गर्भ में बच्चे का स्थान और आकार-

          मां के गर्भ में बच्चे का सिर सामान्य रूप से झुका हुआ, ठोड़ी छाती से लगी हुई तथा दोनों हाथ सामने से इस प्रकार से बंधे हुए कि दायां हाथ बाएं कंधे पर तथा बायां हाथ दाएं कंधे पर टिका हो, दोनों टांगे मुड़ी हुई, घुटनें मुडे़ हुए, कूल्हे मुड़े हुए और पेट से लगे हुए, दोनों पैर सामने मुडे़ हुए जो अपनी इन्द्रियों को ढके हुए होते हैं।

          बच्चे का यह आकार इस प्रकार का होता है कि उसके शरीर का कोई भी भाग बाहर नहीं निकला होता। गर्भ के बीच के समय में बच्चा इस प्रकार स्वतन्त्र होता है कि वह अपने हाथ पैर गर्भ में पूर्ण रूप से घुमा लेता है। जिसके कारण बच्चे का शरीर और उसकी मांसपेशियां विकसित होती हैं।

बच्चा लम्बाई में हो-

          गर्भ में बच्चे की इस प्रकार की अवस्था, जिसमें बच्चे की रीढ़ की हडि्डयां मां की रीढ़ की हडि्डयों के समानान्तर हो, इस अवस्था को बच्चे का लम्बाई में होना कहते हैं। 7 महीने के बाद बच्चा अपना स्थान ग्रहण करता है। इससे पहले बच्चा गर्भ में घूमता रहता है। लगभग 98 प्रतिशत बच्चे की गर्भ में यही अवस्था होती है।

गर्भ में बच्चे का तिरछा होना-

          गर्भ में जब बच्चे की रीढ़ की हडि्डयां मां की रीढ़ के समानान्तर न होकर कुछ तिरछी होती हैं तो इस अवस्था को बच्चे का गर्भ में टेढ़ा होना कहते हैं।

          गर्भावस्था में बच्चों की यह स्थिति केवल 1.5 प्रतिशत ही होती है। वह स्त्री जो बच्चे को जन्म दे चुकी हो या फिर वह स्त्री जिसके गर्भ में अधिक एमनीओटिक द्रव हो या जिसके पेट की मांसपेशियां कमजोर हो चुकी हो, उन स्त्रियों में मुख्यत: यह स्थिति पायी जाती है। कई बार प्रसव के समय बच्चा स्वयं ही लम्बाई में आ जाता है।

बच्चे की आड़ी स्थिति-

          गर्भ में बच्चे की आड़ी स्थिति केवल 5 प्रतिशत स्त्रियों में ही होती है। इस अवस्था में बच्चे की रीढ़ की हडि्डयां मां की रीढ़ की हडि्डयों के अनुसार आड़ी होती हैं। जो स्त्रियां कई बार बच्चे को जन्म दे चुकी हों उनमें यह यह स्थिति आती है। स्त्रियों में साधारण शारीरिक कमजोरी, मांसपेशियों की कमजोरी, तथा बच्चे के जन्म का रास्ता छोटा होने के कारण गर्भ में अधिक मात्रा में एमनीओटिक द्रव का होना, बच्चेदानी की बनावट में कमी होना, मां के पेट में रसौली का होना बच्चे के आड़ी स्थिति में होने के प्रमुख कारण होते हैं। प्रसव के समय कई बार बच्चे की आड़ी स्थिति ही बनी रहती है जिसके कारण बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करना अनिवार्य हो जाता है।

गर्भ में बच्चे की सही स्थिति-

          बच्चे का वह भाग, जो मां के कूल्हों के ऊपर प्रसव से पहले लगता हो, उस अवस्था को गर्भ में बच्चे की सही स्थिति कहते हैं। गर्भ में बच्चे के दो रूप ही प्रमुख हैं। पहला बच्चे का सिर कूल्हे पर आकर रुकना अर्थात शीर्ष स्थिति या फिर बच्चे का कूल्हा मां के कूल्हे पर आकर रुकना अर्थात ब्रीच प्रेजेन्टेशन।

          गर्भ में जब बच्चे की पीठ मां के पेट की ओर हो, चाहे बाईं तरफ या दाईं तरफ, बच्चे की इस अवस्था को सामने का रूप कहते हैं तथा जब गर्भ में बच्चे की रीढ़ की हड्डी मां की रीढ़ की हड्डी की तरफ हो तो उसे पीछे का रूप कहते हैं। ऐसी अवस्था में पहले बच्चे के जन्म में परेशानी आ सकती हैं क्योंकि बच्चे की इस अवस्था में पूरी तरह से प्रसव के लिए मुड़ना कठिन हो जाता है।

बच्चे की शीर्ष स्थिति-

          इस स्थिति में बच्चे का सिर मां के कूल्हों की आकृति में इस प्रकार होता है कि सिर अन्दर की ओर झुका हुआ और ठोडी छाती से लगी हुई होती है। गर्भाशय में बच्चे की इस अवस्था को शीर्ष स्थिति कहते हैं।

          जन्म के समय बच्चे के सिर के पीछे का भाग पहले बाहर निकलता है। इस प्रकार से बच्चे के जन्म होने की स्थिति को शीर्ष रूप में प्रसव कहते हैं। लगभग एक प्रतिशत ऐसा भी होता है कि गर्भ में बच्चे का सिर झुका न होकर आगे की ओर उठा होता है। ऐसी स्थिति में बच्चे की ठोड़ी छाती पर न रहकर आगे की ओर उठी रहती है। इसको चेहरे के रूप में प्रसव होना कहते हैं।

उल्टा बच्चा-

    जब बच्चे का जन्म कूल्हों के द्वारा होता है तो उस स्थिति को ब्रीच प्रेजेन्टेशन (उल्टा बच्चा) कहते हैं।
    बच्चे का यह रूप मां की कई बातों पर निर्भर करता है जैसे- ओवल का बच्चेदानी में नीचे स्थित होना, बच्चेदानी में रसौली का होना, बच्चेदानी की बनावट में कमी होना। यह रूप उस बच्चे में मुख्य रूप से देखा जा सकता है जो समय से पहले जन्म ले या फिर गर्भ में दो बच्चे हों, जिनमें से एक उल्टा हो। इस प्रकार के प्रसव में कई बार डाक्टर को ऑपरेशन करना पड़ सकता है।
    यदि बच्चे का आकार छोटा है तो इस रूप में भी प्रसव किया जा सकता है। परन्तु डाक्टर को इस प्रकार के प्रसव में जल्दी करनी पड़ती है जिससे बच्चे को सांस के लिए पूर्ण ऑक्सीजन समय पर मिल सके। इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शीघ्र प्रसव करने से बच्चे या मां को घाव भी हो सकता है।
    इस प्रकार के प्रसव में बच्चे के सिर को अन्दर की तरफ झुका दिया जाता है ताकि बच्चे को पैदा होने में आसानी हो सके। इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि कूल्हे के बाहर निकलने के बाद बच्चे की नाभि और सिर और मां की कूल्हे की हडि्डयों में न दब जाए। यदि यह अधिक देर तक दबा रह गया तो ऑक्सीजन और रक्त की कमी के कारण बच्चा मां के गर्भ में ही समाप्त हो सकता है। ऐसी स्थिति में बच्चे का जन्म लगभग 7 मिनट में कराना अनिवार्य हो जाता है। प्रसव से पहले का रूप, सिर की लम्बाई, चौड़ाई, आकार और मां के कूल्हों का आकार आदि के बारे में जानकारी होना ठीक रहता है जिससे ऐसी स्थिति को टाला जा सके।

बच्चे को बाहर से घुमाकर ठीक स्थिति में लाना-

    बच्चे को बाहर से घुमाकर ठीक स्थिति में लाना मां और बच्चे दोनों के लिए लाभदायक होता है। सही समय पर सही कार्य करना आवश्यक होता है, वरना सही परिणाम नहीं मिल पाता है तथा अन्त में बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है।
    गर्भावस्था के दौरान स्त्री को प्रत्येक दो सप्ताह के बाद अपने डॉक्टर के पास जाना चाहिए। लगभग 30 सप्ताह के बाद डॉक्टर के पास अवसर होता है कि वह बच्चे को सही दिशा और रूप में ला सके। 32 सप्ताह तक स्त्री जिसका पहला बच्चा हो तथा 34 सप्ताह बाद जिसका दूसरा या अन्य बच्चे हों, उनकी स्थिति ठीक की जा सकती है। बाहर से बच्चे को घुमाकर सही रूप और दिशा देने को ई.वी.सी कहते हैं। इस कार्य को सरलता के साथ बिना किसी कष्ट के साथ किया जा सकता है।
    इसके लिए सबस पहले स्त्री को लिटाया जाता है। इसके बाद उसके दोनों पैरों को कुछ ऊपर करके उससे कहा जाता है कि वह अपने शरीर को ढीला छोड़ दे। फिर डॉक्टर दोनों हाथों को सिर के पास रखकर हल्का सा दबा देता है तथा बच्चे के सिर को नीचे की ओर खिसकाता है। दूसरी तरफ बच्चे के शरीर को ऊपर की ओर घुमाने की कोशिश की जाती है। कार्य के पूरा होने के बाद स्त्री को लगभग 10 मिनट तक लेटा देना चाहिए। फिर स्त्री की पूर्ण रूप से जांच करनी चाहिए। बच्चे की दिल की धड़कन को सुनना चाहिए। इसके बाद स्त्री को एक सप्ताह के बाद फिर जांच करने के लिए दुबारा बुलाना चाहिए। जांच करने के लिए कभी-कभी स्त्री को बेहोश भी करना पड़ सकता है। कई बार तो 2-3 बार जांच करने पर इस अवस्था को ठीक किया जा सकता है। बच्चे की इस अवस्था को जितनी जल्दी हो सके, ठीक किया जाना चाहिए। इसमें देरी करने पर यह कार्य कठिन हो जाता है।

जुड़वां बच्चे-

          भारत में मात्र 1.5 प्रतिशत स्त्रियां जुड़वां बच्चों को जन्म देती हैं। यह देश, जाति तथा परिवार पर निर्भर करता है। अफ्रीका महाद्वीप में सबसे अधिक और चीन में सबसे कम जुड़वां बच्चे जन्म लेते हैं। यह स्त्रियों की आयु पर भी निर्भर करता है। लगभग 30 से 40 साल के बीच की उम्र वाली स्त्रियों के जुडवां बच्चे अधिक होते हैं और उनमें लड़कियों की संख्या अधिक होती है।

जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं-

1. जुड़वां बच्चों का एक जैसा होना-

          पुरुष का एक शुक्राणु स्त्री के अण्डे से मिलकर, एक ही बच्चे को जन्म देता है परन्तु मिलने के बाद यदि वह दो टुकड़ों में बंट जाता है तो 2 बच्चों का जन्म होता है। ऐसे दोनों बच्चे एक समान आकार के होते हैं। इनका लिंग भी एक समान होता है। इनके बालों का रंग, आंखों का रंग तथा शरीर की त्वचा का रंग भी एक समान होता है। इनके शरीर की संरचना भी एक समान होती है। इनका रक्त भी एक ही ग्रुप का होता है। एक ही ओवल से दो बच्चों को रक्त और ऑक्सीजन मिलती है तथा एक ही एमनीओटिक थैली होती है जिसमें बच्चे बड़े होते हैं। इस प्रकार दो गर्भ एक ही थैली से जन्म लेते हैं।

2. जुड़वां बच्चों का एक जैसा न होना-

          इस प्रकार से 2 शुक्राणु 2 अण्डों से मिलकर, दो बच्चों को जन्म देते हैं। गर्भ में दो ओवल दो अलग-अलग स्थान पर लगी रहती है। केवल बच्चेदानी एक होती है। इसमें शरीर की संरचना अलग-अलग होती है। कभी-कभी इनके लिंग भी अलग-अलग होते हैं। आज भी यह कहना कठिन है कि ऐसा होने का मुख्य कारण क्या है। इसके बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग धारणाएं हैं।

जुड़वां बच्चों की पहचान-

          स्त्री में समय के अनुसार बच्चेदानी का बड़ा दिखाई पड़ना, दो बच्चों की धड़कनों का सुनना, गर्भावस्था के 24 सप्ताह के बाद पेट में अचानक अधिक एमनीओटिक द्रव का बढ़ना और पेट का आकार अधिक बड़ा दिखना, मां के पेट का घेरा 70 से 112 सेंटीमीटर तक पहुंच जाना, गर्भावस्था में स्त्री के जांच के समय डॉक्टर को बच्चे के कई भाग महसूस होना, दो बच्चों के दिल की धड़कनों को जानना, अल्ट्रासाउन्ड द्वारा मालूम करना या फिर अगर बहुत जरूरी हो तो एक्स-रे द्वारा भी मालूम किया जा सकता है। एक्स-रे की किरणें मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होती हैं। इसलिए जहां तक हो सके इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।

          स्त्रियों में जुड़वां बच्चों का प्रसव कुछ जल्दी ही होता है। यह प्रसव 36 से 38 सप्ताह में होने से बच्चों का आकार अधिक नहीं बढ़ पाता है लेकिन बच्चे साधारण रूप से जन्म ले सकते हैं।

जुड़वां बच्चों के समय सामान्य शिकायतें-

          जुड़वां बच्चे होने के समय स्त्रियों में अधिक उल्टियां होना, दिल का खराब होना, रक्त की कमी होना, एमनीओटिक द्रव की अधिक मात्रा के कारण गर्भ का आकार बड़ा होना, पेट में दर्द होना, बेचैनी, शरीर पर सूजन, दौरों का पड़ना, अधिक वजन का बढ़ना, सांस का जल्दी-जल्दी आना, वेरीकोस धमनियां का होना, बवासीर का होना तथा भोजन का न पचना अन्य विकार होते हैं।

जुड़वां बच्चों के समय मुख्य ध्यान देने योग्य बातें-

          जैसे ही स्त्री को अपने गर्भ में जु़ड़वां बच्चे होने के बारे में पता चलें, वैसे ही उन्हें सन्तुलित भोजन करने पर ध्यान देना चाहिए, इससे उसके शरीर में रक्त की कमी नहीं होती है। भोजन में नमक का कम सेवन करना चाहिए ताकि उसका ब्लडप्रेशर न बढे़। वजन 13 किलोग्राम से अधिक नहीं बढ़ना चाहिए वरना उसे दौरे भी पड़ सकते हैं। शरीर पर सूजन नहीं होनी चाहिए। ज्यादा से ज्यादा आराम करना चाहिए। समय-समय पर अपने डॉक्टर के पास जाकर जांच करवाते रहना चाहिए।

          जुड़वां बच्चों के कारण दोनों बच्चों का वजन कुछ कम होता है। इस कारण ऐसी कोई घटना नहीं होनी चाहिए जिससे की समय से पहले प्रसव हो जाए। अगर ऐसा होता है तो दोनों बच्चों का वजन काफी कम हो सकता है। इस कारण स्त्री के लिए अपना ध्यान रखना बहुत ही जरूरी होता है। समय से पहले अस्पताल में आराम करना, पूरी नींद लेना, संभोग न करना तथा यदि स्त्री किसी दवा का प्रयोग करती हैं तो उसे डॉक्टर से सलाह लेकर ही दवा का सेवन करना चाहिए। त्वचा की देखरेख तथा बवासीर होने पर दवा का प्रयोग करते रहना चाहिए।

जुड़वां बच्चों का प्रसव-

          जुड़वां बच्चों का प्रसव 37 सप्ताह में होना ठीक माना जाता है। अगर यह प्रसव 35 सप्ताह में हो जाए तो जुड़वां बच्चे काफी कमजोर होते हैं। इस कारण जुड़वां बच्चों के समय अधिक सावधानी बरतने की जरूरत पड़ती है। पहले तो कोशिश करनी चाहिए कि समय से पहले बच्चे के जन्म को रोका जा सके। परन्तु किसी कारणवश यदि बच्चे के जन्म को नहीं रोका जा सका तो बच्चे को बचाने के सभी साधन उपलब्ध होने चाहिए। बच्चे का जन्म साधारण तरीके से हो या फिर ऑपरेशन द्वारा हो, दोनों ही अवस्थाओं में मां और बच्चे के लिए सभी जरूरी सुविधाएं होनी चाहिए। प्रसव के दर्द को कम करने के लिए दवा का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यदि प्रसव के लिए स्त्री का ऑपरेशन करना पड़ रहा हो तो उसकी रीढ़ की हडि्डयों में सुई लगाकर कमर के नीचे के भाग को सुन्न किया जा सकता है।

    जुड़वां बच्चों के प्रसव में अधिक समय लगता है। इसका प्रमुख कारण बच्चेदानी का दबाव कम हो जाना है क्योंकि बच्चेदानी की मांसपेशियां अधिक समय तक अधिक खिंची रहती हैं। इस कारण समय पर यह जल्दी सिकुड़ नहीं पाती हैं और प्रसव में अधिक समय लगता है।
    गर्भ में जुड़वां बच्चों का स्थान भी अलग-अलग होता है। पहले बच्चे का जन्म तो साधारण और सामान्य विधि द्वारा किया जा सकता है जबकि दूसरे बच्चे के लिए एमनीओटिक थैली को फाड़ना चाहिए जिससे एमनीओटिक द्रव बाहर निकले और दूसरे बच्चे का प्रसव संवेदन शुरू हो सके। इस बात का ध्यान रखें कि दूसरे बच्चे का स्थान गर्भ में कैसा है।
    यदि गर्भाशय में बच्चा उल्टा (ब्रीच प्रेजेन्टेशन) हो तो उसे बाहर से सीधा करने की कोशिश की जा सकती है परन्तु फिर भी यदि बच्चा सीधा न हो सके तो हाथ की अंगुलियों को योनि में प्रवेश कर बच्चे को घुमाकर सीधा किया जा सकता है। गर्भ में उल्टे बच्चे के पैर पकड़कर घुमाकर सीधा करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि किसी कारणवश फिर भी बच्चे को घुमाकर सीधा न किया जा सके तो फिर कूल्हे की विधि द्वारा बच्चे को पैदा करना उचित है या फिर बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करना पड़ सकता है।
    दोनों जुड़वां बच्चों के प्रसव के बाद ओवल का निकालना और रक्तस्राव को रोकने के लिए दवा का इन्जैक्शन देना जरूरी होता है।

योनि से रक्तस्राव-

          गर्भावस्था में हार्मोन्स का सन्तुलन बिगड़ जाने पर स्त्री को गर्भावस्था के शुरुआती दिनों में रक्तस्राव होने लगता है। हार्मोन्स को सन्तुलित बनाये रखने के लिए प्रोजेस्ट्रोन का इंजेक्शन लगाना अनिवार्य हो जाता है जिससे गर्भावस्था के दौरान रक्तस्राव होना बन्द हो जाता है। इसके साथ ही स्त्रियों को अधिक से अधिक आराम करना चाहिए।

          गर्भावस्था के आखिरी समय में गर्भाशय से रक्तस्राव होना मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है। इसका मुख्य कारण बच्चेदानी से ओवल का अलग होना होता है। यह एक प्रकार की आपातकालीन स्थिति होती है। इसलिए ऐसी स्थिति में तुरंत ही डाक्टर को दिखाना चाहिए। ऐसे लक्षण तभी सामने आते हैं जब ओवल बच्चेदानी के नीचे मुख्य द्वार पर हो जिसको प्लासैंटा प्रिविया कहते हैं। ऐसे लक्षणों में कई बार बच्चों को बचाने के लिए ऑपरेशन करना पड़ सकता है।

आर.एच.निगेटिव-

          यदि स्त्री का रक्त आर.एच.निगेटिव तथा उसके पति का रक्त आर.एच.पॉजिटिव हो तो जन्म लेने वाले बच्चे का रक्त निगेटिव या पॉजिटिव हो सकता है। यदि बच्चा निगेटिव है तो किसी की प्रकार की चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन यदि बच्चा आर.एच पॉजिटिव होगा तो वह मां के रक्त से रियेक्शन करके एन्टी-डी का निर्माण करेगा। इस प्रकार वह स्त्री दूसरी बार गर्भधारण के समय आर.एच. पॉजिटिव गर्भधारण करेगी। ऐसे में पैदा होने वाले बच्चे को पीलिया, रक्त में कमी, नसों की कमजोरी, मस्तिष्क की कमजोरी या स्त्री का गर्भपात भी हो सकता है। ऐसी अवस्था में रक्त की जांच करना बहुत जरूरी होता है ताकि बच्चे के जन्म के 48 घंटे के अन्दर मां को एन.टी.डी. का इन्जैक्शन लगाया जा सके।

दूसरे बच्चे का गर्भ में स्थान-

          यदि गर्भ में बच्चा उल्टा हो तो बच्चे को बाहर से ही सीधा करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि बाहर से बच्चा न घूम सके तो हाथ की अंगुलियों को स्त्री की योनि में डालकर बच्चे को घुमाया जा सकता है। बच्चे के पैरों को पकड़कर घुमाने की कोशिश करनी चाहिए। यदि फिर भी बच्चा घूम न सके तो पैरों द्वारा ही बच्चे को पैदा करना उचित होगा या फिर ऑपरेशन का सहारा लेना पड़ सकता है।

          दोनों बच्चों के प्रसव के बाद ओवल के निकलने और रक्तस्राव को रोकने के लिए आरगोमेटरिन या ऑक्सीटोसिन दवा को इंजैक्शन द्वारा दिया जाता है।

एमनीओटिक द्रव-

    मां के गर्भाशय में बच्चा हमेशा एक प्रकार के द्रव में घूमा करता है, जिसे एमनीओटिक द्रव कहते हैं। यह द्रव एक थैली में भरा होता है, जिसे एमनीओटिक थैली कहते हैं। जैसे-जैसे गर्भ बढ़ता है, इस द्रव में भी बदलाव आते रहते हैं। यह द्रव इतना होता है कि 16 सप्ताह से 30 सप्ताह तक बच्चा गर्भ में अच्छी तरह घूम सकता है। 35 सप्ताह के बाद बच्चा एक स्थिर अवस्था ले लेता है। इस अवस्था में यह द्रव धीरे-धीरे कम होने लगता है परन्तु फिर भी मात्रा इतनी जरूरी होती है कि इसमें बच्चा आसानी से घूमता रहे।
    स्त्री के शरीर में एमनीओटिक द्रव लगभग एक लीटर के आस-पास होता है लेकिन 36 सप्ताह के बाद एमनीओटिक द्रव कम होता जाता है। जब तक प्रसव का समय आता है, एमनीओटिक द्रव की मात्रा काफी कम हो जाती है। जब गर्भ 40 सप्ताह का हो जाता है तो द्रव केवल 800 सी.सी के लगभग होता है तथा जब गर्भ 42 सप्ताह का होता है तब यह द्रव केवल 200 सी.सी ही रह जाता है।
    गर्भावस्था की शुरुआत में यह द्रव पानी के समान पारदर्शक होता है। लेकिन जैसे-जैसे गर्भ बढ़ता है, इसका रंग हल्का और हरा पीलापन लिए हुए होता है। गर्भावस्था के अन्तिम समय में यह द्रव दुबारा पारदर्शी हो जाता है। एमनीओटिक द्रव गर्भावस्था के आठवें सप्ताह में बनना शुरू हो जाता है।

एमनीओटिक द्रव की मात्रा सप्ताह के अनुसार-



एमनीओटिक द्रव के कार्य-

    गर्भावस्था के दौरान बच्चा गर्भ में एमनीओटिक द्रव में ही घूमता और बढ़ता है।
    बच्चेदानी और बच्चे के बीच एमनीओटिक द्रव रहने से बच्चेदानी पर किसी भी प्रकार का दबाव नहीं पड़ता है।
    एमनीओटिक द्रव के कारण गर्भ में पल रहे बच्चे पर तापमान का प्रभाव नहीं पड़ता है।
    गर्भाशय में बच्चा एमनीओटिक द्रव को ही लेता है और इसी द्रव में मूत्र करता है।
    एमनीओटिक द्रव गर्भावस्था के समय पेट पर बाहरी चोट या आघात को सामान्य प्रभाव से बच्चेदानी में फैला देता है।
    यह द्रव ओवल को बच्चेदानी में सामान्य रूप से लगा रहने में मदद करता है।

          यह आज भी कहना मुश्किल है कि एमनीओटिक द्रव स्त्रियों के शरीर में किस प्रकार और कैसे बनता है। लेकिन आमतौर पर यह माना जाता है कि एमनीओटिक थैली की दीवार से यह द्रव बनता है। गर्भावस्था के समय 12 से 24 सप्ताह के दौरान यह द्रव अधिक मात्रा में बनकर इकट्ठा होता रहता है। इसके बाद धीरे-धीरे इस द्रव की मात्रा कम हो जाती है। यदि स्त्री को कोई रोग है तो फिर द्रव की इस मात्रा में भी अन्तर आ सकता है जैसे- गुर्दे का रोग। शारीरिक रूप से कमजोर स्त्रियों में एमनीओटिक द्रव काफी कम मात्रा में भी हो सकता है। बच्चे की शारीरिक संरचना में कमी होने के कारण यह बहुत अधिक या बहुत कम मात्रा में भी हो सकता है।

           गर्भावस्था में एमनीओटिक द्रव का शरीर से निकलना हानिकारक होता है। यदि यह द्रव अधिक मात्रा में निकल जाता है तो बच्चेदानी में प्रसव संवेदना शीघ्र शुरू होने के कारण समय से पहले ही बच्चे का जन्म हो सकता है। इस कारण गर्भावस्था के अन्तिम समय में यदि यह द्रव निकलने लगे तो अधिक से अधिक आराम करना चाहिए और डॉक्टर को भी सूचित करना चाहिए। स्त्री अपनी योनि में साफ कपास की रूई और कपडे़ की गद्दी लगाकर देख सकती हैं कि कितनी मात्रा में एमनीओटिक द्रव शरीर से बाहर निकल रहा है। यह विशेषतौर पर ध्यान देना चाहिए कि यह द्रव है या मूत्र आ रहा है। इसके उपचार के लिए दवाईयों और अधिक से अधिक विश्राम करने की आवश्यकता होती है।

लम्बी गर्भावस्था- गर्भावस्था के पूर्ण होने के अनुमानित समय से दो सप्ताह अधिक समय बीत जाने को लम्बी गर्भावस्था कहते हैं। गर्भावस्था का समय अधिक होना मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक हो सकता है जो निम्नलिखित हैं-

    गर्भावस्था का समय अधिक हो जाने पर एमनीओटिक द्रव कम होने लगता है। इसके कारण सूखा प्रसव हो सकता है।
    लम्बी गर्भावस्था में बच्चे के सिर की हडि्डयां अधिक मजबूत हो जाने के कारण प्रसव के समय स्त्री और बच्चे दोनों को परेशानी हो  सकती है।
    गर्भावस्था का समय अधिक होने पर ओवल से बच्चे को ऑक्सीजन युक्त रक्त मिलना कम हो जाता है तथा ओवल में बांझपन आ जाता है।
    लम्बी गर्भावस्था में कई बार बच्चे को पूर्ण रक्त न मिल पाने के कारण बच्चे के दिल की धड़कन समाप्त हो जाती है।

गर्भ में समय के अनुसार कमजोरियां-

          ओवल से बच्चे को ऑक्सीजनयुक्त रक्त ठीक और पूर्ण नहीं मिल रहा हो तो बच्चे का विकास रुक जाता है। समय अधिक होने के कारण बच्चा अपने समय से कमजोर और कम वजन का ही रहता है। ऐसी स्थिति में अच्छे भोजन की राय और दवाईयां देकर डॉक्टर यह देखते हैं कि बच्चे का बढ़ना ठीक है या नहीं। यदि फिर भी बच्चे का बढ़ना ठीक न हुआ तो इसे आई.यू.जी.आर कहते हैं। ओवल से कितनी मात्रा में रक्त बच्चे को मिल रहा है। इसका पता कलर डोपलर से लगाया जाता है। स्त्रियों में अधिक कमजोरी की स्थिति में शीघ्र प्रसव कराना ही लाभकारी होता है।

          ऐसी अवस्था में यह ध्यान रखना चाहिए कि अच्छा भोजन और आराम बच्चे के लिए लाभकारी होता है। मां को सोते समय बाईं करवट लेटना चाहिए जिसके कारण बच्चे को पूर्ण और अधिक मात्रा में रक्त प्राप्त होता है। स्त्रियों के निवास स्थान का वातावरण शुद्ध होना चाहिए। धुआं और प्रदूषण मां और बच्चे दोनों के लिए हानिकारक होता है।

रक्तचाप-

          गर्भावस्था के अन्तिम 3 महीनों में यदि स्त्री का ब्लडप्रेशर हाई हो तो भी बच्चे का विकास रुक जाता है। इस कारण समय-समय पर ब्लडप्रेशर की जांच करवाते रहना चाहिए। ब्लडप्रेशर यदि 140/90 से अधिक हो तो स्त्री के लिए अधिक से अधिक आराम, नमक का कम उपयोग, नींद की दवा (डाक्टर के अनुसार), हाई ब्लडप्रेशर को कम करने की दवा (डाक्टर के अनुसार), शरीर के वजन को सन्तुलित रखना, चिकनाई युक्त भोजन न करना, मानसिक परेशानी तथा सामाजिक और पारिवारिक चिन्ताओं से मुक्त रहना ही अच्छा रहता है। वरना ऐसी स्थिति में प्रसव को प्रेरणा करना ही ठीक होगा या फिर ऑप्रेशन भी करना पड़ सकता है।  

गर्भावस्था का विषैलापन-

          गर्भावस्था में स्त्रियों में अधिक रक्तचाप, मूत्र में प्रोटीन का आना, बाहों, अंगुलियों, पैरों और टखनों में सूजन, चेहरे का भारीपन, शरीर का वजन अधिक होना, बच्चे को पूर्ण ऑक्सीजनयुक्त रक्त का न मिलना, सन्तुलित रूप से भोजन न मिलना, बच्चे का समय बढ़ने के साथ कमजोर होना, इसको गर्भावस्था का विषैलापन कहते हैं। ऐसी अवस्था में प्रसव को प्रेरित करना या ऑपरेशन करना ही अच्छा रहता है अथवा मां और बच्चे दोनों के लिए ही खतरा हो सकता है।

मधुमेह-

          गर्भवती स्त्रियों की मधुमेह की जांच बहुत ही जरूरी होती है क्योंकि यह पहले या फिर गर्भावस्था में भी हो सकती है। इसके कारण होने वाला बच्चा आकार में अधिक बड़ा और भारी हो सकता है। ऐसी अवस्था में साधारण तरीके से प्रसव सम्भव और सुरक्षित नहीं होता है तथा बच्चे का जन्म ऑपरेशन से ही करना पड़ता है। स्त्रियों को ऐसी स्थिति में भोजन में मीठी चीजें जैसे- आलू, चावल, मीठा, मिठाई, मीठे पेय आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ तो समय से पहले ही गर्भवती स्त्री को प्रसव के लिए प्रेरित कर देते हैं। ताकि बच्चा अधिक बड़ा न हो जाए। यदि गर्भवती स्त्री के परिवार में किसी को मधुमेह का रोग हो तो अपने डाक्टर को इस बारे में जरूर बताना चाहिए।

          आमतौर हमारे देश में जन्म लेने वाले बच्चे का वजन लगभग 2.6 किलोग्राम होता है। यदि जन्म के समय बच्चे का वजन 4 किलोग्राम तक हो तो स्त्री को शीघ्र ही मधुमेह की जांच करानी चाहिए क्योंकि इस दशा में कभी भी आपको मधुमेह का रोग हो सकता है।

एमनीओटिक थैली का फटना-

          एमनीओटिक थैली के फटने के बाद यदि दर्द शुरू न हो तो बच्चे के जन्म के लिए लगभग 12 घंटे तक इन्तजार कर सकते हैं। वरना ऐसी स्थिति में प्रसव को तुरंत प्रेरित करना या ऑपरेशन करना अच्छा रहता है।

          एमनीओटिक थैली के फटने के बाद यह डर रहता है कि कहीं कीटाणु शरीर के अन्दर न चले जाएं या बच्चे की नाल या हाथ बाहर न आ जाए। नाल के बाहर आने पर बच्चे के जीवन को खतरा हो सकता है।

एक्स-रे-

          गर्भावस्था में एक्स-रे की किरणें स्त्री के शरीर के लिए हानिकारक होती हैं। इस कारण जहां तक हो सके इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए।  

नाभि नाड़ी-

          नाभि की नाड़ी स्त्री की नाभि से ओवल तक होती है। इसका प्रमुख कार्य ओवल से रक्त बच्चे की नाभि तक एक विशेष रक्तवाहिनी द्वारा पहुंचाना तथा बच्चे के शरीर से ओवल तक रक्त दो अम्बिलायकल आरटरी रक्त वाहनियों द्वारा पहुंचाना होता है। इस प्रकार इसमें दो आरटरी (रक्त वाहिनियां) तथा एक वैन (रक्तवाहिनी) होती है। यह रक्तवाहिनी पतली दीवार की होती है। इसकी पहचान इनके रंग के द्वारा ही की जाती है। तीनों रक्तवाहिनियां एक गाढे़ द्रव के आकार के पदार्थ से लिपटी होती है जिसको वारन्टस जैली कहते हैं। नाभि देखने में घुमावदार, मुड़ी लिपटी हुई लगभग 50 सेंटीमीटर लम्बी होती है। पूर्ण अवधि के बच्चे की नाभि व्यक्ति के हाथ की तर्जनी अंगुली के बराबर होती है।

          बच्चे के गर्भ में हलचल करने और घूमने के कारण इसमें कई बार गांठे पड़ जाती हैं। परन्तु गर्भ में इससे हानि नहीं होती है। प्रसव के समय यह गांठ अधिक तेज हो सकती है और प्रसव के समय बच्चे के शरीर में रक्तसंचार और ऑक्सीजन की कमी हो जाने के कारण ऑपरेशन करना पड़ता है। कभी-कभी नाल बच्चे के हाथ या फिर गले में लिपट जाती है। गर्दन में तो यह 6-7 बार लिपट जाती है। परन्तु गर्भ में यह किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं होती है। प्रसव में जैसे ही बच्चे का जन्म होता है। नाल को खींचने के कारण बच्चे को रक्त और ऑक्सीजन नहीं मिल पाता है जो बच्चे के लिए हानिकारक होता है। कभी-कभी गर्भ में ही नाल बच्चे की गर्दन पर इस प्रकार लिपट जाती है कि स्वयं ही बच्चे को ओवल से रक्त मिलना कठिन हो जाता है। प्रसव के प्रथम चरण में नाल लिपटने के कारण छोड़ी जाती है और खिंचाव के कारण बच्चेदानी से ओवल समय से पहले ही छूट जाता है। इस कारण अधिक रक्तस्राव तथा बच्चे का लिम्प (ढीला-ढाला बच्चे का पैदा होने के बाद न रोना) होना स्वाभाविक रूप से होता है।

          इस स्थिति में यदि ओवल बच्चेदानी में काफी ऊपर होता है तो बच्चे की गर्दन पर प्रसव के समय काफी खिंचाव आ जाता है। परन्तु ओवल नीचे हो जाए तो यह खिंचाव कम हो जाता है। ऐसी कठिनाई की अवस्था को प्रसव के केवल दूसरे चरण में ही पहचाना जा सकता है क्योंकि बच्चे के हृदय की धड़कन की गति तेज और धीमी हो सकती है। इस अवस्था को पहचानना कठिन होता है। वर्तमान समय में कलर डोपलर की सहायता से इस स्थिति को पहचाना जा सकता है।

औजारों द्वारा बच्चे का जन्म होना-

          कभी-कभी सामान्य रूप से प्रसव में कूल्हे की हडि्डयों की असामान्य बनावट या बच्चे का जन्मद्वार छोटा होने के कारण औजारों द्वारा प्रसव किया जाता है। इस विधि में औजारों द्वारा बच्चे की दोनों कनपटियों को पकड़कर खींचा जाता है। इस विधि द्वारा प्रसव को पूर्ण करने के लिए पैरानियम (मूलाधार) को सुन्न करके और काटकर प्रसवद्वार को अधिक चौड़ा किया जाता है। जिससे जन्म के समय बच्चे का सिर और शरीर सरलता से बाहर आ सके। हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे के सिर के अगले और पिछले भाग में हड्डी नहीं होती है तथा यह भाग बहुत मुलायम होता है। परन्तु बच्चे के सिर के दोनों ओर की हडि्डयां लचीली होती हैं जिसके बच्चे का जन्म आसानी से होता है।

दबाव रहित औजार द्वारा बच्चा होना-

               सिलीकोन या रबर द्वारा कटोरीनुमा इस औजार को गर्भ में बच्चे के सिर पर लगाया जाता है जो दूसरे किनारे पर एक पम्प से जुड़ा होता है। इसके द्वारा बच्चे के सिर और कटोरी के बीच में हवा के निकालने से वैक्यूम दबाव उत्पन्न होता है। जिससे बच्चे के सिर को गर्भ से सरलता से खींच सकते हैं।

ऑपरेशन द्वारा प्रसव का होना-

    ऑपरेशन के द्वारा बच्चा पैदा करने की क्रिया को सी.एस (कैसरीन सेक्शन) कहते हैं। बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करने के कई कारण हो सकते हैं। ऑपरेशन में स्त्री की नाभि के निचले हिस्से को काटकर बच्चे को पेट से बाहर निकाला जाता है।
    प्रसव के समय ऑपरेशन करने से पहले स्त्री का ब्लडप्रेशर, रक्त में हीमोग्लोबिन, ब्लडग्रुप, आर.एच.फैक्टर, ई.सी.जी. मूत्र और शुगर, एच.आई.वी आदि की जांच के करने के बाद चिकित्सक ऑपरेशन के लिए उसे कमरे में ले जाते हैं। कई बार तो बच्चे के दिल की धड़कन इतनी अधिक खराब हो जाती है कि इन जांचों को करने का समय तक तय नहीं होता है। इस कारण स्त्री को पहले से ही जांच करवा लेनी चाहिए। स्त्री को ऑपरेशन के समय बेहोश करने से पहले डाक्टर गर्भावस्था के दौरान हुई सभी जांचों की रिपोर्ट को देखता है। ग्लूकोज लगाने के बाद स्त्री की कमर के नीचे के हिस्से या फिर पूरे शरीर को सुन्न कर देते हैं। कमर से नीचे के हिस्से को सुन्न करने को स्पाईनल एनैस्थीसिया कहते हैं। स्त्री की कमर को सुन्न करने के लिए डॉक्टर इंजेक्शन का प्रयोग करते हैं। ऑपरेशन के समय पूर्ण रूप से स्त्री को बेहोश करने के लिए डाक्टर एक रबड़ की नली को स्त्री के फेफड़ों में डालकर नाईट्रस ऑक्साइड गैस और ऑक्सीजन गैस का सहारा लेते हैं।
    प्रसव के लिए ऑपरेशन के दौरान स्त्री रोग विशेषज्ञ स्त्री की नाभि के नीचे लगभग 12 से 15 सेमी का चीरा लगाते हैं। कुछ स्त्री रोग विशेषज्ञ ऑपरेशन के दौरान चीरा खड़ा न लगाकर आड़ा लगाते हैं जिससे ऑपरेशन का निशान शरीर पर न दिखें तथा यह केवल कपड़ों के अन्दर ही रहे। ऑपरेशन के बाद गले में कुछ खराश रहती है। यदि स्त्री को कमर से नीचे बेहोश किया जाता है तो उसे कम से कम 24 घंटे तक सिर के नीचे तकिया रखने को नहीं दिया जाता है। सिर उठाने से स्त्री के सिर में दर्द हो सकता है। इसी के साथ-साथ स्त्री के पैरों को कुछ ऊपर कर दिया जाता है। ऑपरेशन के दौरान अन्दर के टांके स्वयं घुलने वाले लगाए जाते हैं परन्तु ऊपर के टांके सिल्क से लगाये जाते हैं। इन टांको को सातवें या आठवें दिन खोला जाता है। स्त्रियों में ऑपरेशन के समय लगे हुए सभी टांकों को एक साथ भी खोला जा सकता है या तो बीच में एक-एक टांके को छोड़कर खोल सकते हैं। इसके बाद बचे हुए टांको को एक दिन के बाद खोला जाता है।
    स्त्रियां प्रसव का ऑपरेशन होने के एक दिन बाद अपने शरीर को हल्का सा हिला-डुला सकती हैं, अपने पैरों को समेटकर चारपाई से नीचे रखकर खड़ी हो सकती हैं। ऑपरेशन के बाद स्त्री को हल्का द्रव युक्त भोजन दूसरे या तीसरे दिन से देना शुरू करना चाहिए। इससे पहले ग्लूकोज ही शरीर में लगा रहता है। इसी के साथ-साथ मूत्रद्वार पर रबड़ की एक नली लगी रहती है जो एक मूत्र की थैली से जुड़ी रहती है तथा इसमें मूत्र इकट्ठा होता रहता है।
    यदि स्त्री का पहले एक बार ऑपरेशन हो चुका हो तो जरूरी नहीं कि दूसरी बार भी उसका ऑपरेशन हो। लेकिन यदि उसके कूल्हे की हडि्डयों का आकार छोटा है तो दूसरी तथा हर बार बच्चे के जन्म के लिए ऑपरेशन करना पड़ सकता है। ऑपरेशन करने के अन्य कारण बच्चे के दिल की धड़कन, प्रसव के लिए प्रेरित करना कामयाब न होना तथा बच्चे का आड़ी स्थिति में होना प्रमुख बाते हैं। स्त्रियों में पहले ऑपरेशन के निशान से बच्चेदानी कमजोर होती है तथा वहां से फटने का डर रहता है। इस कारण दूसरी बार भी डिलीवरी के समय शल्य चिकित्सा करनी पड़ सकती है। इसी कारण घर में डिलीवरी करना हानिकारक हो सकता है।
    बच्चे के जन्म के 40 दिनों तक स्त्री को पहले रक्त और फिर भूरे पीले रंग का द्रव आता रहता है तथा लगभग 40 दिनों के बाद यह समाप्त हो जाता है। यदि स्त्री बच्चे को स्तनपान करा रही हो तो स्तनपान के दौरान मासिक स्राव नहीं होता है। कुछ स्त्रियों को 6 से 9 महीने तक माहवारी नहीं आती परन्तु कुछ महिलाओं में यह जल्दी आ जाती है। प्रसव के बाद पहली माहवारी अधिक और लगभग 7 दिनों तक चलती है। इसके बाद फिर यह नियमित रूप से होने लगती है।
    बच्चे के जन्म के 40 दिनों के बाद ही सेक्स क्रिया करनी चाहिए या इसके लिए डॉक्टरों की सलाह भी ली जा सकती है। यदि स्त्री को डर हो कि वह फिर गर्भधारण न कर लें तो उसे परिवार नियोजन के साधनों को अपनाना चाहिए।
    बच्चे के जन्म के बाद स्त्रियों के शरीर के हार्मोन्स में अचानक बदलाव आ जाते हैं। साथ ही साथ बच्चे का जन्म, पारिवारिक स्थिति, शरीर आदि अनेक बातें स्त्री के मस्तिष्क में आती हैं। इस प्रकार की सोच स्त्री के लिए हानिकारक होती है। ऐसी स्थिति में स्त्री के लिए पति का साथ, परिवार वालों की तसल्ली, डाक्टर की सलाह और इलाज लाभकारी होता है।

प्रसव के समय संभावित समस्याएं-


Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel