इस लड़ाई का अन्त विचित्र रीति से हुआ। यह तो साफ था कि लोग थक चुके थे। जो ढृढ रहे थे , उन्हे पूरी तरह बरबाद होने देने मे संकोच हो रहा था। मेरा झुकाव इस ओर था कि सत्याग्रह ते अनुरुप इसकी समाप्ति का कोई शोभापद मार्ग निकल आये , तो उसे अपनाना ठीक होगा। ऐसा एक अनसोचा उपाय सामने आ गया। नडियाद तालुके के तहसीलदार ने संदेशा भेजा कि अगर अच्छी स्थितिवाले पाटीदार लगान अदा कर दे , तो गरीबो का लगान मुलतवी रहेगा। इस विषय मे मैने लिखित स्वीकृति माँगी और वह मिल गयी। तहसीलदार अपनी तहसील का ही जिम्मेदारी ले सकता था। सारे जिले की जिम्मेदारी तो कलेक्टर ही ले सकता था। इसलिए मैने कलेक्टर से पूछा। उसका जवाब मिला कि तहसीलदार ने जो कहा है , उसके अनुसार तो हुक्म निकल ही चुका है। मुझे इसका पता नही था। लेकिन यदि ऐसा हुक्म निकल चुका हो , तो माना जा सकता है कि लोगो की प्रतिज्ञा का पालन हुआ। प्रतिज्ञा में यही वस्तु थी, अतएव इस हुक्म से हमने संतोष माना।
फिर भी इस प्रकार की समाप्ति से हम प्रसन्न न हो सके। सत्याग्रह की लड़ाई के पीछे जो एक मिठास होती है , वह इसमे नही थी। कलेक्टर मानता था कि उसने कुछ किया ही नही। गरीब लोगो को छोड़ने की बात कहीं जाती थी, किन्तु वे शायद ही छूट पाये। जनता यह करने का अधिकार आजमा न सकी कि गरीब में किसकी गिनती की जाय। मुझे इस बात का दुःख था कि जनता मे इस प्रकार की शक्ति रह नही गयी थी। अतएव लड़ाई की समाप्ति का उत्सव तो मनाया गया , पर इस दृष्टि से मुझे वह निस्तेज लगा। सत्याग्रह का शुद्ध अन्त तभी माना जाता है , जब जनता मे आरम्भ की अपेक्षा अन्त मे अधिक तेज और शक्ति पायी जाय। मै इसका दर्शन न कर सका। इतने पर भी इस लड़ाई के जो अदृश्य परिणाम निकले, उसका लाभ तो आज भी देखा जा सकता है और उठाया जा रहा है। खेड़ा की लड़ाई से गुजरात के किसान-समाज की जागृति का और उसकी राजनीतिक शिक्षा का श्रीगणेश हुआ।
विदुषी डॉ. बेसेंट के 'होम रुल' के तेजस्वी आन्दोलन ने उसका स्पर्श अवश्य किया था, लेकिन कहना होगा कि किसानो के जीवन मे शिक्षित समाज का और स्वयंसेवको का सच्चा प्रवेश तो इस लड़ाई से ही हुआ। सेवक पाटीदारो के जीवन मे ओतप्रोत हो गये थे। स्वयंसेवको को इस लड़ाई मे अपनी क्षेत्र की मर्यादाओ का पता चला। इससे उनकी त्यागशक्ति बढ़ी। इस लड़ाई मे वल्लभभाई ने अपने आपको पहचाना। यह एक ही कोई ऐसा-वैसा परिणाम नही है। इसे हम पिछले साल संकट निवारण के समय और इस साल बारडोली मे देख चुके है। इससे गुजरात के लोक जीवन मे नया तेज आया, नया उत्साह उत्पन्न हुआ। पाटीदारो को अपनी शक्ति को जो ज्ञान हुआ, उसे वे कभी न भूले। सब कोई समझ गये कि जनता की मुक्ति का आधार स्वयं जनता पर, उसकी त्यागशक्ति पर है। सत्याग्रह ने खेड़ा के द्वारा गुजरात मे अपनी जड़े जमा ली। अतएव यद्यपि लड़ाई के अन्त से मै प्रसन्न न हो सका, तो भी खेड़ा की जनता मे उत्साह था। क्योकि उसने देख लिया थी कि उसकी शक्ति के अनुपात में उसे कुछ मिल गया है और भविष्य मे राज्य की ओर से होनेवाले कष्टो के निवारण का मार्ग उसके हाथ लग गया है। उनके उत्साह के लिए इतना ज्ञान पर्याप्त था। किन्तु खेड़ा की जनता सत्याग्रह का स्वरुप पूरी तरह समझ नही सकी थी। इस कारण उसे कैसे कड़वे अनुभव हुए, सो हम आगे देखेंगे।