दुष्यन्त आर्यवर्त के एक राजा थे। वे सुन्दर और युवा थे। उनकी राजधानी हस्तिनापुर थी। वे शिकार के बड़े शौकीन थे। एक दिन शिकार करते समय उन्होंने एक सुन्दर हिरण को देखा। हिरण ने कुछ क्षण बिना किसी भय के उनकी आंखों में आंखें डालकर झांका और फिर हवा की तेजी से दौड़ चला। राजा ने अपने सारथि से उसका पीछा करने के लिए कहा। बहुत देर तक पीछा करने के बाद राजा ने हिरण को जा पकड़ा। वह तीर चलाने ही वाले थे कि उन्होंने किसी के चिल्लाने की आवाज़ सुनी...!
“हे राजन्, हिरण पर तीर मत. चलाओ। वह महर्षि कण्व के आश्रम का हिरण है।" राजा ने तीर नहीं छोड़ा।
उन्होंने चारों ओर देखा कि यह आवाज़ किस की थी। उन्होंने एक तपस्वी को अपनी ओर आते देखा। उस तपस्वी ने हिरण की जान बचाने के लिए राजा को धन्यवाद दिया और साथ ही उन्हें महर्षि कण्व के आश्रम में आने का निमन्त्रण भी दिया।
"अवश्य,” दुष्यन्त ने उत्तर दिया, “मैं महर्षि के दर्शन करना चाहूंगा।"
"महर्षि तो तीर्थयात्रा पर गये हुए हैं,” युवक तपस्वी ने कहा, "लेकिन उनकी कन्या यहीं है और वह आपका एक सम्मानित अतिथि की तरह स्वागत करेगी।"
उसके बाद तपस्वी चला गया और उसने आश्रमवासियों को सूचना दी कि राजा दुष्यन्त पड़ोस के जंगल में ही शिकार करने आये हुए हैं शायद आश्रम में भी आयें। राजा अपने रथ पर से उतरे और अपना तीर-कमान सारथि को पकड़ा दिया। उसके बाद उन्होंने अपना मुकुट और आभूषण भी उतारने शुरू कर दिये।
"देव, आप यह क्या कर रहे हैं ?” सारथि ने आश्चर्य से पूछा।
"क्योंकि ऐसा करना ही ठीक है। पूजा, उपासना के स्थान पर विनीत भाव से ही जाना चाहिए,” राजा ने उत्तर दिया, “मेरे लौट आने तक घोड़ों को खोल दो। उन्हें चारा दे दो और आराम करने दो|” आश्रम के लिए जाते हुए राजा ने आदेश दिया।
दुष्यन्त आश्रम की ओर चल दिये। उन्हें कुछ आवाजें सुनाई दीं। पेड़ के पीछे छिपकर उन्होंने चारों ओर देखा कि आवाजें कहां से आ रही हैं। उन्होंने देखा कि थोड़ी दूर पर तीन रूपवती लड़कियां हाथों में घड़े लिए पौधों को पानी दे रही हैं।
अतिथि के आने से बेखबर वे हंस रही थीं और एक दूसरे से चुहलबाजी कर रही थीं|