ग्यारह बजे से कविता आरम्भ हुई। पहले जो साहब आये वह युवक थे। अपने घुटनों के बल बैठ गये। फिर अपनी जेब में से उन्होंने एक मोड़ा-माड़ा बादामी कागज का टुकड़ा निकाला और एक-एक पंक्ति गा-गाकर पढ़ने लगे। सुननेवाले दो-दो तीन-तीन मिनट पर वाह-वाह की ध्वनि निकाल रहे थे और लोग झूमते भी जाते थे। कभी-कभी तो इतने जोर से शोर होता था कि समझ में नहीं आता था कि कवि महोदय क्या कह रहे हैं।
मेरी समझ में कभी एकाध शब्द आ जाता था। जब वहाँ पहुँच ही गया था तब मैंने सोचा कि कुछ समझता भी चलूँ। मैंने मौलवी साहब से कहा कि आप मेरे निकट बैठें तो इस मुशायरे का आनन्द कुछ मैं भी उठाऊँ।
मौलवी साहब मेरी बगल में आकर बैठ गये। एक बार एक कवि ने एक शेर पढ़ा। लोगों ने 'वाह-वाह' का ताँता बाँध दिया और लोग लगे चिल्लाने - 'मकरी शाह, मकरी शाह!' मैंने मौलवी साहब से पूछा कि यह मकरी शाह कौन थे। नादिर शाह, अहमद शाह, बहादुर शाह का नाम तो मैंने पुस्तकों में पढ़ा था, परन्तु मेरा अध्ययन इतिहास का इतना गम्भीर नहीं है कि मकरी शाह का नाम जान लेता। फिर कविता में इनका क्या प्रयोजन? मौलवी साहब ने कुछ मुँह बनाकर उत्तर दिया - 'मकरी शाह नहीं; यह कह रहे हैं - 'मुकर्रर इरशाद', 'मुकर्रर इरशाद' - जिसका अर्थ है कि फिर से कहिये, फिर से कहिये।'
मैंने कहा कि तब सीधे-सीधे 'फिर से कहिये' क्यों नहीं कह देते जिसमें मेरे ऐसे लोगों की समझ में भी आ जाता। मौलवी साहब ने मुझे समझाया कि कवि, हकीम, डॉक्टर को जो कुछ भी कहना होता है सीधे ढंग से नहीं कहते। जैसे किसी हकीम को सौंफ का अर्क कहना होगा तो यों नहीं कहेगा। कहेगा - 'अर्क बादियान'। किसी डॉक्टर को कहना है कि खोपड़ा फूल गया है तो वह कहेगा - 'क्रौनिकल इनफ्लैमैंजाइटिस'। इसी प्रकार यदि कवि को कहना होगा कि ओस सूख गयी तो वह कहेगा - 'शबनम के मोती चोरी हो गये।' किसी के हृदय में वियोग की बेचैनी है तो वह कहेगा हिज्र के समुंदर में मेरी किश्ती डाँवाडोल हो रही है।
इन्हीं बातों को समझने के लिये बुद्धि की आवश्यकता है। देखिये, यह जो शायर साहब आ रहे हैं, बड़ी ही ऊँची कविता करते हैं। इनकी कविता ध्यान से सुनिये। आपको बड़ा आनन्द आयेगा। इन्होंने गाकर कविता पढ़नी आरम्भ की। पहली पंक्ति पर ही 'वाह-वाह' की ध्वनि हाल-भर में गूँज पड़ी और दूसरी पंक्ति पढ़ते-पढ़ते वह कवि महोदय लगभग खड़े हो गये और 'वाह-वाह' की, 'मुकर्रर इरशाद-मुकर्रर इरशाद' और 'सुभान अल्लाह' के शब्द से हॉल की छत हिलने लगी। बाहर वाला यदि कोई सुनता तो समझता कि झगड़ा हो रहा है। मैंने मौलवी साहब से कहा - 'क्या कहा इन्होंने, मुझे भी समझाइये, मौलवी साहब ने कहा कि इन्होंने जो कहा वह मेरी समझ में भी नहीं आया। मैंने कहा कि आपने तो बड़े जोरों से 'वाह-वाह' कहा। मौलवी साहब ने कहा कि बात यह है कि यह देश के बहुत बड़े उर्दू के कवि हैं। इसलिये इन्होंने जो कुछ कहा होगा बहुत ऊँचे दर्जे की बात कही होगी।
मुशायरे का नियम है कि 'वाह-वाह' बड़े कवियों की कविता पर अवश्य करना चाहिये। चाहे समझ में आये चाहे नहीं। यहाँ जितने लोग बैठे हैं उनमें से आधे से अधिक ऐसे हैं जिन्हें बहुत-सी कवितायें समझ में नहीं आतीं। कुछ तो इनमें ऐसे हैं जो दुकानदार हैं। दिन-भर कपड़ा बेचा, तरकारी बेची, बिसातखाने का सामान बेचा, रात को कविता सुनने चले आये। इनका यही गुण है कि कहीं उर्दू का कविता-पाठ होगा, यह जायेंगे अवश्य। यह लोग भी 'वाह-वाह' और 'सुभान अल्लाह' करते हैं। इससे कवि का मन बढ़ता है और उर्दू साहित्य की उन्नति होती है।
मुझे यह बात कुछ विचित्र-सी जान पड़ी। परन्तु अपने-अपने यहाँ का नियम ठहरा। मैं तो मूक दर्शक था। मैंने मौलवी साहब से कहा कि तब तो मैं भी 'वाह-वाह' कर सकता हूँ। मौलवी साहब ने कहा - 'अवश्य। यह आवश्यक नहीं है कि समझ में आये। 'वाह-वाह' कहते-कहते कविता समझ में आने लगेगी।'
मैं यही सोच रहा था कि कब से आरम्भ करूँ। एक शायर साहब आये। बड़े-बड़े बाल, आँखें लाल-लाल और हाथ में एक रेशम का रूमाल। अवस्था कोई बीस साल की होगी। मूँछें साफ थीं, दाढ़ी भी नहीं थी। चाल-ढाल ऐसी थी जैसे अभी किसी होटल से पन्द्रह पैग चढ़ाकर आये हैं। मैंने समझ कि यह अवश्य ऊँचे दर्जे का कवि होगा। यद्यपि अवस्था अधिक नहीं है, किन्तु रचना इसकी अवश्य उत्कृष्ट होगी। कविता और अवस्था में तो कोई सम्बन्ध नहीं है। कीट्स तेईस साल की अवस्था में जो लिख गया वह तिहत्तर साल में भी लोग नहीं लिख पाये।
ज्यों ही उसने बड़े सुरीले ढंग से दो पंक्तियाँ पढ़ीं, मैंने इस बात का ध्यान नहीं दिया कि लोगों पर इसका प्रभाव क्या पड़ेगा, बड़े जोरों से दो बार 'वाह-वाह', 'वाह-वाह' कहा। परन्तु देखता क्या हूँ कि उस उपस्थित जनता में किसी और के मुख से कोई शब्द नहीं निकले। सन्नाटा-सा रहा। लोग मेरी ओर आँख गड़ाकर देखने लगे। मुझे यह नहीं जान पड़ा कि क्यों लोग मेरी ओर ऐसे देखने लगे। मेरा मुँह एकदम लाल हो गया।
मैंने मौलवी साहब से पूछा कि क्या बात है। इस बार सब लोग चुप क्यों हैं?
मौलवी साहब बोले - 'आपने बड़ी गलती की। इसने एक ऐसी बात कही है जो मुसलमानी विचारों के विरुद्ध है। इसने कहा कि एक समय वह आयेगा जब इस्लाम आदि कोई धर्म पृथ्वी पर रह नहीं जायेगा।'
मैंने कहा कि इसमें क्या। यह तो कविता है। मौलवी साहब ने कहा कि नहीं, कविता में भी हम लोग कोई ऐसी बात नहीं लाना चाहते जो धर्म और परम्परा के विरोध में हो। मैंने कहा - 'तब तो नवीन विचार आ ही नहीं सकते।' मौलवी साहब ने कहा कि नवीन विचार तो संसार में कुछ है नहीं। जो लिखा जा चुका है, वही है। यह लड़का रूसी विचारों को माननेवाला है। आपको जब प्रशंसा करनी हो तब मुझसे पूछ कर 'वाह-वाह' कीजिये।
इसके बाद उसने कुछ और पढ़ा। इस पर एक बहुत वृद्ध मौलाना खड़े हो गये और कहा कि सभापति महोदय से मेरा अनुरोध है कि इनका पढ़ना बन्द कर दिया जाये। यह इस्लाम का अपमान है। उस युवक ने कहा कि मैं बुलाया गया हूँ। मुझे न पढ़ने देना मेरा अपमान है। इसी में सभापति महोदय ने अधिवेशन बन्द कर दिया।
मैंने मौलवी साहब से पूछा कि जहाँ कोई रूसी विचारों का नहीं पहुँचता वहाँ का मुशायरा कैसे समाप्त किया जाता है?
तीन बज रहे थे। मैंने उस युवक को धन्यवाद दिया कि मुशायरा समाप्त करने में उसने बड़ा सहयोग किया।