बम्बई में एक ओर मेरी कानून की पढ़ाई शुरू हुई ; दुसरी ओर मेरे आहार के प्रयोग चले और उनमें वीरचन्द गाँधी मेरे साथ हो गये। तीसरी तरफ भाई ने मेरे लिए मुकदमें खोजनें की कोशिश शुरू की।
कानून की पढ़ाई का काम धीमी चाल से चला। जाब्ता दीवानी (सिविल प्रोसीजर कोड) किसी भी तरह गले न उतरता था। एविडेम्स एक्ट (कानून शहादत) की पढाई ठीक चली। वीरचन्द गाँधी सालिसिटर बनने की तैयारी कर रहे थे। इसलिए वे वकीलों के बारे में बहुत कुछ कहते रहते थे। 'फीरोजशाह मेहता की होशियारी का कारण उनका अगाध कानूनी ज्ञान हैं। एविडेन्स एक्ट तो उनको जबानी याद हैं। धारा 32 के हर एक मुकदमे की उन्हें जानकारी हैं। बदरुद्दीन तैयबजी की होशियारी ऐसी हैं कि न्यायाधीश भी उनके सामने चौधिया जाते हैं। बहस करने की उनकी शक्ति अद्भूत हैं।' इधर मैं इन महारथियो की बाते सुनता और उधर मेरी घबराहट बढ़ जाती।
वे कहते, 'पाँच-सात साल तक बॉरिस्टर का अदालत में जूतियाँ तोड़ते रहना आश्चर्यजनक नहीं माना जाता। इसलिए मैंने सॉलिसिटर बनने का निश्चय किया हैं। कोई तीन साल के बाद भी तुम अपना खर्च चलाने लायक कमा लो तो कहना कि तुमने खूब प्रगति कर ली।'
हर महीने खर्च बढता जाता था। बाहर बॉरिस्टर की तख्ती लटकाये रहना और घर में बारिस्टरी करने की तैयारी करना ! मेरा मन इन दो के बीच कोई तालमेल नहीं बैठा पाता था। इसलिए कानून की मेरी पढ़ाई व्यग्र चित से होती थी। शहादत के कानून में कुछ रुचि पैदा होने की बात तो ऊपर कह चुका हूँ। मेइन का 'हिन्दू लॉ' मैंने बहुत रुचिपूर्वक पढ़ा, पर मुकदमा लड़ने की हिम्मत न आयी। अपना दुःख किसे सुनाऊँ ? मेरी दशा ससुराल गयी हुई नई बहू की सी सो गयी !
इतने में मुझे ममीबाई का मुकदमा मिला। स्मॉल कॉज कोर्ट (छोटी अदालत) में जाना था। मुझसे कहा गया, 'दलाल को कमीशन देना पड़ेगा! ' मैने साफ इनकार कर दिया।
'पर फौजदारी अदालत के सुप्रसिद्ध वकील श्री...., जो हर महीने तीन चार हजार कमाते हैं, भी कमीशन तो देते हैं।'
'मुझे कौन उनकी बराबरी करनी हैं ? मुझको तो हर महीने 300 रुपये मिल जाये तो काफी हैं। पिताजी को कौन इससे अधिक मिलते थे?'
'पर वह जमाना लद गया। बम्बई का खर्च बड़ा हैं। तुम्हें व्यवहार की दृष्टि से भी सोचना चाहिये।'
मैं टस-से-मस न हुआ। कमीशन मैने नहीं ही दिया। फिर भी ममीबाई का मुकदमा तो मुझे मिला। मुकदमा आसान था। मुझे ब्रीफ (मेहनताने) के रु. 30 मिले। मुकदमा एक दिन से ज्यादा चलने वाला न था।
मैने पहली बार स्मॉल कॉज कोर्ट में प्रवेश किया। मै प्रतिवादी की तरफ से था, इसलिए मुझे जिरह करनी था। मैं खड़ा तो हुआ, पर पैर काँपने लगे। सिर चकराने लगा। मुझे ऐसा लगा , मानो अदालत घुम रही हैं। सवाल कुछ सुझते ही न थे। जज हँसा होगा। वकीलों को तो मजा आया ही होगा। पर मेरी आँखो के सामने तो अंधेरा था, मैं देखता क्या ?
मैं बैठ गया। दलाल से कहा, 'मुझसे यह मुकदमा नहीं चल सकेगा। आप पटेल को सौपिये। मुझे दी हुई फीस वापस ले लीजिये।'
पटेल को उसी दिन के 51 रुपये देकर वकील किया गया। उनके लिए तो वह बच्चो के खेल था।
मैं भागा। मुझे याद नहीं कि मुवक्किल जीता या हारा। मैं शरमाया। मैने निश्चय किया कि जब तक पूरी हिम्मत न आ जाय , कोई मुकदमा न लूँगा। और फिर दक्षिण अफ्रीका जाने तक कभी अदालत में गया ही नहीं। इस निश्चय में कोई शक्ति न थी। ऐसा कौन बेकार बैठा था, जो हारने के लिए अपना मुकदमा मुझे देता ? इसलिए मै निश्चय न करता तो भी कोई मुझे अदालत जाने की तकलीफ देने वाला न था !
पर बम्बई में मुझे अभी एक और मुकदमा मिलने वाला था। इस मुकदमे में अर्जी-दावा तैयार करना था। एक गरीब मुसलमान की जमीन पोरबन्दर में जब्त हुई थी। मेरे पिताजी का नाम जानकर वह उनके बारिस्टर बेटे के पास आया था। मुझे उसका मामला लचर लगा। पर मैंने अर्जी-दावा तैयार कर कबूल कर लिया। छपाई का खर्च मुवक्किल को देना था। मैंने अर्जी-दावा तैयार कर लिया। मित्रों को दिया। उन्होंने पास कर दिया और मुझे कुछ-कुछ विश्वास हुआ कि मैं अर्जी-दावे लिखने लायक तो जरुर बन सकूँगा। असल मे इस लायक था भी।
मेरी काम बढ़ता गया। मुफ्त में अर्जियाँ लिखने का धंधा करता तो अर्जियाँ लिखने का काम तो मिलता पर उससे दाल-रोटी की व्यवस्था कैसे होती ?
मैंने सोचा कि मैं शिक्षक का काम तो अवश्य ही कर सकता हूँ। मैंने अंग्रेजी का अभ्यास काफी किया था। अतएव मैंने सोचा कि यदि किसी हाईस्कूल में मैट्रिक की कक्षा में अंग्रेजी सिखाने का काम मिल जाय तो कर लूँ। खर्च का गड्ढ़ा कुछ तो भरे !
मैने अखबारों मे विज्ञापन पढ़ा: 'आवश्यकता है, अंग्रेजी शिक्षक की, प्रतिदिन एक घंटे के लिए। वेतन रु. 75।' यह एक प्रसिद्ध हाईस्कूल का विज्ञापन था। मैने प्रार्थना-पत्र भेजा। मुझे प्रत्यक्ष मिलने की आज्ञा हुई। मैं बड़ी उमंगों के साथ मिलने गया। पर जब आचार्य के पता चला कि मैं बी. ए. नहीं हूँ तो उन्होंने मुझे खेदपूर्वक बिदा कर दिया।
'पर मैने लन्दन की मैट्रिक्युलेशन परीक्षा पास की हैं। लेटिन मेरी दूसरी भाषा थी।' मैने कहा।
'सो तो ठीक हैं, पर हमें तो ग्रेज्युएट की ही आवश्यकता हैं।'
मैं लाचार हो गया। मेरी हिम्मत छूट गयी। बड़े भाई भी चिन्तित हुए। हम दोनों ने सोचा कि बम्बई में अधिक समय बिताने निरर्थक हैं। मुझे राजकोट में ही जमना चाहिये। भाई स्वयं छोटा वकील थे। मुझे अर्जी-दावे लिखने का कुछ-न-कुछ काम तो दे ही सकते थे। फिर राजकोट में तो घर का खर्च चलता ही था। इसलिए बम्बई का खर्च कम कर डालने से बड़ी बचत हो जाती। मुझे यह सुझाव जँचा। यों कुल लगभग छह महीने रहकर बम्बई का घर मैने समेट सिया।
जब तक बम्बई में रहा , मैं रोज हाईकोर्ट जाता था। पर मैं यह नहीं कह सकता कि वहाँ मैंने कुछ सीखा। सीखने लायक ही मुझ में न थी। कभी-कभी तो मुकदमा समझ में न आता और इसकी कार्यवाई में रुचि न रहती , तो बैठा-बैठा झपकियाँ भी लेता रहता। यों झपकियाँ लेने वाले दूसरे साथी भी मिल जाते थे। इससे मेरी शरम का बोझ हलका हो जाता था। आखिर मैं यह समझने लगा कि हाईकोर्ट में बैठकर ऊँघना फैशन के खिलाफ नहीँ हैं। फिर तो शरम की कोई वजह ही न रह गयी।
यदि इस युग मे भी मेरे समान कोई बेकार बारिस्टर बम्बई में हो , तो उनके लिए अपना एक छोटा सा अनुभव यहाँ मैं लिख देता हूँ।
घर गिरगाँव में होते हुए भी मैं शायद ही कभी गाड़ीभाड़े का खर्च करता था। ट्राम में भी क्वचित ही बैठता था। अकसर गिरगाँव से हाईकोर्ट तक प्रतिदिन पैदल ही जाता था। इसमे पूरे 45 मिनट लगते थे और वापसी में तो बिना चूके पैदल ही घर आता था दिन में धूप लगती थी, पर मैंने उसे सहन करने की आदत डाल ली थी। इस तरह मैने काफी पैसे बचाये।
बम्बई में मेरे साथी बीमार पड़ते थे , पर मुझे याद नहीं हैं कि मैं एक दिन भी बीमार पड़ा होऊँ। जब मैं कमाने लगा तब भी इस तरह पैदल ही दफ्तर जाने की आदत मैने आखिर तक कायम रखी। इसका लाभ मैं आज तक उठा रहा हूँ।