मगधनरेश जरासन्ध कंस की दो रानियाँ थीं-अस्ति और प्राप्ति। इन रानियों का पिता था मगध नरेश जरासन्ध। दामाद के निधन और पुत्रियों के वैधव्य से क्षुब्ध जरासन्ध ने कृष्ण के यदुवंशी होने से प्रतिज्ञा धरती को यदुवंश से विहीन करने की कर युद्ध की तैयारी कर २३ अक्षौहिणी सेना से यदुवंशियों की राजधानी मथुरा को घेर लिया। कृष्ण और बलराम जी ने अपने दिव्यास्त्रों के प्रयोग से सारी सेना जरासन्ध की विनष्ट कर दी और जरासन्ध को छोड़ दिया। जरासन्ध इस तरह सत्रह बार मथुरा घेरता रहा। कृष्ण-बलराम जरासन्ध की सेनायें विनष्ट करते और उसे छोड़ते गये। अठारहवीं बार जरासन्ध ने कालयवन की संयुक्त सेना से मथुरा को घेर लिया। जरासन्ध और कालवन-ये दो विपत्तियाँ मथुरा पर टूट पड़ने को उद्यत हो गयीं। कृष्ण ने यहाँ नीति से काम लिया। श्रीकृष्ण ने समुद्र के भीतर ४८ कोस आयताकार का एक अभेद दुर्ग वास्तुशास्त्र के अनुरूप सड़कों, बगीचों, अन्न भण्डारण के पीतल-चाँदी के कोठों से सज्जित द्वारिकापुरी का निर्माण कर यदुवंशियों को उसमें सुरक्षित पहुँचा दिया।
शेष प्रजा की रक्षा में बलराम जी के नेतृत्व में मथुरा में सुरक्षित कर श्रीकृष्ण निशस्त्र मथुरा नगर के मुख्य द्वार से निकल कर कालयवन की दृष्टि में पड़ गये। कालयवन ने भी निश्चय किया कि वह भी निशस्त्र कृष्ण से लड़ेगा। वह भगवान श्रीकृष्ण की ओर दौड़ा। भगवान श्रीकृष्ण दौड़ते छिपते बहुत दूर एक पहाड़ी गुफा तक ले गये, जहाँ मुचुकुन्द दीर्घकालीन योगनिद्रा में डूबे पड़े थे। मुचुकुन्द इक्ष्वाकु वंशी महाराज मान्धाता के पुत्र थे। श्रीकृष्ण ने अपना वस्त्र धीरे से निद्रायोगी मुचुकुन्द के शरीर पर डाल दिया। कालयवन ने समझा यही कृष्ण है। उसने मुचुकुन्द को ठोकर मारी। मुचुकुन्द जगे, नेत्रों से जैसे ही काल यवन को देखा-कालयवन उस योगनिद्रा की तेजोमयी ज्वाला में भस्मसात हो गया। भगवान श्रीकृष्ण का दर्शन कर मुचुकुन्द कृतार्थ हुए। समय बीतता रहा।
कालान्तर में चलकर युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का आयोजन किया। दिग्विजय की योजना में संजयवंशी वीरों के साथ सहदेव को दक्षिण भेजा। नकुल को मत्स्यदेशीय वीरों के साथ पश्चिम में, अर्जुन को बेकमदेशीय वीरों के साथ उत्तर में और भीम को मद्रदेशीय वीरों के साथ पूर्व दिशा में भेजा युधिष्ठिर ने। सभी भाई अपने लक्ष्य में सफल होकर लौटे। पर, मगधराज जरासन्ध पर अभी विजय नहीं हुई थी।मगधराज जरासन्ध को जीतने के अभियान पर भीम, अर्जुन, कृष्ण ब्राह्मण वेश में मगध की राजधानी गिरिव्रज पहुँचे और जरासन्ध के पास जा भिक्षा की याचना किये। जरासन्ध दानशील और ब्राह्मण-भक्त था। जरासन्ध की तीक्ष्ण दृष्टि ने समझ लिया कि स्वर की कठोरता, दैहिक कठोरता, कलाइयों पर धनुष की प्रत्यंचा की रगड़ के चिह्न इन तीनों को ब्राह्मण सिद्ध न कर क्षत्रिय प्रमाणित कर रहे थे। फिर भी छल वश ब्राह्मण वेश इनका धारण किसी भय से हुआ था।
मगधराज जरासन्ध ने निश्चय मन में किया- यदि ये शीश भी मांगते हैं तो देने से पीछे वह नहीं हटेगा। उसने कहा - ब्राह्मणों! जो चाहो मांग लो। शीश तक देने को मैं तैयार हूँ।' श्रीकृष्ण ने कहा-'हमें अन्नभिक्षा नहीं, युद्ध भिक्षा दें। ये हैं भीम, अर्जुन और मैं हूँ कृष्ण।' जरासन्ध ठठाकर हँसा और बोला-'लो, प्रार्थना स्वीकार की मैंने, पर, कृष्ण तुम युद्ध में भय से जल्दी घबरा जाते हो, मथुरा छोड़ समुद्र भागे। अर्जुन छोटा और मेरी जोड़ का योद्धा नहीं है। रहा भीम, यह मेरी जोड़ का है।' यह कहकर जरासन्ध से भीम को एक गदा दे दी और खुद एक गदा लेकर नगर से बाहर निकल कर अखाड़े में एक दूसरे पर प्राणघातक वार करते थे। भयंकर युद्ध चला। रात को भीम और जरासन्ध चित्रवत एक साथ रहते-खाते, सोते, दिनभर प्राणों से खेलते। लड़ते-लड़ते सताइस दिन बीत चले। अठाइसवें दिन भीम ने कहा-कृष्ण! जरासन्ध को जीतना मेरे वश में नहीं दीख पड़ता। श्रीकृष्ण जरासन्ध के जन्म और मृत्यु का रहस्य जानते थे। जराराक्षसी ने जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़ों को जोड़कर इसे जीवन दान दिया है। श्रीकृष्ण ने भीम को दिखाकर एक वृक्ष की डाल को बीचोबीच से चीर दिया।
भीमसेन रणनीति समझ गये। उस दिन अखाड़े में जाते ही जरासन्ध के पैर पकड़कर उसे धरती पर गिरा दिया। फिर उसके पैर को अपने पैर से नीचे दबाया और दूसरे को अपने हाथों में से पकड़ कर उसे गुदा की ओर से चीर डाला। लोगों ने देखा जरासन्ध के शरीर के दो टुकड़े हो गये हैं। प्रजा विह्वल हो गयी। श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भीम का आलिंगन कर उनका सत्कार किया। जरासन्ध ने जिन राजाओं को बन्दी बना लिया था, उन्हें कारागार से श्रीकृष्ण ने मुक्त कर दिया। जरासन्ध के पुत्र सहदेव को श्रीकृष्ण ने मगधराज्य का उत्तराधिकारी बना दिया। सहदेव ने श्रीकृष्ण, भीम और अर्जुन का राजकीय सम्मान किया। युधिष्ठिर श्रीकृष्ण के अनुग्रह से अभिभूत थे। युधिष्ठिर के नेत्र डबडबा उठे, वे कृतज्ञता में कुछ कह सकने में असमर्थ थे श्रीकृष्ण के समक्ष..!
(फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी के लेख)