सन् 1886 में मैने मैट्रिक की परीक्षा पास की। देश की और गाँधी-कुटुम्ब की गरीबी ऐसी थी कि अहमदाबाद और बम्बई -- जैसे परीक्षा के दो केन्द्र हो, तो वैसी स्थितिवाले काठियावाड़-निवासी नजदीक के और सस्ते अहमदाबाद को पसन्द करते थे। वही मैंने किया। मैने पहले-पहले राजकोट से अहमदाबाद की यात्रा अकेले की।
बड़ो की इच्छा थी कि पास हो जाने पर मुझे आगे कॉलेज की पढ़ाई करनी चाहिये। कॉलेज बम्बई में भी था और भावनगर का खर्च कम था। इसलिए भावनगर के शामलदास कॉलेज में भरती होने का निश्चय किया। कॉलेज में मुझे कुछ आता न था। सब कुछ मुश्किल मालूम होता था। अध्यापकों का नहीं, मेरी कमजोरी का ही था। उस समय के शामलदास कॉलेज के अध्यापक तो प्रथम पंक्ति के माने जाते थे। पहला सत्र पूरा करके मैं घर आया।
कुटुम्ब के पुराने मित्र और सलाहकार एक विद्वान , व्यवहार -कुशल ब्राह्मण मावजी दवे थे। पिताजी के स्वर्गवास के बाद भी उन्होंने कुटुम्ब के साथ सम्बन्ध बनाये रखा था। वे छुट्टी के इन दिनों में घर आये। माताजी और बड़े भाई के साथ बातचीत करते हुए उन्होंने मेरी पढ़ाई के बारे में पूछताछ की। जब सुना कि मैं शामलदास कॉलेज में हूँ , तो बोले , 'जमान बदल गया हैं। तुम भाईयों में से कोई कबा गाँधी की गद्दी संभालना चाहे तो बिना पढ़ाई के वह नहीं होगा। यह लड़का अभी पढ़ रहा हैं, इसलिए गद्दी संभालने का बोझ इससे उठवाना चाहिये। इसे चार-पाँच साल तो अभी बी. ए. होने में लग जायेगे , और इतना समय देने पर भी इसे 50-0 रुपये की मौकरी मिलेगी, दीवानगीरी नहीं। और अगर उसके बाद इसे मेरे लड़के की तरह वकील बनाये, तो थोड़े वर्ष और लग जायेगे और तब तक तो दीवानगीरी के लिए वकील भी बहुत से तैयार हो चुकेंगे। आपको इसे विलायत भेजना चाहिये। केवलराम (भावजी दवे का लड़का) कहता हैं कि वहाँ की पढ़ाई सरल हैं। तीन साल में पढ़कर लौट आयेगा। खर्च भी चार-पाँच हजार से अधिक नहीं होगा। नये आये हुए बारिस्टरों को देखों, वे कैसे ठाठ से रहते हैं! वे चाहे तो उन्हें दीवानगीरी आज मिल सकती हैं। मेरी तो सलाह है कि आप मोहनदास को इसी साल विलायत भेज दीजिये। विलायत मे मेरे केवलराम के कई दोस्त हैं, वह उनके नाम सिफारसी पत्र दे देगा, तो इसे वहाँ कोई कठिनाई नहीं होगी।'
जोशीजी ने (मावजी दवे को हम इसी नाम से पुकारते थे) मेरी तरफ देखकर मुझसे ऐसे लहजे में पूछा, मानो उनकी सलाह के स्वीकृत होने में उन्हें कोई संका ही न हो।
'क्यों, तुझे विलायत जाना अच्छा लगेगा या यही पढ़ते रहना? ' मुझे जो भाता था वहीं वैद्य मे बता दिया। मैं कॉलेज की कठिनाईयों से डर तो गया ही था। मैनें कहा, 'मुझे विलायत भेजे , तो बहुत ही अच्छा हैं। मुझे नही लगता कि मैं कॉलेज में जल्दी-जल्दी पास हो सकूँगा। पर क्या मुझे डॉक्टरी सीखने के लिए नहीं भेजा जा सकता ?'
मेरे भाई बीच में बोले : 'पिताजी को यह पसन्द न था। तेरी चर्चा निकलने पर वे यहीं कहते कि हम वैष्णव होकर हाड़-माँस की चीर-फाड़ का का न करे। पिताजी तो मुझे वकील ही बनाना चाहते थे।'
जोशीजी ने समर्थन किया : 'मुझे गाँधीजी की तरह डॉक्टरी पेशे से अरुचि नहीं हैं। हमारे शास्त्र इस धंधे की निन्दा नहीं करते। पर डॉक्टर बनकर तू दीवान नहीं बन सकेगा। मैं तो तेरे लिए दीवान-पद अथवा उससे भी अधिक चाहता हूँ। तभी तुम्हारे बड़े परिवार का निर्वाह हो सकेगा। जमाना बदलता जा रहा हैं और मुश्किल होता जाता हैं। इसलिए बारिस्टर बनने में ही बुद्धिमानी हैं।' माता जी की ओर मुड़कर उन्होंने कहा : 'आज तो मैं जाता हूँ। मेरी बात पर विचार करके देखिये। जब मैं लौटूँगा तो तैयारी के समाचार सुनने की आशा रखूँगा। कोई कठिनाई हो तो मुझसे कहियें।'
जोशीजी गये और मैं हवाई किले बनाने लगा।
बड़े भाई सोच में पड़ गये। पैसा कहाँ से आयेगा ? और मेरे जैसे नौजवान को इतनी दूर कैसे भेजा जाये !
माताजी को कुछ सूझ न पड़ा। वियोग की बात उन्हें जँची ही नहीं। पर पहले तो उन्होंने यही कहा : 'हमारे परिवार में अब बुजुर्ग तो चाचाजी ही रहे हैं। इसलिए पहले उनकी सलाह लेनी चाहिये। वे आज्ञा दे तो फिर हमें सोचना होगा।'
बड़े भाई को दूसरा विचार सूझा : 'पोरबन्दर राज्य पर हमारा हक हैं। लेली साहब एडमिनिस्ट्रेटर हैं। हमारे परिवार के बारे में उनका अच्छा ख्याल हैं। चाचाजी पर उनकी खास मेहरबानी हैं। सम्भव हैं, वे राज्य की तरफ से तुझे थोड़ी बहुत मदद कर दे।'
मुझे यह सब अच्छा लगा। मै पोरबन्दर जाने के लिए तैयार हुआ। उन दिनों रेल नहीं थी। बैलगाड़ी का रास्ता था। पाँच दिन में पहुँचा जाता था। मैं कर चुका हूँ कि मैं खुद डरपोक था। पर इस बार मेरा डर भाग गया। विलायत जाने की इच्छा ने मुझे प्रभावित किया। मैने धोराजी तक की बैलगाड़ी की। धोराजी से आगे, एक दिन पहले पहुँचने के विचार से, ऊँट किराये पर लिया। ऊँट की सवारी का भी मेरा यब पहला अनुभव था।
मैं पोरबन्दर पहुँचा। चाचाजी को साष्टांग प्रणाम किया। सारी बात सुनीयी। उन्होंने सोचकर दिया : 'मैं नहीं जानता कि विलायत जाने पर हम धर्म की रक्षा कर सकते हैं या नहीं। जो बाते सुनता हूँ उससे तो शक पैदा होता हैं। मैं जब बड़े बारिस्टरों से मिलता हूँ , तो उनकी रहन-सहन में और साहबों की रहन-सहन में कोई भेद नहीं पाता। खाने-पीने का कोई बंधन उन्हें नहीं ही होता। सिगरेट तो कभी उनके मुँह से छूटती नहीं। पोशाक देखो तो वह भी नंगी। यह सब हमारे कुटुम्ब को शोभा न देगा। पर मैं तेरे साहस में बाधा नहीं डालना चाहता। मैं तो कुछ दिनों बाद यात्रा पर जाने वाला हूँ। अब मुझे कुछ ही साल जीना हैं। मृत्यु के किनारे बैठा हुआ मैं तुझे विलायत जाने की -- समुंद्र पार करने की इजाजत कैसे दूँ? लेकिन में बाधक नहीं बनूँगा। सच्ची इजाजत को तेरी माँ की हैं। अगर वह इजाजत दे दे तो तू खुशी-खुशी से जाना। इतना कहना कि मैं तुझे रोकूँगा नहीँ। मेरा आशीर्वाद तो तुझे हैं ही। '
मैने कहा :'इससे अधिक की आशा तो मैं आपसे रख नहीं सकता। अब तो मुझे अपनी माँ को राजी करना होगा। पर लेली साहब के नाम आप मुझे सिफारिशी पत्र तो देंगे न?'
चाचाजी ने कहा: 'सो मैं कैसे दे सकता हूँ ? लेकिन साहब सज्जन हैं , तू पत्र लिख। कुटुम्ब की परिचय देना। वे जरूर तुझे मिलने का समय देंगे , और उन्हें रुचेगा तो मदद भी करेंगे।'
मैं नहीं जानता कि चाचाजी ने साहब के नाम सिफारिश का पत्र क्यों नहीं दिया। मुझे धुंधली-सी याद हैं कि विलायत जाने के धर्म-विरुद्ध कार्य में इस तरह सीधी मदद करने मे उन्हें संकोच हुआ।
मैने लेली साहब को पत्र लिखा। उन्होंने अपने रहने के बंगले पर मुझे मिलने बुलाया। उस बंगले की सीढियों को चढ़ते वे मुझसे मिल गये , और मुझे यह कहकर चले गये : 'तू बी.ए. कर ले, फिर मुझ से मिलना। अभी कोई मदद नही दी जा सकेगी।' मैं बहुत तैयारी करके, कई वाक्य रटकर गया था। नीचे झुककर दोनों हाथो से मैंने सलाम किया था। पर मेरी सारी मेहनत बेकार हूई!
मेरी दृष्टि पत्नी के गहनो पर गयी। बड़े भाई के प्रति मेरी अपार श्रद्धा थी। उनकी उदारता की सीमा न थी। उनका प्रेम पिता के समान था।
मैं पोरबन्दर से बिदा हुआ। राजकोट आकर सारी बातें उन्हें सुनाई। जोशीजी के साथ सलाह की। उन्होंने कर्ज लेकर भी मुझे भेजने की सिफारिश की। मैने अपनी पत्नी के हिस्से के गहने बेच डालने का सुभाव रखा। उनसे 2-3 हजार रुपये से अधिक नही मिल सकते थे। भाई ने, जैसे भी बने, रुपयो का प्रबंध करने का बीड़ा उठाया।
माताजी कैसे समझती ? उन्होंने सब तरफ की पूछताछ शुरु कर दी थी। कोई कहता, नौजवान विलायत जाकर बिगड़ जाते हैं ; कोई कहता, वे माँसाहार करने लगते हैं ; कोई कहता, वहाँ तो शराब के बिना तो चलता ही नहीँ। माताजी ने मुझे ये सारी बाते सुनायी। मैने कहा, ' पर तू मेरा विश्वास नहीं करेगी ? मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मैं इन तीनों चीजों से बचूँगा। अगर ऐसा खतरा होता तो जोशीजी क्यों जाने देते ?'
माताजी बोली, 'मुझे तेरा विश्वास हैं। पर दूर देश में क्या होगा ? मेरी तो अकल काम नहीं करती। मैं बेचरजी स्वामी से पूछँगी।'
बेचरजी स्वामी मोढ़ बनियों से बने हुए एक जैन साधु थे। जोशीजी की तरह वे भी हमारे सलाहकार थे। उन्होंने मदद की। वे बोले : 'मैं इन तीनों चीजों के व्रत दिलाऊँगा। फिर इसे जाने देने में कोई हानि नहीँ होगी।' उन्होंने प्रतिज्ञा लिवायी और मैंने माँस, मदिरा तथा स्त्री-संग से दूर रहने की प्रतिज्ञा की। माताजी मे आज्ञा दी।
हाईस्कूल में सभा हुई। राजकोट का एक युवक विलायत जा रहा हैं , यह आश्चर्य का विषय बना। मैं जवाब के लिए कुछ लिखकर ले गया था। जवाब देते समय उसे मुश्किल से पढ़ पाया। मुझे इतना याद हैं कि मेरा सिर घूम रहा था और शरीर काँप रहा था।
बड़ों के आशीर्वाद लेकर मैं बम्बई के लिए रवाना हूआ। बम्बई की यह मेरी पहली यात्रा थी। बड़े भाई साथ आये।
पर अच्छे काम में सौ विध्न आते हैं। बम्बई का बन्दरगाह जल्दी छूट न सका।