिए स्त्री को हमेशा शान्तचित्त रहना चाहिए और हर बात को समझदारी से समझना चाहिए।

नींद का कम आना-


        गर्भावस्था के दौरान शरीर में विभिन्न प्रकार के बदलाव, मस्तिष्क में विभिन्न प्रकार की उलझनें तथा पारिवारिक, सामाजिक और आर्थिक चिन्ताओं के कारण स्त्री को रात के समय नींद नहीं आती है। इसके कारण स्त्री को अनिद्रा की शिकायत हो जाती है। ऐसी अवस्था में स्त्री को अपनी मानसिक परेशानियों और चिंताओं के बारे में अपने पति और घर वालों से बातें करनी चाहिए, जिससे उसका मन हल्का हो जाता है।

        रात में पेशाब करने के लिए बार-बार उठना भी गर्भावस्था में स्त्री के लिए सामान्य बात है लेकिन इससे स्त्री की नींद टूट जाती है और उसे दुबारा से नींद बहुत ही मुश्किल से आती है। इसलिए स्त्री को रात में सोने से पहले पेशाब कर लेना चाहिए और चाय-कॉफी आदि तरल पदार्थों का कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्म दूध, गर्म पानी की सिंकाई गुनगुने पानी में लाहौरी नमक से पैरों की पिण्डलियों की सिंकाई, तेल की हल्की मालिश करने से स्त्री को लाभ होता है और नींद भी अधिक आती है। दिन में योगा, व्यायाम तथा लम्बी सांस का अभ्यास करने से भी रात को अच्छी नींद आती है।

        यदि स्त्री को यह महसूस हो कि दिन में सोने से रात को पूरी नींद नहीं आती तो दिन में उसे केवल आराम ही करना चाहिए। लेटते समय दोनों करवटों से लेटते रहना चाहिए। कुछ समय सीधा लेटना भी लाभकारी होता है, इससे भोजन का शीघ्र पाचन होता है।

        गर्भावस्था के पहले 3 महीने में स्त्री में जी मिचलाना तथा उल्टी होना आदि विकार पैदा हो जाते हैं क्योंकि इस दौरान स्त्री के शरीर के हार्मोन्सों में बदलाव होता रहता है। इसके अगले 3 महीनों में मां को पेट में बच्चे की हलचल महसूस होने लगती है। इस कारण भी सोते समय मां की नींद टूट जाती है। गर्भावस्था के समय जैसे-जैसे समय व्यतीत होता जाता है वैसे-वैसे स्त्री के पेट के आकार में वृद्धि होती है। इसके अलावा स्त्री में मूत्र का अधिक आना, सांस लेने में कठिनाई होना, पेट में तकलीफ होना, बार-बार भूख का लगना, दस्तों का लगना, खुजली, थकान, दर्द आदि तकलीफें होने लगती है। इसके कारण स्त्री की नींद पूरी नहीं हो पाती है जो मस्तिष्क और नसों में थकान उत्पन्न करती है। इसलिए स्त्रियों को जब मस्तिष्क और नसों की कमजोरी होती है तो उसे रात में सपने आने लगते हैं।

        स्त्रियों को अपनी इस शिकायत को डाक्टर को दिखाना चाहिए। गर्भावस्था के प्रारम्भ में डाक्टर स्त्री को नींद की गोलियां नहीं देते हैं लेकिन इसके बाद हल्की नींद की दवाईयां सेवन करने के लिए देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान सिर दर्द-

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान शारीरिक परेशानी, पारिवारिक और मानसिक तनाव, गर्भावस्था की चिन्ताएं तथा ब्लडप्रेशर आदि कारणों से सिर दर्द हो सकता है। इसमें स्त्रियों के सिर में दर्द, आंखों के ऊपर दर्द, रोशनी से सिर दर्द, नज़र की कमजोरी आदि प्रमुख कारण होते हैं। हल्की दवा लेने से इनमें आराम आ जाता है। सिर दर्द को दूर करने के लिए नींद की दवा खाने से हानि हो सकती है।

पसलियों में दर्द-

        गर्भावस्था का समय बढ़ने के साथ-साथ बच्चेदानी का बढ़ना भी स्वाभाविक होता है। 32 से 36 सप्ताह में बच्चेदानी की ऊपरी सतह लगभग पसलियों के नीचे की सतह को दबाने लगती है जिसके कारण स्त्री के दाहिनी तरफ अधिक दर्द होता है क्योंकि बच्चेदानी दाहिनी तरफ अधिक बढ़ती है। कभी-कभी तो दर्द दोनों ओर ही बराबर बना रहता है। बैठने में दर्द, लेटने या चलने की तुलना में अधिक होता है।

        स्त्रियों को हमेशा अपने मूत्राशय को खाली करके रखना चाहिए जिससे बच्चेदानी का दबाव पसलियों पर कम बना रहे। जैसे ही बच्चे का सिर कूल्हे कि हडि्डयों में जाकर जमता है, दर्द स्वयं ही कम हो जाता है क्योंकि इस अवस्था में बच्चेदानी कुछ नीचे और आगे आ जाती है। परन्तु यह अवस्था स्त्रियों में गर्भावस्था के 36 सप्ताह के बाद आती है। दूसरी या तीसरी गर्भावस्था में इस प्रकार का दर्द स्वयं ही कम हो जाता है।

गर्भावस्था के दौरान यात्रा-

        यदि स्त्री का स्वास्थ्य तथा गर्भावस्था ठीक हो वह सामान्य यात्रा कर सकती है। यात्रा करने के लिए सबसे उपयुक्त और सुरक्षित साधन ट्रेन ही होता है क्योंकि गर्भवती स्त्री पैरों को ऊपर करके बैठ सकती है या स्थान मिलने पर लेट सकती हैं। जहां तक बस के द्वारा यात्रा करने का प्रश्न है, इसमें अचानक शरीर को झटका लगने की संभावना होती है तथा पैर को लटकाकर बैठना पड़ता है, जिससे पैरों में सूजन होना स्वाभाविक होता है। हवाई जहाज से यात्रा करने पर गर्भवती स्त्री को उल्टियां भी हो सकती हैं या हृदय भी खराब हो सकता है। रिक्शा या आटो रिक्शा में बैठने से पहले उसे धीरे से चलने के लिए कहना चाहिए। यदि किसी स्त्री का एक बार गर्भपात हो चुका हो तो उस स्त्री को जहां तक हो सके यात्रा नहीं करनी चाहिए।

पैदल चलना और घूमना-

        गर्भावस्था का सबसे अच्छा व्यायाम पैदल चलना, घूमना तथा खुली हवा में लम्बी सांस लेना होता है। इस दौरान धीरे-धीरे चलना, घूमना और व्यायाम करना चाहिए। तेज चलने या अधिक चलने की वजह से होने वाली थकान गर्भवती स्त्रियों के लिए हानिकारक हो सकती है। टहलते समय स्त्रियों को ऊंची एड़ी वाली सैण्डिलों को नहीं पहनना चाहिए।

गर्भावस्था में दवा का उपयोग-

        बिना अपने डाक्टर की राय लिए कोई भी दवा यदि गर्भवती स्त्री सेवन करती हैं तो यह उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकती है।

गर्भावस्था के दौरान धूम्रपान-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के लिए धूम्रपान करना बहुत ही हानिकारक होता है। 4 महीने के गर्भ से ही इसका प्रभाव बच्चे पर पड़ना शुरू हो जाता है। इसके प्रयोग से शरीर और मस्तिष्क के विकास में रुकावट आने लगती है। जिसकी वजह से बच्चे की मांसपेशियां और शरीर की हडि्डयां भी कमजोर हो जाती है। यदि कोई स्त्री सिगरेट पीती है तो उसका होने वाला बच्चा कमजोर होता है क्योंकि सिगरेट के धुंए से स्त्री के शरीर में विटामिन `बी` की कमी हो जाती है जो बच्चे और मां दोनों के लिए हानिकारक होती है। सिगरेट के धुएं से मां और बच्चे के शरीर में ऑक्सीजन उचित मात्रा में नहीं पहुंच पाती है और सिगरेट के धुएं में निकोटिन और मोनोक्साइड होते हैं, जो एक प्रकार का जहर होता है। यह शरीर को बहुत अधिक हानि पहुंचाते हैं जिससे रक्त के लाल सेल नष्ट हो जाते हैं। कम ऑक्सीजन से बच्चे का संबन्ध जो ओवल द्वारा होता है वह छूटने लगता है, जिससे बच्चे का न बढ़ना, बच्चे के शरीर में जन्म से कमी होना, मस्तिष्क का अविकसित होना, बच्चे का पेट में मर जाना, समय से पहले बच्चे का होना, बच्चेदानी की झिल्लियों का फटना, बच्चे में कमजोरी का आना, रक्तस्राव या ब्लडप्रेशर का अधिक होना, बच्चे के कानों का रोग और बच्चे का ऊंचा सुनना, दौरों की शिकायत होना, मां के सांस रोग के कारण बच्चे में रोग या फिर गर्भपात भी हो सकता है।

        जिन स्त्रियों के पति एक ही कमरे में गर्भवती स्त्री के साथ सिगरेट पीते हैं। वे इसके धुएं से अपनी पत्नी और होने वाले बच्चे को बीमारी से ग्रस्त कर देते हैं।

गर्भावस्था में शराब का प्रयोग-

        जो स्त्रियां गर्भावस्था के दौरान शराब का सेवन करती है, उनके होने वाले बच्चे के शरीर में बचपन से ही शारीरिक बनावट में कमी आ सकती है जैसे- बच्चे के शरीर की नसों का कमजोर होना, शरीर का विकास न होना तथा बच्चे के दूध के सेवन में कमी आना, बच्चे द्वारा मां का दूध नहीं खींच पाना, बच्चे का वजन कम होना, मस्तिष्क की कमजोरी चेहरे की बनावट में कमजोरी तथा कभी-कभी बच्चे के ऊपर होंठ तथा तालु में दरारे होना आदि विभिन्न विकार हो सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान तम्बाकू का सेवन-

        इसके प्रयोग से बच्चे का कमजोर होना, बच्चे का वजन तथा कद छोटा होना मुख्य लक्षण सामने आते हैं। तम्बाकू के सेवन से गर्भ में पल रहे बच्चे को बहुत ही हानि होती है। तम्बाकू के सेवन से निकोटिन नामक विषैला पदार्थ मां और बच्चे के शरीर में एकत्रित हो जाता है, जिससे गर्भ में बच्चे के शरीर को रक्त कम मात्रा में मिलता है तथा ओवल का आकार बढ़ने लगता है। तम्बाकू के सेवन से बच्चे का जन्म समय से पहले हो जाता है तथा बच्चे के जन्म के बाद गर्भाशय से अधिक मात्रा में रक्तस्राव होता है।

साइकिल चलाना-

        आमतौर पर गर्भावस्था के दौरान साइकिल चलाने से स्त्री को कोई हानि नहीं होती है परन्तु गर्भावस्था के प्रारम्भ में साइकिल चलाते समय यदि स्त्री गिर जाएं तो इससे उसे रक्तस्राव हो सकता है। गिरने से गर्भाशय की एमनीओटिक थैली से एमनीओटिक द्रव भी बह सकता है जिसके कारण गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। इसलिए गर्भावस्था के दौरान जहां तक हो सके साइकिल नहीं चलानी चाहिए।

वाहन चलाना-

        गर्भावस्था के दौरान घुड़सवारी करना और गाड़ी चलाना हानिकारक होता है। लेकिन जरूरत पड़ने पर गर्भवती स्त्री सावधानी पूर्वक सड़क के गड्ढों को बचाकर गाड़ी चला सकती हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखें कि गाड़ी चलाते समय अचानक ब्रेक लगाने, टायर का पंचर होने से उत्पन्न झटकों के कारण गर्भवती स्त्री के पेट में चोट लग सकती है।

गर्भावस्था में चोट लगना या गिर जाना-

        गर्भावस्था के अन्तिम 3 महीनों में स्त्री अगर किसी कारण से का गिर जाती है तो यह मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। यदि स्त्री पेट के बल गिरती है तो उसे और अधिक हानि होती है। कूल्हे के बल, हाथ के बल या कंधे के बल गिरने से गर्भ में बच्चे को हानि होती है। पेट में कोई नुकीली वस्तु या अधिक चोट लगने से एमनीओटिक थैली का द्रव बह सकता है जिसके कारण स्त्री का गर्भपात या बच्चे का जन्म समय से पहले भी हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान गिरने या चोट लगने पर शीघ्र ही डाक्टर को दिखाना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का तैरना-

        तैरना स्वास्थ्य के लिए बहुत ही लाभकारी होता है। गर्भवती स्त्री साफ पानी में तैर सकती हैं। गन्दे पानी में तैरने से विभिन्न प्रकार की खाज-खुजली शरीर में हो जाती है। तैरते समय अधिक ऊंचाई से कूदना, देर तक पानी में तैरकर शरीर को थका डालना तथा अधिक ठण्डे पानी में तैरना गर्भवती महिलाओं के लिए हानिकारक हो सकता है।

गर्भवती स्त्रियों की छाती में जलन-

         गर्भावस्था के दौरान बच्चे के दबाव के कारण पेट में भोजन आने की मात्रा काफी कम हो जाती है। भोजन अधिक या सामान्य रूप से लेने के कारण कई बार भोजन स्त्री के गले में आने लगता है। कभी-कभी तेज मसलों और चिकनाईयुक्त भोजन या एसिडिटी के कारण स्त्री की छाती में जलन होने लगती है। इस कारण गर्भवती स्त्री को थोड़ी-थोड़ी मात्रा में कई बार भोजन करना चाहिए तथा भोजन को पचाने के लिए थोड़ा-बहुत टहलना भी चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान पेट में गैस बनना-

        गर्भावस्था में आंतो पर बच्चे के दबाव और हार्मोन्स के कारण  स्त्री के पेट में गैस बनने लगती है। क्योंकि भोजन आंतों में धीरे-धीरे ही आगे बढ़ पाता है जिस कारण पेट में गैस बनने की प्रक्रिया स्वाभाविक है।

पतले दस्त-

        गर्भावस्था के दौरान अधिक मात्रा में भोजन, अधिक फल या मेवे आदि का सेवन करने से गर्भवती स्त्री को दस्त लगना शुरू हो जाते हैं। इसलिए गर्भवती स्त्री को हमेशा सन्तुलित मात्रा में ही भोजन का सेवन करना चाहिए। शरीर में ताकत पैदा करने वाली दवाईयों का अधिक मात्रा में सेवन, लौह पदार्थ या प्रोटीन की अधिकता से भी शरीर में दस्त होने शुरू हो जाते हैं। पतले दस्त के समय गर्भवती स्त्रियों को दही का सेवन करना चाहिए।

गर्भावस्था में उल्टी-

        गर्भावस्था में हार्मोन्स के कारण और बच्चे के दबाव के कारण स्त्री की आंतों में भोजन काफी समय तक बना रहता है। समय के अनुसार चूंकि भोजन पेट में आगे नहीं बढ़ पाता है, इस कारण पेट का फूलना, पेट में गैस का बनना, पाचन शक्ति का कमजोर होना, शरीर से पाचक द्रव अधिक मात्रा में निकलना, एसीडिटी का होना, भोजन से कम मात्रा में लाभदायक पदार्थों का शोषण होना, कब्ज की शिकायत होना प्रमुख हैं। इसके कारण स्त्रियों को उल्टी होती है या हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं। यह एक सामान्य समस्या है। तेज खुशबू भी मन को खराब कर सकती है। स्त्रियों को गर्भावस्था के दौरान तले-भुने पदार्थ तथा चाय, कॉफी का सेवन हानिकारक होता है। भोजन को थोड़ा-थोड़ा सा करके खाना चाहिए तथा भोजन गर्म और मीठी चीजों को कम से कम मात्रा में उपयोग करना चाहिए।

        गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ उल्टी ठीक होने लगती है क्योंकि शरीर में हार्मोन्स की मात्रा गर्भावस्था के शुरू की तुलना में काफी कम होती है।

        तुलसी की चाय, बिना दूध की हरी चाय, नींबू वाली चाय, कोई टाफी या पिपरमेंट की गोलियां तथा एक छोटी इलायची के सेवन से उल्टी के बाद मन को शान्ति मिलती है।

        गर्भावस्था के दौरान कुछ स्त्रियों को उल्टियां अधिक आती है तथा लगभग 12 सप्ताह के बाद भी बनी रहती है। ऐसी अवस्था को हाईपरईमेसिस कहते हैं। अधिक उल्टियों के कारण स्त्री को भोजन बिल्कुल भी नहीं पच पाता है। ऐसी स्थिति में उसे ग्लूकोज को घोलकर धीरे-धीरे प्रयोग करना चाहिए या हॉस्पिटल में जाकर ग्लूकोज की बोतले लगवायी चाहिए। इसके लिए डॉक्टर की राय लेनी जरूरी होती है। अधिक उल्टियों से पेशाब में एसिड अधिक आता है। ऐसी स्थिति को किटोसिस कहते हैं।

मुंह में थूक अधिक आना-

        मुंह में थूक पैदा करने वाली ग्रन्थियों के अधिक कार्य करने से मुंह में अधिक थूक आने लगता है। कभी-कभी तो इतनी अधिक मात्रा में थूक आता है कि बातें करते समय यह मुंह से निकलने लगता है। इससे मुंह साफ करते-करते रूमाल भी गीला हो जाता है। गर्भावस्था का समय बीतने के साथ-साथ मुंह से थूक आना कम होने लगता है। मुंह में अधिक थूक आने का कोई प्रमुख कारण नहीं होता है।

बेहोशी का आना-

        गर्भावस्था में स्त्री का ब्लडप्रेशर लो हो जाता है। कभी-कभी स्त्री को चक्कर और बेहोशी सी महसूस होने लगती है। कुछ स्त्रियां तो बेहोशहोकर जमीन पर गिर जाती है। बेहोशी होने के प्रमुख कारण शरीर में रक्त की कमी का होना या बच्चेदानी में अधिक रक्त का होना होते हैं। इस कारण ऑक्सीजनयुक्त रक्त महिलाओं के शरीर में कम हो जाता है और स्त्री बेहोश हो जाती है। जैसे ही स्त्री का सिर जमीन पर आता है वैसे ही रक्त मस्तिष्क में पहुंचने लगता है और उसे होश आ जाता है। ज्यादा देर तक खड़े होने के कारण या फिर अधिक यात्रा के कारण भी रक्त मस्तिष्क तक कम मात्रा में पहुंच पाता है और स्त्री बेहोश हो जाती हैं।

        स्त्रियों को चक्कर आने पर तुरन्त बैठ जाना चाहिए तथा लम्बी-लम्बी सांस लेनी चाहिए ताकि अधिक से मात्रा में ऑक्सीजन उनके शरीर में प्रवेश कर सके। इससे उनका ब्लडप्रेशर भी सामान्य हो जाता है।

इन्टरट्रीगो-

        स्त्री के शरीर के मोड़ों और किनारे की त्वचा जब लाल हो जाती है तो यह अवस्था इन्टरट्रीगो कहलाती है। गर्भावस्था में शरीर भारी होने के कारण स्त्री के स्तनों और जांघों के बीच की त्वचा, पेट और टांगों के बीच तथा बगलों में यह अवस्था मुख्य रूप से पाई जाती है। अधिक पसीना आने के कारण या फिर साफ-सफाई की कमी के कारण यह रोग हो जाता है। इस कारण सफाई के साथ-साथ ढीले और सूखे कपड़े पहने तथा पाउडर आदि का उपयोग करें।

कब्ज का होना-

        गर्भावस्था के अन्तिम महीने में स्त्री को अधिकतर कब्ज की शिकायत हो जाती है। इसका मुख्य कारण बच्चे का आंतो पर दबाव होता है। इसी के साथ-साथ शरीर की मांसपेशियां भी ढीली हो जाती हैं। स्त्रियों के शरीर में से एक हार्मोन्स भी निकलता है (रिलैक्सीन) जिससे प्रसव के समय मांसपेशियां ढीली हो जाती है। इसी के कारण आंतों में भोजन समय अनुसार आगे नहीं बढ़ पाता तथा स्त्रियों को कब्ज की शिकायत हो जाती है। कब्ज के कारण ही बवासीर उत्पन्न होती है।

गर्भावस्था के दौरान मूत्र अधिक मात्रा में आना-

        गर्भावस्था में बच्चेदानी का दबाव मूत्राशय की थैली पर पड़ने के कारण कम मात्रा में ही पेशाब एकत्र हो पाता है। इस कारण स्त्रियों को बार-बार पेशाब करने जाना पड़ता है। इसका इलाज बच्चे के जन्म के बाद ही होता है या फिर स्त्री को कम मात्रा में द्रव पदार्थों का प्रयोग करना चाहिए।

पेशाब के रास्ते बीमारियों का होना-


        स्त्रियों में मूत्रद्वार, योनि और मलद्वार काफी पास-पास होते हैं। यदि स्त्रियां इन अंगों की अधिक मात्रा में साफ-सफाई नहीं रखती है तो उसे पेशाब के रास्ते विभिन्न रोग हो जाते हैं। स्त्रियों में पेशाब की नलिका पुरुष की नलिका की तुलना में छोटी होती है। इसी कारण इस द्वार से रोग पेशाब की थैली तक आसानी से चले जाते हैं। इस रोग को सिस्टाईटिस कहा जाता है।

        इस रोग में पेशाब करने पर स्त्री को दर्द और जलन होने लगती है तथा पेशाब का द्वार लाल और सूजने लगता है। स्त्रियों का पेशाब, पीले रंग का, जलनदार या फिर रक्त वाला भी आ सकता है। कभी-कभी गर्भावस्था में स्त्रियां मल त्यागने के बाद अपने अंगों को ठीक प्रकार से नहीं धो पाती हैं या धोते समय हाथ योनि या मूत्र द्वार पर लगने से बीमारियां स्वयं ही पैदा हो जाती हैं। इसलिए मलद्वार को सामने की ओर से न धोकर हमेशा पीछे की ओर से धोना चाहिए। यदि पीछे से मलद्वार को धोने के लिए आपका हाथ न पहुंच रहा हो तो यह कार्य सावधानी से करना चाहिए। मलद्वार को गर्म पानी से धोना और सिंकाई करना लाभकारी होता है।

        इसलिए रोग हो जाने पर डॉक्टर से सलाह लेकर चिकित्सा करनी चाहिए। पानी अधिक मात्रा में पिएं और खाने वाले सोडे को पानी में डालकर पिएं। ऐसी स्थिति में भोजन के रूप में दही की लस्सी तथा फलों के रस का सेवन करना अधिक लाभकारी होता है।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों का ब्लडप्रेशर-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्री का अधिक वजन, पारिवारिक वातावरण में अशान्ति का होना, मानसिक परेशानियां तथा नींद ठीक प्रकार से न आने के कारण स्त्री का ब्लडप्रेशर अधिक हो जाता है। ब्लडप्रेशर अधिक होना गर्भावस्था में मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है। इसके कारण गर्भ में बच्चे के शरीर का अविकसित रह जाना, बच्चे का गर्भ के अन्दर ही मर जाना तथा बच्चे के जन्म (डिलीवरी) में अधिक रक्तस्राव होता है। ऐसी स्थिति में स्त्री को अधिक से अधिक आराम , अपने वजन को सन्तुलित रखना, मस्तिष्क को शान्त रखना चाहिए तथा भोजन में नमक और चिकनाईयुक्त खाद्य-पदार्थों तथा सूखे मेवे जैसे (ड्राईफ्रूट्स) का कम से कम मात्रा में सेवन करना ही लाभकारी होता है।

        गर्भावस्था की अवधि के दौरान स्त्रियों को अपने वजन और ब्लडप्रेशर की जांच करवाते रहना चाहिए ताकि इलाज में सावधानी रखी जा सके। गर्भवती स्त्रियों का ब्लडप्रेशर सामान्य रूप में अधिक से अधिक 120 तथा कम से कम 70 होना चाहिए। यदि स्त्रियों में ब्लडप्रेशर अधिक से अधिक 140 तथा कम से कम 90 तक हो जाए तो शीघ्र ही इसका इलाज करवाना चाहिए। वरना यह हानिकारक हो सकता है। ऐसी स्थिति में कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ गर्भावस्था का समय पूरा होने से पहले ही करा देते हैं।

गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों की आंखों में लेन्स लगाना-

        गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों के शरीर में द्रव पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्र होना शुरू हो जाता है। इसके कारण स्त्रियों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे- हाथ-पैर, चेहरे आंखों में भी सूजन आ जाती है। आंखों की सूजन के कारण आंखों में कान्टेक्ट लेंस सही प्रकार से नहीं लग पाते है और न ही उनकी कार्यक्षमता ही ठीक हो पाती है। गर्भावस्था के बाद जब स्त्रियों के शरीर में एकत्र हुआ द्रव धीरे-धीरे कम हो जाता है तो स्वयं ही लेंस ठीक स्थान ले लेते हैं तथा सूजन भी ठीक हो जाती है।

        स्त्रियों को इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि जब भी वे डॉक्टर के पास जाए तो डॉक्टर को पहले ही बता देना चाहिए कि आप आंखों में लेंस लगाते हैं। क्योंकि कभी-कभी गर्भावस्था के दौरान डॉक्टर आपकी आंखों को देखता है। इस कारण कहीं चोट, कोई, घाव, या आपको आंख में अल्सर न हो जाए।

        ऑपरेशन के समय भी बेहोश करने वाले डॉक्टर को यह मालूम होना चाहिए कि आप आखों में लेंस लगाती हैं। ऑपरेशन के समय लेंस का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

गर्भावस्था के दौरान आंखों के सामने अंधेरा छाना-


          गर्भावस्था में स्त्री की आंखों के सामने अंधेरा होने लगता है या उसे ऐसा प्रतीत होता है कि कोई काले रंग की वस्तु एक ओर से दूसरी ओर को जा रही है। जब स्त्री अपनी निगाह को दूसरी ओर घुमाती हैं तो यह परछाईं और गेंद की आकृति कुछ समय के लिए दूर हो जाती है। थोड़ी देर बाद यह फिर दिखाई पड़ने लगती है। कुछ स्त्रियों में इसके कारण सिर दर्द होने लगता है। यह असामान्य रोग अधिक रक्तचाप के कारण होता है। इसलिए शीघ्र ही अपने डॉक्टर को दिखाना चाहिए|

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