हीन जातीयांना जैन साधुसंधात घेण्याची मनाई

आले बुड्ढे नपुसें य कीवे जड्ढे य वाहिए।
तेणे रायावगारी य उम्मत्ते य अदंसणे।.
दासे दुट्ठे य मुढे य अणत्ते जुगिए इ य।
उबद्वए च भयए सेहनिपफेडिया इ य।।


(१) बल, (२) बुद्ध, (३) नपुंसक, (४) क्लीब, (५) जड, (६) व्याधित, (७) चोर, (८) राजापराधी, (९) उन्मत्त, (१०) अदर्शन, (११) दास, (१२) दुष्ट, (१३) मूढ, (१४) ऋणार्त, (१५) जुंगित, (१६) कैदी, (१७) भयार्त, आणि (१८) पळवून आणलेला शिष्य या अठरांना जैन साधुसंघात घेण्याची मनाई आहे. यांच्यापैकी बर्‍याच व्यक्तींना बौद्ध भिक्षुसंघात देखील घेता येत नाही. ह्या दोन संघातील प्रवेशविधींची (उपसंपदाची) तुलना अत्यंत उपयुक्त होईल.* पण तो या प्रकरणाचा विषय नवहे. वर दिलेल्या अठरा असामीपैकी पंधराव्याचा तेवढा विचार आवश्यक आहे. त्या शब्दावरची टीका अशी—
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*बौद्ध भिक्षुसंघातील प्रवेशविधीसंबंधी ‘बुद्ध, धर्म आणि संघ’ प. ५६-६० व ‘बौद्धसंघाचा परिचय’ पृ. १७-१९ पाहा.
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“तथा जाति-कर्म-शरीराजिभुर्धूपितो दृंगित:। तत्र मतंग-कोलिक बरुड-सूचिक-छिपादयोस्पृश्या जातिजुंगिता:। स्पृश्या अपि स्त्री-मयुर-कुक्कुट-शुकादिपोषका वंशवरत्रारोहण- नखपरश्रालन- शौकिकत्व- वागुरिकत्वादिनिदित्तकर्मरिण: कर्मजुंगिता:। करचरणवर्जता: पगुकुब्ज-वामनककाणप्रभूतय: शरीरजुंहिता:। टेपि न दीक्षार्हा लोकेवर्णवादसंभवात।“

‘त्याचप्रमाणे जाति, कर्म, शरीर इत्यादिकांनी दूषित जुंगित समजावा. त्यात मांग, कोळी, बुरुड, शिपी, रंगारी इत्यादिक अस्पृश्य जातिजुंगित होत. स्पृश्य असून देखील स्त्री, मोर, कोंबडी, पोपट वगैरे पाळणे, बांबूवरची व दोरीवरची कसरत करणे, नखे साफ करणे, डुकरे पाळणे, पारध्याचे काम करणे. इत्यादि निंद्य कर्मे करणारे कर्मजुंगित होत. हातपाय नसलेले, पंगु, कुबडे, ठेंगणे, तिरचे इत्यादिक शरीरजुंगित होत. लोकांत टीका होण्याचा संभव असल्यामुळे ते देखील दीक्षा देण्यास योग्य नाहीत.”*
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*प्रवचनसारीद्धार द्वार १०७, हा उतारा मुनि. श्री. जिनाविजयजी यांनी काढून दिला. याबद्दल त्यांचे आभार मानतो.
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बौद्ध भिक्षुसंघात प्रवेश करण्याला जाति मुळीच आड येत नाही. कर्मे निद्यं असली तर ती त्याला सोडवीच लागतात, पण त्यामुळे तो दीक्षेला अयोग्य ठरत नाही.

अहिंदूंचा हिंदुसमाजात प्रवेश


असे जरी आहे, तरी बौद्ध आणि जैन या दोन्ही संप्रदायांनी परकीय लोकांना हिंदू समाजात दाखल करून घेण्याचे महत्त्वाचे कार्य केले. ग्रीक, शक, हूण, मालव, गुर्जर, इत्यादिक बाहेरच्या जाती हिंदुस्थानात आल्या आणि या दोन धर्माच्या महाद्वारांनी त्यांनी हिंदुसमाजात प्रवेश केला. प्रथमत: हे लोक जैन किंवा बौद्ध होत असत आणि मग यथारुचि ब्राह्मण, क्षत्रिय किंवा वैश्य बनत. एकाच घराण्यातील एका भावाच्या संततीने क्षत्रियत्व व दुसर्‍या भावाच्या संततीने ब्राह्मणत्व पत्करल्याचा दाखला सापडला आहे.*
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*ह्यासंबंधी Dr. D. R, Bhandarkar यांचा Indian Antiquary, Vol. 40, January 1911, rp 7-37 मध्ये प्रसिद्ध झालेला The Foreign Elements in the Indian Population हा लेख पाहावा. विशेषत: पृ. 35-36 वरील मजकूर अवश्य वाचावा.
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