सिनेमा घर के भीतर प्रवेश करने पर मैं क्या देखता हूँ कि एक भी सफेद रंगवाला वहाँ नहीं है और दूसरी बात जो देखी उससे पता चलता था कि सम्भवतः चुप रहने पर दफा 144 लगी हई है। जितने पुरुष हैं वह बात कर रहे हैं, जितनी महिलायें हैं वह बहस कर रही हैं, और जितने बच्चे हैं वह रो रहे हैं और जितने लड़के हैं वह लड़ रहे हैं। चाय, सोडा, मूँगफली बेचनेवाले पैरों पर से चढ़ते हुए और जोर-जोर से चिल्लाते हुए चल रहे थे। साढ़े छः का समय आरम्भ होने का था और सात बज रहे थे।
पहले मैंने समझा था कि अंग्रेजी सिनेमाघर होगा और कोई अंग्रेजी खेल होगा; किन्तु ताँगेवाले ने जहाँ मुझे पहुँचा दिया था वह हिन्दुस्तानी सिनेमाघर था। हैंडबिल में अंग्रेजी में छपा था खेल का नाम 'तूफान'। अभिनेताओं को तो मैं जानता नहीं था। चुपचाप बैठा। सोचा, कोई भला आदमी पास में बैठेगा तो उससे कुछ पूछूँगा। इतने में एक चायवाला मेरे सामने ही आकर खड़ा हो गया। बोला - 'साहब चाय?' उसके कुरते में एक ही आस्तीन थी, सामने का बटन कब से नहीं था, कह नहीं सकता, और माथे पर से पसीने की बूँदें ओस के कण के समान झलक रही थीं। जितनी तेज उसकी आवाज थी उतनी ही बढ़िया यदि चाय भी होती तब तो बात ही क्या!
इतना अवश्य था कि यदि मैं उसकी चाय पी लेता तो लिप्टन या ब्रुकबाण्ड की चाय के साथ भारतीय चायवाले के पसीने का भी स्वाद मुझे मिल जाता। मैं अभी इस नवीन स्वाद के लिये तैयार न था।
सवा सात बजे खेल आरम्भ हुआ। इस सिनेमा हाल की पहली विशेषता यह थी कि जब कोई गाना आरम्भ होता था तब इधर से कोई न कोई शिशु भी अलाप में साथ देता था। मेरी समझ में गाना तो आता नहीं था, परन्तु स्वर बड़ा मधुर था। सबसे सुन्दर वस्तु जो मुझे इस खेल में जान पड़ी वह नृत्य था। कभी-कभी नर्तकियाँ ऐसी सफाई से घूमती थीं जैसे उनकी कमरों में कमानी लगी हो और मशीन द्वारा घूम रही हों। इन नर्तकियों के कपड़े तो ऐसे मूल्यवान थे कि सम्भवतः विलायत की महारानी को सपनों में भी कभी दिखायी न दिये होंगे।
मेरी समझ में खेल तो बहुत कम आया। यहाँ भारत में एक विचित्रता देखने में आयी। खेल में एक दृश्य था कि एक आदमी बहुत सख्त बीमार था। डॉक्टर आया, देखकर उसने कुछ चिन्ता-सी प्रकट की। उसके चले जाने के पश्चात् इसकी स्त्री अथवा प्रेमिका, जो भी रही हो, गाने लगी। पता नहीं शायद डॉक्टर ने उसे गाने के लिये कहा था। शायद वह रोग गाने से ही अच्छा होता हो।
भारत रहस्यपूर्ण देश है, इन्हीं बातों से पता चलता है कि इस खेल में एक घंटे संवाद हुआ होगा तो एक घंटे संगीत हुआ होगा। संगीत की कला कैसी थी मैं कह नहीं सकता। स्वर मधुर अवश्य थे।
एक दृश्य में एक व्यक्ति घोड़े पर सवार था। वह हिन्दुस्तानी धोती पहने था। शायद यहाँ घोड़े पर सवार होने के समय ब्रीचेज नहीं पहनी जाती और घोड़े के दौड़ने के समय उसकी धोती खिसककर धीरे-धीरे कमर की ओर चली जा रही थी।
खेल की कथा के सम्बन्ध में मैं जानना चाहता था। इसलिये मैंने साहस करके बगल में बैठे एक सज्जन से कहा कि मैं यहाँ की भाषा नहीं जानता। मैं जानना चाहता हूँ कि कथा क्या है। उन्होंने बड़ी शालीनता से कथा का सारांश बताया। उस कथा के सहारे खेल समझने की चेष्टा करता रहा। यदि यह वास्तविक जीवन का चित्र है और साधारणतया लोगों का जीवन ऐसा ही होता है जैसा खेल में दिखाया गया है तो यही मानना पड़ेगा कि इस देश के माता-पिता बहुत ही क्रूर होते हैं। वह कभी अपने पुत्र तथा पुत्री को अपने मन के अनुसार विवाह नहीं करने देना चाहते। पसन्द वह स्वयं करते हैं और उनकी राय नहीं लेते। यदि हर घर में ऐसा होता है तब हर घर में सदा दुखान्तपूर्ण नाटक होता है। फिर आश्चर्य इस बात का है, इतने विवाह हो कैसे जाते हैं!
यदि प्रत्येक पुत्र व पुत्री पिता से विद्रोह करती है, जैसा कि नाटक में दिखाया गया, तो घरों में शान्ति कैसे रहती है? और यदि यह केवल कल्पना थी तब तो लेखक ने भारत के प्रति अन्याय किया।
परन्तु मैं इस विषय पर राय देने का अधिकारी नहीं हूँ, क्योंकि सारा खेल मैं कल्पना के सहारे समझने की चेष्टा करता रहा।
जिस कुर्सी पर मैं बैठा था उसमें खटमलों का एक उपनिवेश था। सब कुर्सियों में था या नहीं मैं कह नहीं सकता। यदि सब कुर्सियों में था तो यहाँ के सिनेमा देखने वालों के सन्तोष की प्रशंसा करना आवश्यक है। मैं कह नहीं सकता कि यह पाले गये हैं कि अपने से कुर्सियों में आकर बस गये हैं। यह मैंने सुना है कि भारतवासी लोग कीट-पतंग, पशु-पक्षी के प्रति बड़ा स्नेह रखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि यह पाले गये हों तो आश्चर्य नहीं।
जब बीच में अवकाश हुआ तो मैं बाहर निकल आया। देखता क्या हूँ कि धीरे-धीरे मेरे चारों ओर लोग एकत्र हो रहे हैं। मैं समझ न पाया कि बात क्या है। अपने कपड़ों की ओर मैंने देखा कि कोई विचित्रता तो नहीं है। किसी ने मुझसे कुछ कहा भी नहीं। मैंने यों ही प्रश्न कर दिया -'क्या चाहिये? कुछ लोग खिसक गये और दूसरे लोग अब कुछ दूर खड़े हो गये। वह मुझे एकटक देख रहे थे।
यहाँ के लोगों ने सम्भवतः गोरे सैनिकों को नहीं देखा था, इसलिये बड़ी उत्सुकता से वह मुझे देख रहे थे। मुझे शरारत सूझी तो मैंने जोर से 'हूँ' कर दिया। उसी आवाज से सब लोगों ने भागना आरम्भ कर दिया। मुझे बड़ी हँसी आयी और जोर-जोर से हँसने लगा। मेरी हँसी शायद बहुत पसन्द आयी इसलिये लोगों ने तालियाँ पीटीं जैसे किसी व्याख्यान में बहुत सुन्दर बात कही गयी हो। फिर घंटी बजी, परन्तु मेरा मन खेल में लग नहीं रहा था, इसलिये बैठक में चला आया।