मणीलाल स्वस्थ तो हुआ , पर मैने देखा कि गिरगाँव वाला घर रहने योग्य नही था। उसमे सील थी। पर्याप्त उजाला नही था। अतएव रेवा-शंकर भाई से सलाह करके हम दोनो ने बम्बई के किसी उपनगर मे खुली जगह बंगला लेने का निश्चय किया। मैं बांदरा, सांताक्रूज वगैरा मे भटका। बांदरा मे कसाईखाना था , इसलिए वहाँ रहने की हमने से किसी की इच्छा नही हुई। घाटकोपर वगैरा समुद्र से दूर लगे। आखिर सांताक्रूज मे एक सुन्दर बंगला मिल गया। हम उसमे रहने गये और हमने यह अनुभव किया कि आरोग्य की दृष्टि से हम सुरक्षित हो गये हैं। मैने चर्चगेट जाने के लिए पहले दर्जे का पास खरीद लिया। पहले दर्जे मे अकसर मैं अकेला ही होता था, इससे कुछ गर्व का भी अनुभव करता था, ऐसा याद पड़ता हैं। कई बार बांदरा से चर्चगेट जाने वाली खास ट्रेन पकड़ने के लिए मै सांताक्रूज से बांदरा तक पैदल जाता था।
मैने देखा कि मेरा धंधा आर्थिक दृष्टि से मेरी अपेक्षा से अधिक अच्छा चल निकला। दक्षिण अफ्रीका के मुवक्किल मुझे कुछ-न-कुछ काम देते रहते थे। मुझे लगा कि उससे मेरा खर्च सरलता-पूर्वक चल जाएगा।
हाईकोर्ट का काम तो मुझे अभी कुछ न मिलता था। पर उन दिनों 'मूट' (अभ्यास के लिए फर्जी मुकदमे मे बहस करना) चलती थी, मै उसमे मै जाया करता था। चर्चा मे सम्मिलित होने की हिम्मत नही थी। मुझे याद है कि उसमे जमियतराम नानाभाई अच्छा हिस्सा लेते थे। दूसरे नये बारिस्टरो की तरह मै भी हाईकोर्ट मे मुकदमे सुनने जाया करता था। वहाँ तो कुछ जानने को मिलता, उसकी तुलना मे समुद्र की फरफराती हुई हवा मे झपकियाँ लेने मे अधिक आनन्द आता था। मै दूसरे साथियो को भी झपकियाँ लेते देखता था , इससे मुझे शरम न मालूम होती थी। मैने देखा कि झपकियाँ लेना फैशन मे शुमार हो गया था।
मैने हाईकोर्ट के पुस्तकालय का उपयोग करना शुरु किया और वहाँ कुछ जान-पहजान भी शुरु की। मुझे लगा कि थोडे समय मे मै भी हाईकोर्ट मे काम करने लगूँगा।
इस प्रकार एक ओर से मेरे धंधे मे कुछ निश्चिन्तता आने लगी।
दूसरी ओर गोखले की आँख तो मुझ पर लगी ही रहती थी। हफ्ते मे दो-तीन बार चेम्बर मे आकर वे मेरी कुशल पूछ जाते और कभी कभी अपने खास मित्रों को भी साथ मे लाया करते थे। अपनी कार्य-पद्धति से भी वे मुझे परिचित करते रहते थे।
पर यह कहा जा सकता हैं कि मेरे भविष्य के बारे मे ईश्वर ने मेरा सोचा कुछ भी न होने दिया।
मैने सुस्थिर होने का निश्चय किया और थोडी स्थिरता अनुभव की कि अचानक दक्षिण अफ्रीका का तार मिला, 'चेम्बरलेन यहाँ आ रहै हैं, आपको आना चाहिये।' मुझे अपने वचन का स्मरण तो था ही। मैने तार दिया, 'मेरा खर्च भेजिये, मै आने को तैयार हूँ।' उन्होंने तुरन्त रुपये भेज दिये और मै दफ्तर समेट कर रवाना हो गया।
मैने सोचा था कि मुझे एक वर्ष तो सहज ही लग जायगा। इसलिए बंगला रहने दिया और बाल-बच्चो को वहीं रखना उचित समझा।
उस समय मै मानता था कि जो नौजवान देश मे कोई कमाई न करते हो और साहसी हो, उनके लिए परदेश चला जाना अच्छा हैं। इसलिए मैं अपने साथ चार-पाँच नौजवानो को लेता गया। उनमे मगनलाल गाँधी भी थे।
गाँधी कुटुम्ब बड़ा था। आज भी हैं। मेरी भावना यह थी कि उनमें से जो स्वतंत्र होना चाहे, वे स्वतंत्र हो जाये। मेरे पिता कइयो को निभाते थे, पर रियासती नौकरी मे। मुझे लगा कि वे इस नौकरी से छूट सके तो अच्छा हो। मै उन्हें नौकरियाँ दिलाने मे मदद नही कर सकता था। शक्ति होती तो भी ऐसा करने की मेरी इच्छा न थी। मेरी धारणा यह थी कि वे और दूसरे लोग भी स्वावलम्बी बने तो अच्छा हो।
पर आखिर तो जैसे-जैसे मेरे आदर्श आगे बढते गये (ऐसा मैं मानता हूँ ) , वैसे-वैसे इन नौजवानो के आदर्शो को भी मैने अपने आदर्शो की ओर मोडने का प्रयत्न किया। उनमे मगनाला गाँधी को अपने मार्ग पर चलाने मे मुझे बहुत सफलता मिला। पर इस विषय की चर्चा आगे करूँगा।
बाल-बच्चो का वियोग, बसाये हुए घर को तोड़ना, निश्चित स्थिति मे से अनिश्चित में प्रवेश करना - यह सब क्षणभर तो अखरा। पर मुझे तो अनिश्चित जीवन की आदत पड़ गयी थी। इस संसार में, जहाँ ईश्वर अर्थात् सत्य के सिवा कुछ भी निश्चित नही हैं . निश्चितता का विचार करना ही दोषमय प्रतीत होता हैं। यह सब जो हमारे आसपास दीखता हैं और होता है, सो अनिश्चित हैं, क्षणिक है। उसमे एक परम तत्त्व निश्चित रुप से छिपा हुआ हैं, उसकी झाँकी हमे हो जाये , उस पर हमारी श्रद्धा बनी रहे, तभी जीवन सार्थक होता है। उसकी खोज ही परम पुरुषार्थ है।
यह नहीं कहा जा सकता कि मै डरबन एक दिन ही पहले पहुँचा। मेरे लिए वहाँ काम तैयार ही था। मि. चेम्बरलेन के पास डेप्युटेशन के जाने की तारीख निश्चित हो चुकी थी। मुझे उनके सामने पढ़ा जानेवाला प्रार्थना पत्र तैयार करना था और डेप्युटेशन के साथ जाना था।