इस प्रकार मैं देश जाने के लिए बिदा हुआ। रास्ते में मारिशस (टापू ) पड़ता था। वहाँ जहाज लम्बे समय तक ठहरा था। इसलिए मै मारिशस में उतरा और वहाँ की स्थिति की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर ली। एक रात मैने वहाँ के गवर्नर सर चार्ल्स ब्रूस के यहाँ बितायी थी।
हिन्दुस्तान पहुँचने पर थोड़ा समय मैने घूमने-फिरने मे बिताया। यह सन् 1901 का जमाना था। उस साल की कांग्रेस कलकत्ते मे होने वाली थी। दीनशा एदलजी वाच्छा उसके अध्यक्ष थे। मुझे तो कांग्रेस मे तो जाना ही था। कांग्रेस का यह मेरा पहला अनुभव था।
बम्बई से जिस गाड़ी में सर फीरोजशाह मेहता रवाना हुए उसी में मैं भी गया था। मुझे उनसे दक्षिण अफ्रीका के बारे मे बाते करनी थी। उनके डिब्बे मे एक स्टेशन तक जाने की मुझे अनुमति मिली थी। उन्होंने तो खास सलून का प्रबन्ध किया था। उनके शाही खर्च और ठाठबाट से मै परिचित था। जिस स्टेशन पर उनके डिब्बे मे जाने की अनुमतु मिली थी , उस स्टेशन पर मैं उसमें पहुँचा। उस समय उनके डिब्बे में तबके दीनशाजी और तबके चिमनलाल सेतलवाड़ (इन दोनो को 'सर' की उपाधि बाद मे मिली थी) बैठे थे। उनके साथ राजनीतिक चर्चा चल रही थी। मुझे देखकर सर फिरोजशाह बोले, 'गाँधी, तुम्हारा काम पार न पड़ेगा। तुम जो कहोगे सो प्रस्ताव तो हम पास कर देंगे, पर अपने देश मे ही हमें कौन से अधिकार मिलते हैं ? मैं तो मानता हूँ कि जब तक अपने देश में हमें सत्ता नही मिलती, तब तक उपनिवेशों मे तुम्हारी स्थिति सुधर नही सकती।'
मैं तो सुनकर दंग ही रह गया। सर चिमनलाल ने हाँ में हाँ मिलायी। सर दीनशा ने मेरी ओर दयार्द्र दृष्टि से देखा। मैने समझाने का कुछ प्रयत्न किया, परन्तु बम्बई के बेताज के बादशाह को मेरे समान आदमी क्या समझा सकती था ? मैने इतने से ही संतोष माना कि मुझे कांग्रेस में प्रस्ताव पेश करने दिया जायगा।
सर दीनशा वाच्छा मेरा उत्साह बढाने के लिए बोले, 'गाँधी, प्रस्ताव लिख कर मुझे बताना भला !'
मैने उनका उपकार माना। दूसरे स्टेशन पर ज्यो ही गाड़ी खड़ी हुई , मैं भागा और अपने डिब्बे में घुस गया।
हम कलकत्ते पहुँचे। अध्यक्ष आदि नेताओं को नागरिक धूमधाम से ले गये। मैने किसी स्वयंसेवक से पूछा, 'मुझे कहाँ जाना चाहिये ?'
वह मुझे रिपन कॉलेज ले गया। वहाँ बहुत से प्रतिनिधि ठहराये गये थे। मेरे सौभाग्य से जिस विभाग में मैं था, उसी में लोकमान्य तिलक भी ठहरे हुए थे। मुझे याद पड़ता है कि एक दिन बाद पहुँचे थे। जहाँ लोकमान्य हो वहाँ छोटा सा दरबार तो गल ही जाता था। मैं चित्रकार होता, तो जिस खटिया पर वे बैठते थे, उसका चित्र खींच लेता। उस जगह का और उनकी बैठक का आज भी मुझे इतना स्पष्ट स्मरण हैं। उनसे मिलने आनेवाले अनगिनत लोगो में से एक ही नाम मुझे अब याद हैं -- 'अमृतबाजार पत्रिका' के मोतीबाबू। उन दोनो का खिलखिलाकर हँसना और राज्यकर्ताओं के अन्याय के विषय मे उनकी बाते भूलने योग्य नही है।
लेकिन वहाँ की व्यवस्था को थोड़ा देखें।
स्वयंसेवक एक-दूसरे से टकराते रहते थे। जो काम जिसे सौपा जाता , वह स्वयं उसे नही करता था। वह तुरन्त दूसरे को पुकारता था। दूसरा तीसरे को। बेचारा प्रतिनिधि तो न तीन मे होता , न तेरह में।
मैने अनेक स्वयंसेवको से दोस्ती की। उनसे दक्षिण अफ्रीका की कुछ बाते की। इससमे वे जरा शरमिन्दा हुए। मैने उन्हें सेवा का मर्म समझाने का प्रयत्न किया। वे कुछ समझे। पर सेवा की अभिरुचि कुकुरमुत्ते की तरह बात की बात मे तो उत्पन्न नहीं होती। उनके लिए इच्छा चाहिये और बाद मे अभ्यास। इन भोले और भले स्वयंसेवको में इच्छा तो बहुत थी , पर तालीम और अभ्यास वे कहाँ से पाते ? कांग्रेस साल में तीन दिन के लिए इक्टठा होकर फिर सो जाती थी। साल मे तीन दिन की तालीम से कितना सीखा जा सकता था ?
जैसे स्वयंसेवक थे, वैसे ही प्रतिनिधि थे। उन्हें भी इतने ही दिनो की तालीम मिलती थी। वे अपने हाथ से अपना कोई भी काम न करते थे।
सब बातो मे उनके हुक्म छूटते रहते थे। 'स्वयंसेवक यह लाओ, स्वयंसेवक वह लाओ' चला ही करता था।
अखा भगत (गुजरात के एक भक्तकवि। इन्होने अपने एक छप्पय में छुआछूत को 'आभडछेट अदकेरो अंग' कहकर उसका विरोध किया हैं और कहा हैं कि हिन्दू धर्म मे अस्पृश्यता के लिए कोई स्थान नहीं हैं।) के 'अदकेरा अंग' 'अतिरिक्त अंग' का भी ठीक-ठीक अनुभव हुआ। छुआछूत को मानने वाले वहाँ बहुत थे। द्राविड़ी रसोई बिल्कुल अलग थी। उन प्रतिनिधियों को तो 'दृष्टिदोष' भी लगता था ! उनके लिए कॉलेज के अहाते मे चटाइयो का रसोईघर बनाया गया था। उसमे घुआँ इतना रहता था कि आदमी का दम घुट जाय। खाना-पीना सब उसी के अन्दर। रसोईघर क्या था , एक तिजोरी थी। वह कहीं से भी खुला न था।
मुझे यह वर्णधर्म उलटा लगा। कांग्रेस मे आने वाले प्रतिनिधि जब इतनी छुआछूत रखते हैं , तो उन्हें भेजने वाले लोग कितनी रखते होंगे ? इस प्रकार का त्रैराशिक लगाने से जो उत्तर मिला, उस पर मैंने एक लम्बी साँस ली।
गंदगी की हद नही थी। चारो तरफ पानी ही पानी फैल रहा था। पखाने कम थे। उनकी दुर्गन्ध की याद आज भी मुझे हैरान करती हैं। मैने एक स्वयंसेवक को यह सब दिखाया। उसने साफ इनकार करते हुए कहा, 'यह तो भंगी का काम हैं।' मैं झाड़ू माँगा। वह मेरा मुँह ताकता रहा। मैने झाडू खोज निकाला। पाखाना साफ किया। पर यह तो मेरी अपनी सुविधा के लिए हुआ। भीड़ इतनी ज्यादा थी और पाखाने इतने कम थे कि हर बार के उपयोग के बाद उनकी सफाई होनी जरुरी थी। यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी। इसलिए मैने अपने लायक सुविधा करके संतोष माना। मैने देखा कि दूसरो को यह गंदगी जरा भी अखरती न थी।
पर बात यहीं खतम नही होती। रात के समय कोई-न-कोई तो कमरे के सामने वाले बरामदे मे ही निबट लेते थे। सवेरे स्वयंसेवको को मैने मैला दिखाया। कोई साफ करने को तैयार न था। उसे साफ करने का सम्मान भी मैने ही प्राप्त किया।
यद्यपि अब इन बातो मे बहुत सुधार हो गया हैं , फिर भी अविचारी प्रतिनिधि अब तक कांग्रेस के शिविर को जहाँ-तहाँ कांग्रेस के शिविर को जहाँ-तहाँ मल त्याग करके गन्दा करते हैं और सब स्वयंसेवक उसे साफ करने के लिए तैयार नहीं होते।
मैने देका कि अगर ऐसी गंदगी मे कांग्रेस की बैठक अधिक दिनो तक जारी रहती, तो अवश्य बीमारी फैल जाती।