वासुदेव कृष्ण

९६. पहिल्या विभागांत आपण पाहिलें आहे कीं, कृष्णानें इंद्राला दाद दिली नाहीं. जंगली प्रदेशाचा आश्रय करून त्यानें आपला व आपल्या लोकांचा बचाव केला. १  अर्थात् मध्य हिंदुस्थानांत त्याची पूजा सुरू झाली असल्यास आश्चर्य मानण्याजोगें कांही नाहीं. तो गोपालकृष्ण मागाहून बनला असें सर भांडारकर यांचें म्हणणें आहे. २  परंतु आम्हाला वाटतें कीं, तो – गोपींशीं क्रीडा करणारा नसला, तरी गाईबैलांचें रक्षण करणारा ह्या दृष्टीनें- वैदिक कालापासूनच गोपालकृष्ण होता. गाईबैलांचें बलिदान त्याला पसंत नव्हतें, व एवढ्याचसाठीं इंद्राशीं त्यानें विरोध केला. पशुयज्ञाची प्रथा अंगीकारून इंद्राचें स्वामित्व कबूल केलें असतें, तर त्याचें इंद्राशी भांडणच झालें नसतें.
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१ वि० १।४८-५०.
२ Vaishnavism etc. pp. 49-54.
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९७. आमचें चातुर्वर्ण्य इंद्राच्या पूर्वीं होतें हें पहिल्या विमागांत दर्शविलेंच आहे. १  तेव्हां कृष्णाच्या वेळींहि मध्य हिंदुस्थानांत जातिभेद होता असें समजलें पाहिजे. पण वासुदेव कृष्ण ह्या बाबतींत बराच सुधारक दिसतो. जातकांत, त्यांच्यासंबंधीं दोन गाथा सांपडतात, त्या अशा –

यं यं कामी कामयति अपि चंडालिकामपि |
सब्बेहि सदिसो होति नत्थि कामे असदिसो ||
अत्थि जंबावती नाम माता सिबिस्स राजिनो |
सा भरिया वासुदेवस्स कण्हस्स महिसी पिया ||२.
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१ वि० १।७०.
२ Jataka, vi, 421 ( Fausboll’s edition
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( कामी मनुष्य ज्या ज्या स्त्रीची इच्छा करतो, त्या त्या स्त्रीविषयीं तो तन्मय होतो; मग ती चांडलिका कां असेना. कामोपभोगांत समानासमानतेचा प्रश्न येत नाहीं. शिबीची जंबावती नांवाची आई होती. ती कृष्ण वासुदेव राजाची अत्यंत आवडती पट्टराणी.)

९८. याच्यावर टीका करतांना अट्ठकथाकार म्हणतो, “सिबि राजाची आई जांबवती ही चांडाली होती. ती कृष्ण वासुदेवाची आवडती पट्टराणी झाली. तो एके दिवशी द्वारकेहून निघून आपल्या उद्यानांत जात होता. वाटेंत त्यानें एक सुस्वरूप तरुणी पाहिली. ती चांडाली होती. हें त्याला समजलें, तरी पण ती अविवाहित असल्यामुळें तिला घेऊन तो तसाच राजवाड्यांत परत आला; व तिला जवाहिरांच्या राशीवर बसवून त्यानें आपली पट्टराणी केलें.”
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