जब से भारत में आया हूँ, बिना नागा प्रति रविवार को गिरजाघर जाता हूँ। ईसाई धर्म पर पूरा-पूरा विश्वास है। मैं विलायत के एक गिरजाघर के लिये प्रतिमास चन्दा देता हूँ और यहाँ अपने गिरजाघर में भी प्रति सप्ताह कुछ न कुछ दान देता रहता हूँ। फिर ऐसा विश्वास भी है कि सारे संसार में जो असन्तोष है उसका यही एक कारण है कि वह ईसाई धर्म को नहीं मान लेता है।
यूरोप और अमेरिका आदि देशों में सदा शान्ति रहती है और वह लड़ते हैं, तब भी उनका ध्येय शान्ति ही होता है। हमें ध्येय की ओर ध्यान देना चाहिये। उस ध्येय की प्राप्ति के लिये कोई भी राह पकड़ी जा सकती है।
कल रविवार को मैं सन्ध्या समय टहलने के लिये निकल पड़ा। अकेला था। टहलता हुआ दूर निकल गया। मैं शहर की ओर अकेला टहलने कभी-कभी चला जाता हूँ और हमारे साथी उसी ओर कम जाते हैं। उनका कहना है कि हिन्दुस्तानियों का रहन-सहन ऐसा होता है कि कोई सभ्य पुरुष उधर जा नहीं सकता।
उसी विषय पर एक पुस्तक हमारे क्लब के पुस्तकालय में हैं, जिसे मैंने पढ़ा था। एक स्थान पर उसमें लिखा था - 'भारतवासी कपड़ा उतार कर सबके सामने नदियों में स्नान करते हैं और धोतियाँ पहनते हैं। जिससे टाँगों के नीचे का भाग दिखायी देता है।' उसमें यह भी लिखा था कि उनके बीच जाने से तुरन्त रोग का शिकार बन जाना पड़ेगा क्योंकि जहाँ यह लोग रहते हैं, वहाँ मलेरिया, टाइफाइड, क्षय, प्लेग, कालरा, चेचक के कीटाणु सर्वदा घेरे रहते हैं। जो लोग नहीं मरते उनका कारण यह है कि उनमें रक्त की कमी रहती है और यह कीटाणु उनका शरीर अपना अड्डा बनाने के उपयुक्त नहीं समझते। जिनमें कुछ भी रक्त होता है वह किसी न किसी ऐसे रोग से मर जाते हैं।'
मैंने इन बातों पर विचार नहीं किया। मेरे रेजिमेंट में लोगों ने मुझको मना भी किया, किन्तु मैंने कहा कि मैं डरनेवाला नहीं हूँ। मैं जब बैरी से नहीं डरता, तब कीटाणुओं से क्या डरूँगा? किन्तु मेरी बैरक के सारे लोग कीटाणुओं से बहुत भयभीत रहते हैं, इसलिये वह कभी बस्ती में नहीं आते। मैंने कर्नल साहब से पूछा कि ब्रिटिश सरकार ने इतने दिनों तक भारतीयों के स्वास्थ्य के लिये जितना किया उतना आज तक किसी ने किसी के लिये नहीं किया। देखिये कितना त्याग करके अंग्रेजों ने अपने यहाँ की औषधियाँ यहाँ भेजीं। अपनी वस्तु कौन इस युग में दूसरे को देता है? यह अंग्रेजों की ही निस्वार्थता है कि अंग्रेजी दवाइयाँ भारतीयों के प्रयोग के लिये भेज देते हैं। इतना ही नहीं, अपने यहाँ से डाक्टर भी भेजते हैं। सैकड़ों डाक्टर इंग्लैंड से यहाँ भेजे जाते हैं, यह सब किसके लिये? भारतवासियों के स्वास्थ्य के लिये। इस देश में घी की कमी है, इसलिये स्वास्थ्य पर धक्का न पहुँचे, घी के स्थान पर हम लोगों ने वनस्पति घी यहाँ भेजना आरम्भ किया और अब यहीं उसके कारखाने खुलवा दिये। यह सब इसलिये कि यहाँवाले स्वस्थ रहें।
मछली का तेल हम लोग यहाँ मँगवाते हैं, जिससे लोग स्वस्थ रह सकें। देशी शराब हानिकारक होती है, इसलिये स्काटलैण्ड तथा फ्रांस से बढ़िया से बढ़िया शराब मँगाने का प्रबन्ध कर दिया है। एक 'एकशा नम्बर वन' कहाँ भारतीय जानते थे? यह तो अमृत है। मरते को जिला देती है। यह सब एकमात्र यहाँ के निवासियों के स्वास्थ्य को दृष्टि में रखकर किया गया है। किन्तु भारतवासी विचित्र होते हैं! जब इनका देशप्रेम इतना गहरा देखा गया कि ये अपने यहाँ की ही बनी शराब अधिक पीयेंगे, तब सरकार ने उसका भी प्रबन्ध किया। अच्छी और स्वास्थ्यकर वारुणी बन सके इसके लिये सरकार ने स्वयं इसे उतारने का बन्दोबस्त किया। सरकार की देखरेख में इसका स्टैंडर्ड ठीक रहता है। किन्तु जो पढ़े-लिखे हैं, समझदार हैं वह स्काटलैण्ड और फ्रांस की ही बनी व्यवहार में लाते हैं और उसका परिणाम देखिये कि वह लोग अच्छे-अच्छे नेता हैं, बड़े-बड़े वकील हैं, लेखक हैं, कवि हैं, प्रोफेसर हैं। समाज में उनका मान है।
स्वास्थ्य की दृष्टि से हम लोगों ने काँटा, चम्मच और छुरी से भोजन करने की प्रथा यहाँ भी चलानी चाही, किन्तु अभी उसमें सफलता कम मिली है। देखिये, हाथ से खानेवाले की आयु कम होती है। कर्नल साहब ने इतना बताया तब हमें सन्तोष हुआ। हमारी समझ में तब आया, यही कारण है कि प्रत्येक दस साल पर देश की आबादी बढ़ती चली जा रही है। यदि ब्रिटिश सरकार ने इनके स्वास्थ्य का प्रबन्ध न किया होता तो भारतवर्ष में इस समय पाँच-छः सौ आदमी रह गये होते। जो स्थिति हमें बतायी गयी उससे यही अनुमान होता है।
मैंने पंडितजी से एक दिन बताया कि देखिये, हम लोगों ने आपके स्वास्थ्य के लिये कितना किया है। आप लोग उसके लिये कुछ धन्यवाद नहीं देते। उन्होंने कहा कि भारतवासी मौखिक धन्यवाद नहीं देते। कार्य से ही धन्यवाद देते हैं। देखिये, आपका कपड़ा हम लोगों ने धारण कर लिया। यह धन्यवाद देने के ही लिये। पंडित लोग भी यहाँ केवल एक दुपट्टे से काम चला लेते थे, वह अब कोट पहनते हैं। यह आपके प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित करने के लिये।