मैं पंडितजी के साथ टहलता जा रहा था। एक ईंट के लाल मकान के पास पन्द्रह-बीस आदमी खड़े थे। हम लोग निकट पहुँचे तो हमने देखा कि एक व्यक्ति भाषण दे रहा है। कोट, पतलून धारण किये एक पुस्तक हाथ में लिये था। कोट दस साल की पुरानी और पतलून उससे पुरानी जान पड़ती थी। टाई ढीली-ढाली थी। उस व्यक्ति का रंग रोशनाई के समान था। वह हजरत ईसा-मसीह की प्रशंसा कर रहा था। जब मैं पहुँचा तब वह कह रहा था कि हजरत ईसा मसीह ने एक कोढ़ी को हाथ फेरकर अच्छा कर दिया। इस पर भीड़ में से किसी ने पूछ लिया कि हजरत ईसा मसीह परमेश्वर के लड़के थे कि जादूगर थे। व्याख्याता महोदय समझा रहे थे कि जादूगर नहीं, गरीबों, दीन-दुखियों के प्रति दया और सेवा का भाव उनमें था।
मैं कुछ और देर तक उसका भाषण सुनता, किन्तु बगल में ही एक और भीड़ दिखायी दी। मैंने समझा यहाँ भी किसी धर्म का व्याख्यान होता होगा, किन्तु वहाँ देखा कि भिखमंगे की भाँति एक फकीर बहुत-सी जड़ी-बूटियाँ और दवाइयाँ फैलाये अपनी दवाइयों की प्रशंसा कर रहा है। बहुत-सी बातें तो उसकी मेरी समझ में नहीं आयीं, किन्तु कुछ-कुछ समझ सका। जान पड़ता था कि वह कोई बहुत बड़ा डाक्टर है। यहाँ भीड़ भी अधिक थी जिससे मेरी समझ में यह बात आयी कि यहाँ लोगों को अपने स्वास्थ्य की बड़ी चिन्ता रहती है। सरकार की ओर से अस्पताल पर्याप्त संख्या में नहीं हैं, इसीलिये सड़कों पर डाक्टर लोग अपनी दवाइयाँ लोगों के हितार्थ बेचते रहते हैं। मुझे पता नहीं कि इन डाक्टरों के पास किसी मेडिकल कॉलेज की डिग्री है कि नहीं।
हम लोग लौटकर फिर उसी ईसाई उपदेशक के पास पहुँचे। अब सन्ध्या हो चली थी और यहाँ भीड़ प्रायः नहीं थी। धर्म के बजाये शारीरिक स्वास्थ्य का लोगों को अधिक ध्यान था और उस दवा बेचनेवाले के पास अधिक लोग एकत्र हो गये थे। लोगों ने केवल बातें सुनीं कि दवाइयाँ भी मोल लीं, कह नहीं सकता।
उस ईसाई के साथ हम लोग लाल ईंटवाले घर में चले गये। वहाँ एक नौकर था। कुछ पुस्तकें थीं। मैंने पूछा कि कितने दिनों से तुम उपदेशक का कार्य करते हो। उसने बताया कि दस साल से। मैंने पूछा कि कहाँ तक पढ़े हो। उसने कहा कि छठे दर्जे तक अंग्रेजी पढ़ी है। सण्डे स्कूल में भी बाइबिल पढ़ी है। मैंने कहा - 'तुमने ईसाई सिद्धान्त और उसके दर्शन का कितना अध्ययन किया है?' उसने बताया कि बेकार बातों में सिर खपाना निरर्थक है। हिन्दू लोग धर्म नहीं कर्म समझते हैं। ईसाई धर्म की व्याख्या और बाइबिल के सिद्धान्त सौ साल तक समझायें तो उससे कोई लाभ न होगा। अभी प्लेग फैले तो गाँव में लोग दूसरे का मुर्दा नहीं उठाते। हम लोग जाकर उठा लेते हैं और परिवार ईसाई हो जाता है। अकाल पड़ता है, तब हम लोग भोजन देते हैं; त्याग और बलिदान पर भाषण देने से क्या लाभ? डोम लोग रात को पुकारे जाते हैं। पुलिस रात को डोमों के घर पर पुकारती है और उनका नाम चोरों में लिखा जाता है। हम उन्हें ईसाई बना लेते हैं, वह इससे मुक्त हो जाते हैं। फिर वह चोरी करें तो चोर नहीं समझे जाते। क्योंकि कोई ईसाई चोर नहीं होता। मैंने कहा कि यह नई बात बतायी। कोई ईसाई चोर नहीं होता। यदि ऐसा होता तो यूरोप के सब जेलखाने तोड़ दिये जाते। उसने कहा कि यह हम नहीं जानते। कोई डोम जब चोरों में पकड़ा जाता है, तब हम लोग कह देते हैं कि यह ईसाई है और उसकी जमानत हो जाती है और वह छूट जाता है।
मैंने उसकी कार्यबुद्धि पर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और कहा - 'किन्तु यह बात आपने अधिकांश उन लोगों की बतलायी जो निम्न कोटि के लोग हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, कायस्थ, वैश्य इन लोगों में से कितने को ईसाई बनाया?' उसने उत्तर दिया - 'दो बातें हैं। एक तो यह लोग यों ही आधे ईसाई हैं। पहनावे में, बोल-चाल में और खान-पान में तो हम लोगों से बढ़कर। पाव रोटी का नाश्ता इनके यहाँ होता है, बहुत-से स्थानों पर काँटा-छुरी से भोजन होता है। स्त्रियाँ ऊँची एड़ी का जूता पहनती हैं, कोई-कोई 'स्कर्ट' भी पहनती हैं। 'चीज' 'जाम' इनके खाने में शामिल हैं; पीतल, फूल और काँसे के बरतन की जगह चीनी प्लेट, थालियाँ और शीशे के गिलासों का प्रयोग हो ही रहा है। केवल गिरजाघर में नहीं जाते। सो मन्दिर ही कब जाते हैं? गंगा इत्यादि में इनकी श्रद्धा है ही नहीं। केवल बपतिस्मा इन लोगों ने नहीं लिया, नहीं तो बहुत-से इनमें हमसे बढ़कर ईसाई हैं।
'दूसरी बात यह है कि यह लोग जो ऊँचे समझे जाते हैं हमारे किस काम के? लड़ाई यह लड़ नहीं सकते। कोई पुरुषार्थ का कार्य यह कर नहीं सकते।'
मैंने उसे धन्यवाद दिया और चला। पंडितजी मेरे साथ थे। मैंने कहा कि देखिये पंडितजी, यदि सारा भारत ईसाई हो जाये तो सब राजनीतिक झगड़े भी दूर हो जायें। पंडितजी ने कहा कि इसमें विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं है। जिस प्रकार स्कूलों और कॉलेजों में शिक्षा हो रही है, वैसी ही चलती जाये तो बिना प्रयास भारत ईसाई हो जायेगा। किन्तु मैंने एक बात सुनी है। देशी ईसाइयों को विदेशी ईसाई अपने बराबर का दर्जा नहीं देते। मैंने कहा - 'पंडितजी, हम लोग शासक हैं, आप लोग शासित। यह अन्तर तो रहेगा ही। मुसलमान लोग जब यहाँ राज करते थे तब क्या अपने बराबर आप लोगों को समझते थे? अकबर इत्यादि ने भी हिन्दू लड़कियों से अपने यहाँ विवाह किये, अपनी लड़की से या शाही लड़की से किसी हिन्दू राजा का विवाह किया? हम लोगों के लिये भारतवासी कहते हैं कि रंग का भेद करते हैं। यह गलत है। उनकी समझ में नहीं आया। रंग का भेद नहीं है। भेद इतना है कि हम लोग शासन करनेवाले हैं। तब शासक अवश्य ही ऊँचे होंगे। भगवान को ही यह स्वीकार नहीं होता तो हम लोगों को शासक न बनाते। अच्छा पंडितजी, बताइये, आपके यहाँ जो बरतन मांजता है उसके साथ आप एक खाट पर बैठ सकते हैं?' पंडितजी ने कहा - 'नहीं।' तब मैंने कहा कि जब साधारण मालिक अपने नौकर के साथ नहीं बैठ सकता, तब बड़े देश के शासक लोग कैसे शासितों के साथ बैठ सकते हैं। आप लोगों की शिकायतें फिजूल हैं।
पंडितजी बोले - 'इस प्रकार आपस में मनोमालिन्य बढ़ता जायेगा।' मैंने कहा कि इसलिये तो कहा जाता है कि सारा भारत ईसाई हो जायेग, तब सब एक हो जायेंगे। तब शासक और शासितों का एक धर्म हो जायेगा। तब यह भेद-भाव मिट जायेंगे। तब देशी ईसाई और विदेशी मिलने-जुलने लगेंगे। विवाह इत्यादि आपस में होने लगेगा और एक एंग्लोइंडियन जाति पैदा होगी जिस पर ब्रिटेन को गर्व होगा कि हमने साम्राज्य ही नहीं बनाया, एक जाति भी बनायी।