अब मुझे बनारस में कुछ आवश्यक देखना रह नहीं गया था। इसलिये कलक्टर साहब से मिलकर मैंने यह जानना चाहा कि हम साथियों के साथ लौट जायें तो कोई हरज तो न होगा।
कलक्टर साहब के यहाँ जिस समय मैं पहुँचा, एक सभा हो रही थी, जिसमें अनेक लोग गत दंगे के सम्बन्ध में कुछ परामर्श कर रहे थे। मैंने कार्ड देकर उनसे मिलना चाहा। वह स्वयं बाहर चले आये और बोले कि मैंने कानपुर तार दे दिया है। अब आप लोग जा सकते हैं।
सवेरे जाना था, इसलिये मैंने सोचा कि सन्ध्या को और घूम लूँ। इस समय मैंने सोचा कि अकेले ही घूमूँ। एक ताँगा मँगवाया और चौक के लिये चल पड़ा। आज चौक में बड़ी भीड़ थी और बड़ी चहल-पहल भी थी।
मैं नगर के सम्बन्ध में कुछ जानता नहीं था। बोली समझ भी लेता था, बोल भी सकता था। अधिक अच्छी तरह घूमने के विचार से मैंने ताँगेवाले को छोड़ दिया और चौक में पैदल घूमने लगा। थोड़ी दूर गया था कि एक स्थान पर बड़ी भीड़ देखी। मैं निकट गया। मुझे देखकर लोग हटकर दूसरी ओर उसी भीड़ में जाकर खड़े हो गये। एक आदमी एक साँप लिये हुए था। उसी के कारण इतनी भीड़ थी। मुझे देखते ही एक कान्स्टेबल आकर भीड़ हटाने लगा।
मैं यहाँ से आगे चल पड़ा और जेब में हाथ डाला तो हाथ जेब के नीचे निकल आया और सिगरेट केस गायब था। किसी ने बड़ी सफाई से जेब कतर दी थी। वह बाहरी जेब थी। उसमें पैसे तो नहीं थे, किन्तु सिगरेट-केस चाँदी का था। निकट ही थाना था। मैंने सोचा कि रिपोर्ट अवश्य करनी चाहिये। मैं वहाँ गया, तो कई कान्स्टेबलों ने सलाम किया। मैंने वहाँ के अफसर को खोजा तो उनके पास सूचना भेजी गयी और आध घंटे बाद में वह आये। मैंने उन्हें अपना परिचय दिया और सब हाल बताया तो उन्होंने कहा कि आप बाहरी आदमी हैं इसी से ऐसा हुआ और उसका पता लगाना असम्भव है। परन्तु आप लिखा दीजिये और मुझे उपदेश देने लगे कि मूल्यवान वस्तुएँ बाहर की जेब में नहीं रखनी चाहिये। उनके लिये एक जेब भीतर बनवाना आवश्यक है। वह बहुत दयावान भी जान पड़ते थे। बोले - 'जब आप निकला करें तब मूल्यवान वस्तु को घर के भीतर तिजोरी में बन्द कर दिया करें और जब बनारस आवें अथवा किसी बड़े शहर के स्टेशन पर पहुँचें तब भीड़ के पास न ठहरें या खड़े हों। इसीलिये पुलिस सदा भीड़ को हटाती रहती है।'
उन्होंने यह भी समझाया कि कोट कैसा बनवाना चाहिये, दरजी कैसा हो, जेब कहाँ और कैसी होनी चाहिये। फिर बोले - 'आप भी सरकारी-नौकर, मैं भी सरकारी नौकर। इसलिये इतनी बातें बता दीं। ये बातें किसी से नहीं बताता। नहीं तो सब लोग चतुर हो जायें और चोरी होना बन्द हो जाये और पुलिस विभाग तब हट जायेगा।'
एक भारतीय पुलिस अफसर से बात करने का मेरा पहला अवसर था। मुझे यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि यह लोग इतने चतुर होते हैं। मैंने कहा कि मैं इस देश में नया हूँ। आप और भी सलाह दीजिये जिससे कभी कोई फिर ऐसा अवसर आये तो मैं अपनी रक्षा कर सकूँ।
उन्होंने मुझसे मेरा परिचय पूछा और मैंने सब हाल उन्हें बताया कि मैं कब आया और कैसे आया। तब उन्होंने मेरे साथ बड़ी सहानुभूति दिखायी और बोले - 'यहाँ अकेले आप ठगे जाइयेगा और आपको बड़ा धोखा होगा। आपको आवश्यकता हो तो एक कान्स्टेबल ले जाइये।'
मैंने एक कान्स्टेबल ले लिया और थानेदार को धन्यवाद देकर चला। उस कान्स्टेबल से मैंने कहा कि मैं सिगरेट खरीदना चाहता हूँ, मेरा सिगरेट केस खो गया। वह एक दुकान पर ले गया और एक सिगरेट का डब्बा उसने मुझे दिया। मैंने जब रुपये निकाले तब उसने कहा कि आपकी ही दुकान है।
मैं घबराया। मैं समझा कि कान्स्टेबल धोखे में होगा। मेरे ही ऐसे किसी सैनिक अफसर ने यह दुकान खोली होगी और यह मुझे धोखे से वही समझ रहा होगा। जब मैंने कहा कि मैं तो यहाँ नया आदमी हूँ, मैंने कोई दुकान नहीं खोली, तब दुकानदार और कान्स्टेबल हँसने लगे।
मैं कुछ नहीं समझा। मेरे मन में यह होने लगा कि कहीं सचमुच यह लोग धोखे में तो नहीं हैं। यदि ऐसा है तो मैं बहुत बड़ी दुकान का मालिक बन जाऊँगा और भारत में अच्छा व्यापारी बन सकूँगा। मैंने इन लोगों की बातों की परीक्षा लेनी चाही। एक डिब्बा बिस्कुट मैंने निकलवाया। जब दाम पूछा तक दुकानदार ने कहा कि साढ़े चार रुपये। इस बार उसने नहीं कहा कि आपकी ही दुकान है। परन्तु मुझे बिस्कुट लेना तो था नहीं, इसलिये बढ़ चला।
राह में कान्स्टेबल से पूछा कि 'मेरी दुकान' उसने क्यों कहा। उसने बताया कि यह कहने की भारतवर्ष में प्रथा है। उसने यह भी बताया कि यहाँ किसी के पुत्र या पुत्री के सम्बन्ध में आप पूछें तो लोग यह नहीं कहेंगे कि मेरी है, कहेंगे कि आपकी है। घर के बारे में आप पूछेंगे तो लोग कहेंगे कि आपका ही है। हमेशा किसी के लिये ऐसा प्रयोग नहीं होता। बाप के लिये यह नहीं कहते कि आपके बाप हैं।
रात बढ़ रही थी। मैंने बैरक लौट जाना उचित समझा। उससे एक ताँगा लाने को कहा। वह एक ताँगा लाया। मैंने पूछा - 'कितना देना होगा?' कान्स्टेबल ने कहा कि हजूर यह पहुँचा देगा, जो चाहे दे दीजियेगा।
मुझे इस पर भी बड़ा आश्चर्य हुआ। इतना ज्ञान मुझे अवश्य हो गया कि किसी स्थान पर जाना हो या किसी दुकान से छोटी-मोटी वस्तु मोल लेनी हो तो पुलिस साथ रहे तो पैसे नहीं लगते। ताँगे के किराया नहीं लगता और लगता है तो बहुत ही कम। पता नहीं, काशी में ही यह नियम है कि और नगरों में भी! आगे इसका अनुभव करूँगा।