शेरशाह सूरी अकबर के पिता हुमायूँ के शत्रु होकर भी अकबर की सारग्राहिणी मेधा से जमीन और राजस्व की नयी नीति की नींव बने। शैशव नाम फरीद था शेरशाह का। इनके दादा हिन्दुस्तान आये और दिल्ली के मुस्लिम शासकों के यहाँ नौकरी कर लिये। हिन्दुस्तान की जमीन पर फरीद का जन्म हुआ। पिता हसन खाँ थे, जो जौनपुर के राज्यपाल के यहाँ नौकर थे। कुछ दिन बाद साहसाराम बिहार में हसन खाँ को जागीर मिल गयी, जहाँ जाकर रहने लगे। हसन खाँ की कई पत्नियाँ थीं। फरीद की मां से हसन खाँ की हमेशा ठनी रहती थी, जिसका एक कारण यह भी था कि हसन का व्यवहार फरीद के साथ अच्छा नहीं रहता था। दु:खी फरीद एक दिन जौनपुर भाग आये और यहीं रहकर फारसी में अनेकानेक ग्रंथ पढ़े और अनेक विद्याओं का गहन मंथन किया। ऊँचे खानदानों के मुस्लिम उस समय सेना की नौकरी के सामने शिक्षा को इतना महत्व नहीं देते थे। फरीद ने पढ़ने को प्राथमिकता दी।
हसन खाँ ने बेटे फरीद की कीर्ति से खुश होकर जौनपुर के राज्यपाल जमाल खां से गुजारिश फरीद को वापस सहसाराम भेजने की किया। पर फरीद ने पिता को लिखा कि सहसाराम से अधिक श्रेष्ठ विद्वान जौनपुर में हैं। विद्या, शिक्षा, कला और संस्कृति के शोध केन्द्र जौनपुर पर मुग्ध फरीद सहसाराम नहीं गया। दस वर्ष बीत गये, कुछ लोगों की मध्यस्थता से पिता-पुत्र में समझौता हो गया और फरीद लौटा। पिता से दाताले सहसाराम लौटा। पिता से हस्तक्षेप न करने की शर्त पर जागीर की व्यवस्था फरीद ने अपने हाथों में लिया। अनेक नौकरों को निकाल दिया और नये ईमानदार लोगों की नियुक्ति किया। फरीद की सफलता से विमाता और सौतेले भाई ईर्ष्यालु हो गये। पिता पुत्र में पुन: अनबन बढ़ गयी।
खिन्न फरीद ने सहसाराम छोड़कर बहादुर खाँ लोहानी के यहाँ नौकरी कर लिया। बहादुर खाँ लोहानी एक विशाल सेना के शक्तिशाली सेनानी थे। एक दिन ये जंगल में शिकार के लिये गये, थककर पेड़ की छाया में घने जंगल में सोने लगे कि एक दुर्दान्त शेर उन पर झपटा। फरीद ने तड़ाक से तलवार उठाया और एक झटके में शेर से उलझ गया। पैंतरेबाजी से फरीद शेर से लड़ने लगा। हतप्रभ बहादुर खाँ लोहानी मनुष्य और शेर का वह रोमांचक युद्ध देखता रहा। फरीद ने शेर मार गिराया। कृतज्ञ प्रसन्नता से अभिभूत बहादुर खाँ लोहानी ने शेर खाँ की खिताब से फरीद को विभूषित किया। यही शेर खाँ बादशाह होने के बाद शेरशाह हो गये! कुछ दिन बीत चले। पिता हसन खाँ की मृत्यु के बाद मुगल सम्राट शेर खाँ की बहादुरी से पूर्व परिचित होते हुए सहसाराम की सारी जागीर शेरखाँ को प्रदान कर दिया।
हुमायूँ जब दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब तक शेर खाँ शेरशाह हो चुके थे। जायसी ने अपने ग्रंथ पद्मावत में लिखा है - 'शेरशाह सूरी सुल्तानू। चारों खण्ड तपै जस भानू।।" हुमायूँ ने शेरशाह को रोकना चाहा। दोनों में अनेक युद्ध हुए। हुमायूँ हारे और काबुल की ओर भागे। शेरशाह भारत का सम्राट हो गये। शेरशाह का सारा राज्यकाल सुधार का युग है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों को समान समझते थे शेरशाह और भारत को अपनी मातृभूमि समझते थे। वह कठोर सैनिक अनुशासन रखता थे। अपराधियों पर सख्त था। रास्ते में सरायें बनवायीं और भोजन आदि का हिन्दू-मुस्लिम रीति से प्रबंध करवाया। गर्मी में पौसरे चलवाये। हिन्दुओं के लिये ब्राह्मण पानी पिलाने वाला रखा। पूरे राज्य की जमीन की पैमाइश करवाया। बीमा प्रणाली लागू किया, राजस्व तय किया, और उपज का चौथाई भाग अनाज या नकद लगान की अपनी स्वेच्छा से निर्धारित किया। किसान राजकोष से सीधे जुड़ गया। शेरशाह से पूर्व सरकारी सिक्के अव्यवस्थित थे।
शेरशाह ने फारसी और देवनागरी दोनों में सिक्के खुदवाये। राजभाषा और जनभाषा का समन्वय किया। अशोक द्वारा निर्मित प्राचीन राजमार्ग कलकत्ता से पेशावर तक जो था, शेरशाह ने पूरा बनवाया, अंग्रेजों ने ग्रांड ट्रंक रोड से उसी का पुनरुद्धार किया। शेरशाह ने दक्षिण में भी बुरहानपुर तक सड़कें बनवाया। सरायों, कुओं, पेड़ों और खान-पान से सड़कों को शेरशाह ने जोड़ा। साहसाराम में सुन्दर दुर्ग बनवाया, जिसके ध्वंसावेष अब बचे हैं। विन्ध्यप्रदेश पर हमलाकर कालिंजर किले को घेर लिया शेरशाह ने। भयानक युद्ध हुआ। बारूद में अचानक आग लग गयी। शेरशाह जल गये। फिर भी आत्मबाल से तब तक जीवित रहे जब तक किला फतह नहीं कर लिया गया। शेरशाह की मृत्यु के बाद आयोग्य उत्तराधिकारियों के चलते शासन मुगलों के हाथ आ गया। शेरशाह कुछ और जीवित रह जाते तो भारत अधिक समृद्ध हो गया होता।