मद्रास से मै कलकत्ते गया। कलकत्ते मे मेरी कठिनाइयों का पार न रहा। वहाँ मैं 'ग्रेट ईस्टर्न' होटल में ठहरा। किसी से जान-पहचान नही थी। होटल मे 'डेली टेलिग्राफ' के प्रतिनिधि मि. एलर थॉर्प से पहचान हुई। वे बंगाल क्लब मे रहते थे। उन्होने मुझे वहाँ आने के लिए न्योता। इस समय उन्हे पता नही था कि होटल के दीवानखाने मे किसी हिन्दुस्तानी को नही ले जाया जा सकता। बाद मे उन्हें इस प्रतिबन्ध का पता चला। इससे वे मुझे अपने कमरे मे ले गये। हिन्दुस्तानियों के प्रति स्थानीय अंग्रेजो का तिरस्कार देखकर उन्हे खेद हुआ। मुझे दीवानखाने मे न जाने के लिए उन्होने क्षमा माँगी।
'बंगाल के देव' सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी से तो मुझे मिलना ही था। उनसे मिला। जब मैं मिला, उनके आसपास दूसरे मिलने वाले भी बैठे थे। उन्होने कहा , 'मुझे डर हैं कि लोग आपके काम मे रस नहीं लेंगे। आप देखते हैं कि यहाँ देश मे ही कुछ कम विडम्बनायें नही हैं। फिर भी आपसे जो हो सके अवश्य कीजिये। इस काम मे आपको महाराजाओ की मदद की जरुरत होगी। आप ब्रिटिश इंडिया एसोसियेशन के प्रतिनिधियों से मिलिये, राजा सर प्यारीमोहन मुकर्जी और महाराजा टागोक से भी मिलियेगा। दोनो उदार वृति के हैं और सावर्जनिक काम मे काफी हिस्सा लेते हैं।'
मै इन सज्जनो से मिला। पर वहाँ मेरी दाल न गली। दोनो ने कहा, 'कलकत्ते में सार्वजनिक सभा करना आसान काम नही हैं। पर करनी ही हो तो उसका बहुत कुछ आधार सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी पर होगा।'
मेरी कठिनाइयाँ बढती जा रही थी। मैं 'अमृतबाजार पत्रिका' के कार्यालय मे गया। वहाँ भी जो सज्जन मिले उन्होने मान लिया कि मै कोई रमताराम हूँगा। 'बंगवासी' ने तो हद कर दी। मुझे एक घंटे तक बैठाये ही रखा। सम्पादक महोदय दूसरो के साथ बातचीत करते जाते थे। लोग आते-जाते रहते थे, पर सम्पादकजी ने मेरी करफ देखते भी न थे। एक घंटे तक राह देखने के बाद जब मैने अपनी बात छेड़ी , तो उन्होने कहा, 'आप देखते नही हैं, हमारे पास कितना काम पड़ा हैं? आप जैसे तो कई हमारे पास आते रहते है। आप वापस जाये यहीं अच्छा है। हमे आपकी बात नही सुननी हैं। '
मुझे क्षण भर दुःख तो हुआ , पर मै सम्पादक का दृष्टिकोण समझ गया। 'बंगवासी' की ख्याति मैने सुन रखी थी। सम्पादक के पास लोग आते-जाते रहते थे , यह भी मैं देख सका था। वे सब उनके परिचित थे। अखबार हमेशा भरापूरा रहता था। उस समय दक्षिण अफ्रीका काम नाम भी कोई मुश्किल से जानता था। नित नये आदमी अपने दुखड़े लेकर आते ही रहते थे। उनके लिए तो अपना दुःख बड़ी-से-बडी समस्या होती, पर सम्पादक के पास ऐसे दुःखियों की भीड़ लगी रहती थी। वह बेचारा सबके लिए क्या कर सकता था ? पर दुखिया की दृष्टि मे सम्पादक की सत्ता बडी चीज होती हैं, हालाँकि सम्पादक स्वयं तो जानता हैं कि उसकी सत्ता उसके दफ्तर की दहलीज भी नही लाँध पाती।
मै हारा नही। दूसरे सम्पादको से मिलता रहा। अपने रिवाजो के अनुसार मैं अंग्रेजो से भी मिला। 'स्टेट्समैन' और 'इंग्लिशमैन' दोनो दक्षिण अफ्रीका के सवाल का महत्व समझते थे। उन्होने लम्बी मुलाकाते छापी। 'इंग्लिशमैन' के मि. सॉंडर्स ने मुझे अपनाया। मुझे अखबार का उपयोग करने की पूरी अनुकूलता प्राप्त हो गयी। उन्होने अपने अग्रलेख मे काटछाँट करने की भी छूट मुझे दे दी। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि हमारे बीच स्नेह का सम्बन्ध हो गया। उन्होने मुझे वचन दिया कि जो मदद उनसे हो सकेगी , वे करते रहेंगे। मेरे दक्षिण अफ्रीका लौट जाने पर भी उन्होने मुझ से पत्र लिखते रहने को कहा और वचन दिया कि स्वयं उनसे जो कुछ हो सकेगा , वे करेंगे। मैने देखा कि इस वचन का उन्होने अक्षरशः पालन किया , औऱ जब तक वे बहुत बीमार हो गये, मुझसे पत्र व्यवहार करते रहे। मेरे जीवन में ऐसे अनसोचे मीठे सम्बन्ध अनेक जुड़े हैं। मि. सॉडर्स को मेरी जो बात अच्छी लगी , वह थी तिशयोक्ति का अभाव और सत्य-परायणता। उन्होने मुझ से जिरह करने में कोई कसर नहीं रखी थी। उसमे उन्होने अनुभव किया कि दक्षिण अफ्रीका के गोरो के पक्ष को निष्पक्ष भाव से रखने मे औऱ भारतीय पक्ष से उसकी तुलना करने मे मैने कोई कमी नहीं रखी थी।
मेरा अनुभव मुझे बतलाता हैं कि प्रतिपक्षी को न्याय देकर हम जल्दी न्याय पा जाते हैं। इस प्रकार मुझे अनसोची मदद मिल जाने से कलकत्ते में भी सार्वजनिक सभा होने की आशा बंधी। इतने में डरबन से तार मिला, 'पार्लियामेंट जनवरी मे बैठेगी, जल्दी लौटिये।'
इससे अखबारो मे एक पत्र लिखकर मैने तुरन्त लौट जाने की जरुरत जती दी औऱ कलकत्ता छोड़ा। दादा अब्दुल्ला के बम्बई एजेंट को तार दिया कि पहले स्टीमर से मेरे जाने की व्यवस्था करे। दादा अब्दुल्ला ने स्वयं 'कुरलैंड' नामक स्टीमर खरीद लिया था। उन्होने उसमें मुझे और मेरे परिवार को मुफ्त ले जाने का आग्रह किया। मैने उसे धन्यवाद सहित स्वीकार कर लिया , और दिसम्बर के आरंभ मे मै 'कुरलैंड' स्टीमर से अपनी धर्मपत्नी, दो लड़को और अपने स्व. बहनोई केे एकमात्र लड़के को लेकर दूसरी बार दक्षिण अफ्रीका के लिए रवाना हुआ। इस स्टीमर के साथ ही दूसरा 'नादरी' स्टीमर भी डरबन के लिए रवाना हुआ। दादा अब्दुल्ला उसके एजेंट थे। दोनो स्टीमरो मे कुल मिलाकर करीब 800 हिन्दुस्तानी यात्री रहे होगे। उनमे से आधे से अधिक लोग ट्रान्सवाल जाने वाले थे।