बिम्बिसार महात्मा बुद्ध के समकालीन थे। भण्डार भर इन्हें 'नागवंश' का जानते थे। अश्वघोष का 'बुद्धचरित' हर्षक कुल का वंशज बताता है। संभवतः वज्जि राजा का, जिसका मगध पर आधिपत्य था सेनापति थे ये। बौद्ध 'महाकंस' बिम्बिसार के पिता ने १५ वर्ष की आयु में इनका राज्याभिषेक किया था। अन्य स्रोतों से इनके पिता का नाम 'भट्टिय' या 'महापद्म' था। बिम्बिसार का शासनकाल ५४४-४९३ ई.पू. है। लगभग ४९ वर्ष शासन किया इन्होंने, राजगृह राजधानी थी। वज्जि, कोसल, अवन्ति शक्तिशाली राज्य इनके पड़ोसी थे। राज्यविस्तार थे। बिम्बिसार ने कूटनीति और सैन्यनीति दोनों का सहारा लिया। राज्य-विस्तार में बिम्बिसार ने विवाह--सम्बन्धों के स्थापना की नीति विकसित किया। कहते हैं विवाह संबंधों से ५०० पत्नियाँ इनके अंतपुर में थीं। इनकी प्रधान पत्नी कोसलदेवी, कोसल नरेश प्रसेनजित की बहन थी। दहेज में काशीराज के कुछ भाग भी पाये थे। दूसरी पत्नी लिच्छविराज चटेक की पुत्री चेल्लना थीं।
लिच्छवि राज्य सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य तब माना जाता था। इनकी तीसरी पत्नी विदेहराज की पुत्री वासवी थी। चौथी पत्नी क्षेमा मध्य पंजाब के भद्रशासक की पुत्री थीं। यह विवाह-नीति एक कूटनीति का सफल भाग थी बिम्बिसार के। अवन्ति नरेश चण्ड प्रद्योत के इलाज में अपने राज्य चिकित्सक आर्य जीव को भेजकर सद्भाव-सूत्र विकसित किये। बिम्बिसार की मुख्य विजय अंगविजय थी जो समृद्ध राज्य था। अंग नरेश ब्रह्मदत्त ने बिम्बिसार के पिता को पहले हराया भी था। उसके उत्तर में बिम्बिसार के राज्य की राजधानी गिरिवज्र थी, बाद में राजगृह को इन्होंने राजधानी बनाया। व्यवस्थित शासन की नींव मगध राज्य में बिम्बिसार ने रखी। सड़कें, नहरें बनवायीं। लगान वसूली के लिये नियुक्तियाँ कीं। बिम्बिसार के राज्य में ८० हजार गाँव बताये गये हैं। एक योग्य शासक बिम्बिसार थे। राज्यकर्मचारी तीन भागों में बँटे थे। शासनाधिकारी 'सम्बत्यक' कहे जाते थे। न्यायकर्ता 'वोहारिक' कहाते थे और सैन्याधिकारी 'सेनानायक' कहे जाते थे।
अंगभंग, कोड़े लगाना, मृत्युदण्ड की दण्ड नीति प्रचलित थी। ललित कलाओं के विस्तार के लिये भी बिम्बिसार ने सहयोग दिये। नगरों का निर्माण और भव्य भवनों के निर्माण में बिम्बिसार जाना जाता है। धार्मिक दृष्टि बिम्बिसार की उदार थी। जैनग्रंथ बिम्बिसार को जैनी और बौद्धग्रंथ बौद्ध मतावलम्बी बताते हैं। पर, बिम्बिसार दोनों ही मतों के प्रति आस्थालु थे। पुत्र कुणिक (अजातशत्रु) के हाथों मारे गये। जैन मत में अजातशत्रु ने बिम्बिसार को बन्दीगृह में डाल दिया। बाद में पश्चात्ताप में वह छुड़ाने जा रहा था कि भयवश बिम्बिसार ने विषपान कर आत्महत्या कर ली। बौद्ध ग्रंथों के अनुसार अजातशत्रु ने भगवान बुद्ध के सामने अपने पाप स्वीकारे। 7 मगधराज अजातशत्रु बिम्बिसार का वध कर पुत्र अजातशत्रु (शासनकाल-४९३ ई.पू.-४६२ ई.पू.) सिंहासनारूढ़ हुआ। मगध की नयी राजधानी पाटलिपुत्र (पटना) का निर्माण आरम्भ किया। कोशलराज से युद्ध हुआ अजातशत्रु का। बिम्बिसार की पत्नी कोसल नरेश प्रसेनजित की बहन कोसलदेवी पति बिम्बिसार की मृत्यु के बाद शोकार्त्त प्राणोत्सर्ग कर दी। प्रसेनजित ने खिन्न होकर पितृघाती अजातशत्रु से बहन के दहेज में मिले काशी राज्य को वापस माँगा। इस पर युद्ध हुआ। प्रसेनजित को अजातशत्रु ने उनकी राजधानी सरस्वती तक पीछे धकेल दिया। पर, एक रणनीति में अकस्मात् आक्रमण कर प्रसेनजित ने अजातशत्रु को बन्दी बना लिया। फिर दोनों में सन्धि हो गयी।
प्रसेनजित ने अजातशत्रु को काशीराज्य तो लौटाया ही, अपनी पुत्री वजिरा का विवाह भी अजातशत्रु से कर दिया। अजातशत्रु ने लिच्छवि गणतंत्र को जीत लिया। इस संघ में ९ मल्ल राज्य, ९ लिच्छवि राज्य, १८ काशी एवं कोसल के गणराज्य आते थे। पूर्वी भारत का सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य था लिच्छवि गणसंघ। मगध और लिच्छवियों की प्रतिस्पर्धा का समापन ४८४-४६८ ई०पू० के १६ वर्षों में हुआ। लिच्छवियों के प्रमुख राजा चेटक ३६ गणराज्यों के नेता थे।और २५ चेटक ने वत्स, अवन्ति जैसे राजवंशों से पुत्रियों के विवाह-सम्बन्धों से शक्ति बढ़ा ली थी। रणभूमि के पास गंगा तट पर एक नया किला था अजातशत्रु ने युद्ध की तैयारी में बनवाया, जो बाद में 'पाटलिपुत्र' (पटना) महानगर के रूप में यशस्वी हुआ आज बिहार प्रदेश की राजधानी है। अपने मंत्री वस्सकार को लिच्छवियों में फूट डालने के लिये अजातशत्रु ने तीन वर्ष तक वैशाली में रखा। इस लक्ष्य में सफलता भी मिली अजातशत्रु को। महाशिला 'कण्टक (पत्थर- प्रक्षेपी यंत्र) एवं 'रथमूसल' (ऐसे रथ जिसमें तीक्ष्ण धार के लोह-दण्ड लगे होते थे, जिसका संचालन उसमें छिपकर बैठा व्यक्ति करता था) जैसे नवीन शस्त्रों की तकनीक विकसित किया। अजातशत्रु विजयी रहे।
लिच्छवि राज्य की स्वायत्तता तो रही, पर श्रेष्ठता जाती रही। अवन्ति शासक चण्ड प्रद्योत इससे अजातशत्रु से चिढ़ा पर, चाहकर भी मगध पर आक्रमण नहीं कर सका। जैनी अजातशत्रु को जैनी कहते हैं। पहले अजातशत्रु बुद्ध-विरोधी थे, पर बाद में श्रद्धालु हो गये। अजातशत्रु के समय ही राजगृह के पास बौद्धों की पहली सभा हुई। अजातशत्रु ने बौद्ध चैत्यों का निर्माण करवाया। अजातशत्रु के बाद पुत्र उदयभद्र ने शासन संभाला इन्होंने अवन्ति नरेश के पुत्र ‘पालक' (प्रद्योत पुत्र) को कई युद्धों में हराया। पर, एक दिन प्रवचन सुनते समय 'पालक' के एक व्यक्ति ने इनका वध कर दिया। उदयभद्र के बाद अनुरुद्ध, मुण्ड, नागदाशक राजा हुए। बाद में शिशुनाग ने इन्हें सत्ताच्युत कर नागवश की स्थापना किया। शिशुनाग ने ४३० -३६४ ई.पू. शासन किया मगध साम्राज्य पर। इसका अंतिम शासक कालाशोक था, जिसने पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया।
कालाशोक का आन्तरिक षड्यंत्र में नन्दवंश के संस्थापक ने वध कर दिया। मगध में नन्दवंश के राज्य की स्थापना (३६४ ई.पू. से ३२४ ई.पू.) हुई, जिसका अन्त कर चाणक्य के नेतृत्व में चन्द्रगुप्त मौर्य ने मौर्यवंश की स्थापना की। सिकन्दर महान ग्रीस (यूनान) के एक छोटे राज्य के शासक सिकन्दर ने एक विशाल साम्राज्य निर्मित किया। अपने युग का यह श्रेष्ठतम सेनानायक था, जिसमें विश्वविजय की लालसा तरंगित थी। पर्शिया के सम्राट डेरियस-तृतीय अरबेला-युद्ध में ३३० ई.पू. में उससे हारकर भागा और अन्ततः मारा गया। सिकन्दर ने सारे पर्शियन साम्राज्य को अपने नियंत्रण में लाकर विभिन्न जगहों पर नये नगरों की स्थापना और आत्मसुरक्षा सशक्त कर सिकन्दर (३३६-३२३ ई.पू.) ने ३२७ ई.पू. में भारत की ओर अपना मुंह मोड़ा। २६ ३२७ ई०पू. में सिकन्दर ने खैबर दर्रा पार किया। सेना का एक भाग सेनापतियों की अध्यक्षता में पेशावर के मैदान की ओर बढ़ चला और दूसरा भाग सिकन्दर के नियंत्रण में उत्तर-पूर्व के पहाड़ी क्षेत्र की ओर अग्रसर हुआ। सबसे पहले अश्वक जाति ने बड़े साहस से सिकन्दर की सेना का सामना किया। पुरुषों के साथ स्त्रियों ने भी युद्ध में भाग लिया। कड़े संघर्ष में भीषण नरसंहार के बाद सिकन्दर विजयी रहा।
सिकन्दर का दबदबा इतना बढ़ गया कि निसा के पहाड़ी राज्य ने आत्मसमर्पण में बुद्धिमानी समझा। पर, पुष्करावती राज्य ने जीने-मरने से आगे बढ़कर तूफान से टकराने में बुद्धिमानी मानी। ३० दिन भीषण युद्ध हुआ। पर, सिकन्दर की जीत हुई। तक्षशिला (सिन्धु और झेलम नदी के बीच के प्रदेश का राज्य) के शासक आम्भी ने सिकन्दर का अभिनन्दन किया। अपने शत्रु बड़े पोरस को विनष्ट करने के लिये सिकन्दर को आमंत्रित किया। उरशा के निकटवर्ती राज्यों ने सिकन्दर के नियंत्रण अंगीकार कर लिया। झेलम- रावी के बीच प्रदेशों के राजा बड़े पोरस ने सिकन्दर से युद्ध का निर्णय लिया, जबकि छोटे पोरस, जो बड़े पोरस का सम्बन्धी था, (चिनाव-रावी नदी के बीच वाले प्रदेशों का शासक), आंभी और पार्श्ववर्ती राज्यों ने सिकन्दर की अधीनता मानी और देशद्रोही हुए।
अभिसार का शासक अविश्वसनीय था। झेलम के तट पर बड़े पोरस की सेना डट गयी। सिकन्दर एक रात अंधेरे का सहारा लेकर उत्तर की ओर बढ़ा और झेलम पार कर लिया। पोरस के पुत्र के नेतृत्य में पोरस- सेना हटने को बध्य थी। पोरस स्वयं रणभूमि में आ गये। प्रात: वर्षा से भींगी भूमि में भयानक युद्ध पोरस-सिकन्दर की सेनाओं में हुआ। भूमि पर रखकर पोरस सेना के तीर-कमानों का संचालन वर्षा के चलते त्वरित नहीं हो पा रहा था। उधर घुड़सवार कीचड़ में भी सिकन्दर के तेजी से रणभूमि में लपकते रहे। इन सबकी चोट से पोरस के हाथी आहत हुए और पीछे की ओर अपनी ही सेना को रौंदते भाग चले। पोरस को ९ घाव लगे। वे हार गये। सिकन्दर के सामने लाया गया। सिकन्दर ने पूछा-'तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार किया जाय?' बन्दी-आहत पोरस ने कहा-'जैसा राजा राजा के साथ करते हैं।' सिकन्दर इस साहस और निर्भीकता पर दंग रहा। पोरस को छोड़ दिया, राज्य वापस कर दिया, कुछ अन्य प्रदेश भी दिये और मित्र बना लिया पोरस महान् को। आम्भी देखता रह गया।
छोटा पोरस अपना राज्य छोड़ भाग गया और अहष्ट और कठ के गणतंत्रों को सिकन्दर ने हरा दिया। व्यास नदी के तट तक पहुँची सिकन्दर की सेना इन छोटे राज्यों के जुझारूपन से हताश और सुदृढ़ मगध साम्राज्य से टकराने से कतराने लगी। घर याद आ रहे थे सबको। हथियार बेकार हो गये थे, कुछ सैनिक बीमार भी थे। सिकन्दर इनमें साहस पैदा नहीं कर सका।
(फणीन्द्र नाथ चतुर्वेदी के लेख)